Wednesday, October 24, 2012

विजयदशमी पर राम उदास






  लंकेश और उसके बंधु-बंधवों के पुतले धू-धू कर जल रहे हैं। असत्य पर सत्य की विजय, बुराइयों पर अच्छाई की विजय और राम-नाम के जयघोष से चारों दिशाएं गूंज रही हैं। मंच के एक कोने में लक्ष्मण के साथ राम उदास बैठे हैं। लक्ष्मण आश्चर्य व्यक्त करते हुए भ्राता राम से प्रश्न करते हैं, ''भ्राता! लंकेश पर विजय प्राप्त करने के उपरांत भी यह उदासी! उदासी का कारण, भगवन?''
राम ने हताश नजरों से लक्ष्मण को निहारा और बोले, ''कब तक जारी रहेगा यह नाटक? लंकेश को जितनी बार जलाया, वह उतनी ही बार वह अधिक शक्तिशाली रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत हुआ। कभी-कभी मुझे लगता है कि विजयी हम नहीं, लंकेश हुआ है और हमारे भक्त प्रति वर्ष उसकी विजय का ही पर्व मनाते हैं। भ्राता लक्ष्मण यही मेरी उदासी का कारण है।''
श्रीराम और भ्राता लक्ष्मण के मध्य वार्ता चल ही रही थी, तभी लंकेश के पुतले से निकलते धुएं से अट्टहास की गूंजा सुनाई दी। राम-लक्ष्मण सहित सभी के आंख-कान उस ओर केंद्रित हो गए। एक क्षण के उपरांत लंकेश की आत्मा श्रीराम के सम्मुख उपस्थित थी।
लंकेश ने श्रीराम को प्रणाम किया, लक्ष्मण को आशीर्वाद दिया और तत्पश्चात बोला, ''हे, अयोध्या पति राम! आपकी पीड़ा सार्थक है, किंतु उसके कारण आप और आपके भक्त स्वयं ही तो हैं। ..हे,राम! आत्मा अमर है। यह आप ही के द्वारा स्थापित सिद्धांत है! ..राम, आत्मा अमर है तो फिर आप मेरा अस्तित्व कैसे समाप्त कर सकते हैं?''
लंकेश मुस्करा कर बोला, ''भगवन! वर्तमान नेताओं के समान, क्या आप भी अपने सिद्धांत की हत्या स्वयं ही करने की इच्छा रखते हो।''
लंकेश ने दया-भाव के साथ श्रीराम की ओर निहारा और फिर उसी भाव के साथ बोला, ''श्रद्धेय, राम! मैं स्वर्ण-नगरी लंका का सम्राट हूं। जितनी बार जलाओगे उतनी ही बार कंचन के समान निखर कर आपके समक्ष उपस्थित हो जाऊंगा। देख नहीं रहे हो, श्रद्धेय राम! मेरा साम्राज्य अब लंका तक ही सीमित नहीं है! आपके आर्यावृत्त में भी मेरी ही टकसाल में निर्मित स्वर्ण-मुद्रा चलती हैं। चारों ओर राक्षस-संस्कृति का ही तो आधिपत्य है। आपका साम्राज्य सत्य और ईमानदारी के समान सीमित होता जा रहा है। असत्य और बेईमानी के समान मेरे साम्राज्य का विस्तार हो रहा है! .. इसके लिए मैं लंकेश नहीं, आप और आपके भक्त उत्तरदायी हैं, राम!''    
 भाव विह्वल हो कर लंकेश ने कहा, ''श्रद्धेय! त्रेता में भी आप मेरे लिए श्रद्धा के पत्र थे और आज भी पूजनीय हो। आपके द्वारा मृत्यु प्राप्त कर मैं मुक्ति की इच्छा रखता था और अपने उद्देश्य में सफल भी हो गया था! किंतु, श्रद्धेय! मैं बार-बार पुनर्जीवित होता रहूं, आपके भक्तों का हित इसी में है, अत: वे मुझे मुक्त नहीं होने देना चाहते!''
राम ने प्रथम लक्ष्मण को निहारा। लक्ष्मण मौन थे। इसके उपरांत निरीह भाव से उन्होंने लंकेश की ओर निहारा। लंकेश के मुख-मण्डल तेज, गौरव और गरिमा सहित सभी अलंकारों से सुसज्जित पाया। राम गर्दन झुकाई और मौन रह गए।
श्रीराम को इस स्थिति में देखकर लंकेश की विह्वलता में वृद्धि हो गई। उसके नेत्रों में खारा पानी छलक आया। नम आंखें पोंछते हुए वह बोला, ''नहीं-नहीं, श्रद्धेय! ..नहीं! आपका यह स्वरूप मेरे लिए असहनीय है, वेदना कारक है, राम! मैं आपकी त्रेतायी-छवि के ही दर्शन करने की इच्छा रखता हूं।''
लंकेश ने अपने संवेगों पर नियंत्रण किया और आगे बोला, ''श्रद्धेय! मेरा अस्तित्व किसी जर्जर ढांचे से नहीं जुड़ा है। मेरे अस्तित्व पर कभी संदेह व्यक्त नहीं किया गया है। मेरे अस्तित्व के संबंध में कल्पना अथवा यथार्थ के भी प्रश्न उत्पन्न नहीं हुए हैं और न ही मेरी गरिमा पत्थरों से निर्मित किसी सेतु के आश्रय है। यह लंकेश का अहम् नहीं यथार्थ है!''
इतना कहने के उपरांत लंकेश ने वाणी को क्षणिक विराम दिया और तत्पश्चात बोला, ''श्रद्धेय! आपके भक्तों ने आपके अस्तित्व आपकी गरिमा को कितना सीमित कर दिया है, कितना निर्बल कर दिया है, सुन कर दुख होता है! ..आपके सर्वव्यापी अस्तित्व को जर्जर एक ढांचे के साथ संयुक्त कर दिया है। आपके व्यक्तित्व को मृत्यु-लोक के एक निर्बल शहंशाह के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया है, आपके भक्तों ने।''
लंकेश ने एक आह भरी और कहा, ''..जो राम रोम-रोम में व्याप्त है, एक साधारण ढांचे से उसके अस्तित्व को संबद्ध करना कितना हास्यास्पद सा लगता है! .. किसी जीवित व्यक्ति को यदि कोई मृत घोषित कर दे, तो क्या वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा, नहीं ना श्रद्धेय! फिर त्रुटिवश भी यदि किसी ने काल्पनिक कह कर आपके अस्तित्व को चुनौती देने की चेष्टा की तो भक्तों ने हाहाकार मचा दिया! आपका अस्तित्व जल में उत्पन्न बुलबुला तो नहीं कि हवा के साथ समाप्त हो जाए।''
लंकेश ने अपने संवेगों पर नियंत्रण करने का प्रयास करते हुए कहा, '' ..जो राम कल्पनातीत है, उसके संबंध में कल्पना और यथार्थ जैसे सांसारिक प्रश्नों का औचित्य क्या?''
वाणी को क्षणिक विराम देने के उपरांत लंकेश पुन: पूर्व भाव से बोला, ''हे, मर्यादा पुरुषोत्तम राम! लंका और आर्यवृत्त के मध्य आदर्श और मर्यादा के जिस सेतु का आपने निर्माण किया था, उसे भुलाकर भक्तों ने तुम्हारी गरिमा एक तुच्छ सेतु से संबद्ध कर दी। जिस मर्यादा पुरुषोत्तम की गरिमा के प्रकाश से यह सृष्टिं प्रकाशित है, उसकी गरिमा का किसी सेतु से संबद्ध करने का औचित्य क्या?''
अंत में लंकेश बोला, ''श्रद्धेय! आपकी पीड़ा आपके ही भक्तों द्वारा जनित है और मेरा चिर-अस्तित्व भी उन्हीं भक्तों द्वारा प्रदत्त वरदान है। अत: मुझसे नहीं कलियुग के इस प्रपंच और प्रपंचकारियों से मुक्ति प्राप्त करने का उपाय सोचो, भगवन! आप मुक्त हो जाओगे, तो मैं स्वमेव मुक्त हो जाऊंगा।'' इतना कह कर लंकेश आंसू पोंछता-पोंछता पुतलों से उठते धुएं में पुन: विलीन हो गया।





Thursday, October 4, 2012

गीता पर आधारित उपन्‍यास 'योगक्षेम'


गीता पर आधारित मेरा नया उपन्‍यास 'योगक्षेम' परमेश्‍वरी प्रकाशन (किताब घर) नईदिल्‍ली से प्रकाशित।
                                                                       प्रसंगवश
     श्रीमद्भगवत गीता को मैंने जितना पढ़ा और समझा, मुझे प्रतीत हुआ कि गीता धर्मग्रन्थ नहीं, महान मनोवैज्ञानिक ग्रन्थ है और भगवान कृष्ण महान मनोवैज्ञानिक। स्वाभाविक भी है, क्योंकि गीता का उद्भव एक मनोवैज्ञानिक समस्या के निदान हेतु हुआ है। कुरुक्षेत्र के मैदान में परस्पर युद्ध के तत्पर कौरव व पाण्डव सेनाओं के योद्धाओं का अवलोकन कर अर्जुन के मन में स्वजन मोह उत्पन्न होना और फलस्वरूप मानसिक विषाद से पीड़ित होना, मानसिक समस्या ही थी। और, मानसिक व्याधा की निवारण मनोवैज्ञानिक पद्धति से होना ही संभव था। अत: अर्जुन को मोह और विषाद से मुक्त करने के लिए कृष्ण ने मनोविज्ञान का  ही सहारा लिया। यह कहना अनुचित न होगा कि द्वापर युग से लेकर आज तक कृष्ण जैसा न कोई मनोविज्ञानी हुआ है और न ही गीता जैसे दूसरे किसी महान मोनोवैज्ञानिक ग्रन्थ की रचना हुई। मनोवैज्ञानिक ग्रन्थ के अतिरिक्त और धर्म से परे यदि गीता को यदि अन्य कोई विशेषण दिया जासकता है, तो कहा जा सकता है कि गीता महान मनोविैज्ञानिक ग्रन्थ के अतिरिक्त अप्रतिम आध्यात्मिक ग्रन्थ भी है। यथार्थ में अर्जुन के मन में व्याप्त शंकाओं के निवारण हेतु कृष्ण उसे कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग के दर्शन से अवगत कराते हुए, उसे मानसिक उस उच्चतल पर ले जाते हैं, जहाँ पहुँचकर व्यक्ति को अपने यथार्थ स्वरूप का भान हो जाता है। उसे आत्म-चेतना के दर्शन हो जाते हैं और वह 'स्व' में जीने लगता है। उसी को 'ब्रह्मंस्थितिकहते है और आत्मसाक्षात्कार का मार्ग ही अध्यात्म है। इस प्रकार गीता में कृष्ण मनोवैज्ञानिक पद्धति का अनुसरण करते हुए अर्जुन को अध्यात्म की शिक्षा प्रदान करते हैं। इस प्रकार अजुर्न मोह, अहंकार के मानसिक सन्ताप से मुक्त हो कर स्वधर्म का अनुसरण करते हुए युद्ध के लिए पुन: तत्पर हो जाता है। यथार्थ में गीता  'जीवन पद्धति' का आख्यान है, सुख से परे आनन्दमय जीवन जीना का मार्ग प्रशस्त करती है।  इस प्रकार यह कहने में भी संकोच नहीं है कि श्रीमद्भगवत गीता किसी धर्म, सम्प्रदाय अथवा जाति विशेष का ग्रन्थ नहीं है, अपितु मानव केद्रित दर्शन का ग्रन्थ गीता जन-जन के कल्याण हेतु समस्त मानव जाति के लिए अद्भुत ग्रन्थ है।
  मानव-मात्र के उपयोगी गीता ग्रन्थ का अध्ययन करने के पश्चात मेरे मन में यह इच्छा हुई कि मूल पाठ को सुरक्षित रखते हुए गीता को से सुगम व रोचक ढंग से प्रस्तुत किया जाए, ताकि यह ग्रन्थ जन-जन तक पहुँच सके और जन-मानस उसकी शिक्षाओं के अनुरूप कल्याण-मार्ग का अनुसरण करते हुए जीवन को आनन्दमय बना सकें। रोचक रूप में प्रस्तुत करने का एक कारण यह भी था कि मैंने गीता को जानने-समझने के लिए प्राप्त जितने भी विद्वानों, गीता-मनीषियों के गीताभाष्यों का अध्ययन किया, उनमें गीता की पाण्डित्य पूर्ण विस्तृत व्याख्या तो अवश्य प्राप्त हुई किन्तु जन-मानस की साधारण बुद्धि के अनुरूप प्रतीत नहीं हुई। पाण्डित्य पूर्ण होने के कारण शुष्कता का पुट भी अधिक लगा, अत: मुझे अधिकांश भाष्य सर्वग्राही प्रतीत नहीं हुए। इसका कारण मेरी अपनी बौधिक-क्षमता की सीमा भी हो सकती है। अब मेरे समक्ष समस्या यह थी कि रोचक बनाने के लिए गीता को किस रूप में प्रस्तुत किया जाए? काफी विचार करने के उपरान्त मैंने गीता को उपन्यास के रूप में प्रस्तुत करने का निर्णय लिया। इस सम्बन्ध में अनेक विद्वानों के साथ विचार-विमर्श किया कुछ ने मेरे विचार की सरहाना की, तो कुछ ने यह कहते हुए कि गीता स्वयं एक उपन्यास ही है, मेरे विचार को नकार दिया। कुछ का मत था कि विचार तो उचित है, किन्तु, इसमें मौलिकता का अभाव रहेगा। उनका आशय सम्भवतया गीता के मूलपाठ से था। गीता के मूलपाठ के साथ यदि छेड़छाड़ की गई तो उसके मूल स्वरूप ही भ्रष्ट हो जाएगा और यदि मूलपाठ  के साथ छेड़छाड़ नहीं की तो उपन्यास में मौलिकता का अभाव रहेगा और यह मौलिक कृति नहीं कह लाएगी। उनकी आशंका अपने स्थान पर उचित थी और मेरे लिए चुनौती। चुनौती स्वीकारते हुए मैंने गीता पर आधारित उपन्यास ही लिखने का अन्तिम निर्णय लिया लक्ष्य प्राप्ति के लिए मैं चिन्तन-मनन में व्यस्त हो गया और महत्वपूर्ण दो विचार मेरे चिन्तन में अवतरित हुए। प्रथम- गीता के विभिन्न श्लोकों के सम्बन्ध में व्याप्त भ्रान्तियों का निराकरण। द्वितीय- गीता में निहित शिक्षा का अधुनिक परिपेक्ष में विस्तृत व्याख्या। इसके अतिरिक्त एक प्रमुख विचार यह था कि जब तक कृष्ण और अजुर्न के मध्य वार्तालाप चलता रहा, तब तक कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध के लिए तत्पर सेनानायक व सैनिक क्या करते रहे। मुझे यह अनुभव हुआ कि प्रथम दो विचार तो गीता को सरल व सर्वग्राही बनाने में सहायक सिद्ध होंगे और अन्तिम विचार गीता की रोचक प्रस्तुती में सहायक सिद्ध होगा।
  यद्यपि सम्पूर्ण गीता भगवान कृष्ण और अर्जुन तथा हस्तिनापुर सम्राट धृतराष्ट्र और संजय के मध्य वार्तालाप पर आधारित है। तथापि गीता के प्रथम व द्वितीय अध्याय के अतिरिक्त अर्जुन ने यदाकदा ही कृष्ण के समक्ष अपना मन्तव्य और प्रश्न के रूप में अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत की है। जहाँ तक धृतराष्ट्र का प्रश्न है, उसकी जिज्ञासा से केवल गीता का शुभारम्भ होता है। उसके उपरान्त वह मौन ही रहा। उपरान्त इसके गीता के मूलपाठ सुरक्षित रखते हुए कृष्ण वचनों की विस्तृत व्याख्या और विभिन्न शंकाओं का समाधान प्रस्तुत करने के उद्देश्य से प्रस्तुत इस कृति में अर्जुन मुख से विभिन्न प्रश्न कराए गएं। कुछ स्थानों पर कृष्ण मुख से ही  'अर्थात, यथार्थ' में जैसे शब्दों का उपयोग कर कृष्ण-वचनों की सरल व्याख्या करने का प्रयास किया गया है। इसके अतिरिक्त प्रचलित शंका-आशंका और व्याख्या  करते समय उत्पन्न प्रश्नों का उत्तर प्रस्तुत करने के लिए धृतराष्ट्र से भी प्रश्न कराए गए है, जिनके उत्तर गीता के आधार पर धृतराष्ट्र सारथी संजय ने दिए हैं। इस प्रकार अर्जुन व धृतराष्ट्र के माध्यम से गीता को सर्वग्रही व उपन्यास का रूप और विस्तार प्रदान करने का प्रयास किया गया है। जहाँ तक कुरुक्षेत्र में उपस्थित विभिन्न योद्धाओं की गतिविधियों का चित्रण करने का प्रश्न है, उसमें महाभारत की कथा को आधार बनाते हुए कल्पना का सहारा लिया गया है, क्योंकि महाभारत की विभिन्न कथाएं आधार बनाई गई र्ह, इसलिए कल्पना, कोरी कल्पना न हो कर इस कृति को रोचकता प्रदान करती हैं।
  गीता में कुल सात सौ श्लाक हैं अथवा  सात सौ एक इस सम्बन्ध में गीता मनीषियों के मध्य विचार-भिन्नता है। विवादास्पद वह श्लोक अध्याय 13 का प्रथम श्लोक ''प्रकृति पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च। एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव।।'' अर्जुन कृष्ण से कहता है- कृष्ण ! मैं प्रकृति व पुरुष, क्षेत्र व क्षेत्रज्ञ तथा ज्ञान व ज्ञेय के विषय में जानने की इच्छा रखता हैँ। अधिकांश विद्वानों का मानना है कि यह श्लोक क्षेपक है। इस श्लोक को क्षेपक स्वीकार करते हुए अधिकांश विद्वान गीता भाष्य के 13 वें अध्याय का शुभारम्भ   कृष्ण- वचन से ही करते हैं, जिसमें कृष्ण अर्जुन की उसी जिज्ञासा का समाधान करते हैं, अर्जुन ने जो जिज्ञासा क्षेपक के माध्यम से व्यक्त की है। इस औपन्यासिक कृति में अर्जुन की जिज्ञासा क्षेपक होने या न होने का विचार किए बिना ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई है, क्योंकि यह प्रासंगिक लगती है। इसके विपरीत 18 वें अध्याय के कुछ श्लोकों को क्षेपक के रूप में स्वीकारते हुए इस कृति में स्थान नहीं देने की भी धृष्टता की है, क्योंकि वे श्लोक जिन्हें स्थान नहीं दिया गया है, औचित्यहीन दृष्टिगोचर हुए और ऐसा अनुभव हुआ कि कृष्ण जैसे मूर्धन्य विचारक के मुख से ऐसे औचित्यहीन वचन कहलाना उनकी गरिमा पर प्रश्न चिन्ह अंकित करना ही होगा। कुल मिलाकर गीता के मूलपाठ को सुरक्षित रखते हुए इस औपन्यासिक कृति को रोचक व सर्वग्राही बनाने का पूर्ण प्रयास किया गया है, अन्तिम निर्णय  सुधि पाठक ही करेंगे।
  धन्यवाद  
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                       



Friday, September 21, 2012

भ्रष्टाचार में शिष्टाचार का समावेश ही कर्म-कौशल है!


मैंने जब कभी भी जिस किसी से भी कुछ लिया निष्काम भाव से लिया, अनासक्त भाव से लिया। वैसे तो मैंने किसी से कुछ लिया ही नहीं, क्यों कि मेरे लेने में कामना भाव नहीं रहा!  बिना मांगे यदि कुछ मिलता है, तो उस लेने को लेना नहीं, ग्रहण करना कहा जाता है। लोग स्वेच्छा से श्रद्धा भाव से देते रहे और मैं ग्रहण करता रहा। ग्रहण करना मेरी विवशता थी, क्यों कि यदि मैं ग्रहण करने से इनकार करता, तो देने वाले की भावन आहत होती और यह मेरी अशिष्टता होती है। अत: मैंने अपनी भावनाओं की परवाह न कर, शिष्टाचार का पालन करते हुए, सदैव ही दाता की भावनाओं का ख़याल रखा।
मैंने दाताओं से स्वयं भी कब ग्रहण किया! घर के ईशान कोण में एक छोटा-सा पूजा-घर स्थापित कर रखा है। जब कभी कोई श्रद्धालु श्रद्धा व्यक्त करने आया, मैंने उससे श्रद्धा सुमन ईश्वर के चरणों में अर्पित करने की विनती की। इस प्रकार श्रद्धावान गुप्त दान के समान श्रद्धा सुमन ईश्वर के चरणों में अर्पित करते रहे और मैं ईश्वर का आदेश मान उनके चरणों से प्रसाद ग्रहण करता रहा। मैंने कब कहाँ किसी से कुछ लिया! जो कुछ भी लिया यज्ञ-फल के रूप में ईश्वर के चरणों से ग्रहण किया! भगवान कृष्ण ने गीत में कहा है- जो पुरुष निष्काम भाव से अनासक्त होकर कर्म करता है और अपने सभी कर्म ईश्वर को समर्पित कर देता है, वह पाप-पुण्य से मुक्त हो जाता है, क्यों कि उसके अंतर्मन से कर्तापन का अहंकार समाप्त हो जाता है। वह स्वयं कुछ नहीं करता, जो भी करता है, ईश्वर करता है। वह तो निमित्त मात्र होता है। मेरे सभी लेनदेन-कर्म ईश्वर के चरणों में अर्पित थे! मैं तो केवल निमित्त था, लेने वाला तो ऊपर वाला था। हे, भद्रजनों गीत में इसे ही- योग: कर्मसु कौशलम्, कहा गया है! आप सभी के लिए यह मेरा आशीर्वाद है और यही शिक्षा कि मुद्र विनिमय कर्मयोग के अनुरूप करो, यही कौशल है, 'अत्रकुशलम् तत्त्रास्तुइसी में तुम्हारी कुशलता है!
    स्वामी अद्भुतानंद जी महाराज एक राजनैतिक दल द्वारा आयोजित चिंतन शिविर में वचनामृत की वर्षा कर कार्यकर्ताओं  को भिगो रहे थे। 'राजनीति में भ्रष्टाचार' विषय की चिंता को लेकर चिंतन शिविर आयोजित किया गया था। स्वामी जी ने  हाल में ही राजनीति का चोला त्याग धर्म का चोला धारण किया था। वास्तव में राजनैतिक कर्मक्षेत्र से धर्मक्षेत्र में उनका शुभ प्रवेश 'राजनीति में धर्म' का प्रवेश था। राजनीति की प्रदूषित गंगा को धर्म के माध्यम से प्रदूषण मुक्त करने के महान उद्देश्य से ही उन्होंने धर्म का चोला धारण किया है। स्वामी जी का मानना है कि जब तक राजनैतिक-धार्मिक-नेता गठजोड़ नहीं होगा, तब तक राजनीति की पावन धारा को स्वच्छ करना असंभव है।
स्व-चरित्र-चालीसा बखान करते-करते स्वामी अद्भुतानंद  महाराज बोले- भद्र जनों! शिष्टाचार जीवन का सबसे बड़ा सत्य है, क्यों कि वह जीवन की सभी विद्रूपताओं को ऐसे ढाँप लेता है, जैसे प्राकृतिक कुरूपता को कोहरा। किंतु, यह स्वयं असत्य पर आधारित है। और, असत्य ही शाश्वत सत्य है। इसी असत्य के माध्यम से सत्य को असत्य सिद्ध किया जाता है। लेकिन, असत्य को असत्य सिद्ध करना मूर्खता है, क्यों कि असत्य, असत्य है, यही सत्य है। असत्य को यदि असत्य के द्वारा सत्य सिद्ध कर दिया जाए, तब तो वह स्वत: सिद्ध सत्य हो ही जाता है, अत: असत्य दोनों ही अवस्थाओं में सत्य है। 
   वायुमंडल में दीर्घ श्वास-प्रसारण करते हुए स्वामी जी आगे बोले- भद्रजनों! शिष्टाचार का आधार असत्य है, यह कथन शास्त्र-सम्मत है! शास्त्रों में उल्लेख है, 'सत्यम् ब्रुयात् प्रियम् ब्रुयात्न ब्रुयात् सत्यम् अप्रियम्।सत्य बोला, प्रिय बोलो किंतु अप्रिय सत्य कभी न बोलो, क्यों कि अप्रिय सत्य- वाचन अशिष्टता है, शिष्टाचार के विरुद्ध है। अत: भद्रजनोंशिष्टाचार-मनकों के अनुरूप असत्य वाचन ही शिष्ट हैं, श्रेयष्कर हैं, क्यों कि सत्य सदैव अप्रिय ही होता है और असत्य सदैव ही प्रिय! और, सत्य यह भी है कि मानव भी असत्य प्रिय ही है। अत: जीवन का सर्वोच्च सत्य शिष्टाचार स्वयं असत्य पर आधारित है, यही सत्य है! फिर सत्य बखान कर अशिष्टता के प्रदर्शन का औचित्य क्या!
भद्रजनों! राजनीति से यदि भ्रष्टाचार समाप्त करना है, तो उसमें शिष्टाचार का समावेश करना होगा! मुद्रा विनिमय के शिष्ट मार्ग खोजने होंगे! ऐसा होने पर जल में डूबे कुंभ का जल, जल ही में समा जाएगा और दोनों का जल एक-जल हो जाएगा अर्थात जल, जल हो जाएगा। उसी प्रकार कथित भ्रष्टाचार भी शिष्टाचार हो जाएगा। दोनों असत्य मिलकर सशक्त असत्य हो जाएँगे और फिर वही सत्य हो जाएगा। और, तब आप बस यही कहेंगे- ''जल में कुम्‍भ, कुम्‍भ में जल है, बाहर-भीतर जल ही जल।''
***

Wednesday, June 20, 2012






        वक्त ने धोका  किया  अहसास से,
        क्यों सजाई आरती विश्वास से।
       
        इस चमन के फूल सब मुरझा गए,
        फिर हुआ धोका यहाँ मधुमास से।
        
        आरजूएं कर रही हैंखुदकुशी,
        क्यों सबक लेती नहीं इतिहास से।
        
        बन गया उनसे मिलन अभिशाप-सा,
        वो मिले जब भी मिले परिहास से।
        
        तू बता 'अंबरइरादे क्यों फना,
        दिललगी किसने करी अऩ्फास से।            

Monday, April 2, 2012

डकारने का दर्शन



स्कूल के वार्षिक समारोह में
मंत्री जी को बुलाया
मुख्य अतिथि बनाया
मंत्रीजी ने बच्चों की सेहत निहारी
खुल्ला खाने की नसीहत बघारी
मंत्रीजी बोले-
''देश धर्म का नाता है, खाना हमको भाता है।''
डाइटिंग हटाओ, देश बचाओ।
डाइटिंग सेहत के लिए घातक है,
देश की प्रगति में बाधक है।
इसलिए खाने में कभी नखारा नहीं दिखाया,
जो भी मिला उसे खुशी-खुशी  पचाया।
तुम भी खाने में नखरा न दिखाना,
जो भी मिल जाए उसी को पचाना।
छुप कर खाना, खुल कर खाना,
जैसा मौका मिले वैसे ही खाना।
छुप कर खाओगे, छुपे रुस्तम कहलाओगे,
पोल खुल गई तो रुस्तम-ए-हिंद बन जाओगे
देर-सबेर मंत्री भी  बन जाओगे।
मंत्रीजी बोले-
''गिरते हैं स-सवार ही मैदाने में जंग में,
वो क्या खाक गिरेंगे, जो घुटनो के बल चलते हैं।''
खाना तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है,
अत: खाते रहना, बस खाते रहना।
अधिकार समझ कर खाते रहना,
कर्तव्य समझ कर खाते रहना।
बस खाते रहना, खाते रहना,
जैसे भी हो बस खाते रहना।
मंत्रीजी बोले-
''जिसने की सरम, उसके फूटे करम,
जिसने की बेसरमाई, उसने खाई दूध मलाई।
तुम  लोहा खाना, सीमेंट खाना,
कुछ न मिले तो चारा ही खाना।
खाना तुम्हारा अधिकार है,
दूध-मलाई समझ कर खाना।
 मंत्रीजी बोले ,
तुम देस का भविष्य हो,
डकारना सीखो
डकारना तुम्हारा नैतिक दायित्व है,
इस देश के प्रति उत्तरदायित्व है। 
अत: जो भी मिले उसे ही डकारो ,
तोप डाकारो, तमंचे डकारो।
कुछ न मिले तो ताबूत ही डकारो,
देश के प्रति उत्तरदायित्व मान कर डकारो।
मगर शर्त यह है,
डकारना, मगर डकार न लेना,
बिना डकार के ही डकार लेना।
डकार कर, डकार लेना दु:चरित्र है,
डकार कर भी डकार न लेना राष्ट्रीय चरित्र है,
अत: डकार लेना- डकार लेना, पर डकार न लेना। 
डकारो, चाहे कुछ भी डकारो, मगर
इस देश को डाइटिंगवादियों से बचालो।
मंत्रीजी भावुक होकर गाने लगे-
मेरे देश को बचालो, चाहे चारा खालो रे,
चारा खालो रे चाहे, ताबूत चबालो रे,
मेरे देश को बचालो, चाहे कफन खालो रे
मेरे देश को बचालो---।

Wednesday, February 29, 2012

उदास मन






                                                 लम्‍हा-लम्‍हा जीवन बीता,
                                                 कतरा-कतरा मौत मिली।
                                                 जब-जब हमने साया मांगा,
                                                 तब-तब उनसे धूप मिली।
                                                              ***

Saturday, February 18, 2012

Thinking Tank Slideshow Slideshow

Thinking Tank Slideshow Slideshow: TripAdvisor™ TripWow ★ Thinking Tank Slideshow Slideshow ★ to Noida, Delhi and New Delhi. Stunning free travel slideshows on TripAdvisor