Monday, April 14, 2008

पांव-पान-पूजा की विस्तृत विवेचना

माननीय ज्ञानदत्त पाण्डेय जी के चरण्-कमलों में समर्पित
आचार्य के मुखर बिंदु से सफलता का सफल सूत्र श्रवण कर मुन्नालाल ने जिज्ञासा व्यक्त की, 'हे, आचार्य श्रेष्ठ! 'पांव-पान-पूजा' के इस सूत्र के संबंध में तनिक विस्तार से बताने की कृपा करें। इस सूत्र का आविष्कार कब हुआ, इसका पालन किस प्रकार करना चाहिए और उसका महत्व क्या है?'
शिष्य मुन्नालाल के जिज्ञासु प्रश्न सुन आचार्यश्री मुस्करा दिये और फिर बोले, 'बहुत ही दुरूह प्रश्न किया है, तूने शिष्य। इसके आविष्कार-काल के संबंध में तो संभवतया त्रिदेव ब्रह्मंा, विष्णु, महेश भी अनभिज्ञ ही होंगे। पुत्र बस इतना कह सकता हूं कि यह सूत्र देव-काल से चला आ रहा है। देवता स्वयं अपने इष्ट को इसी सूत्र के माध्यम से प्रसन्न करते थे और स्वयं भी इसी से प्रसन्न होते थे। इतिहास पर थोड़ा और ध्यान दिया जाए तो कहा जा सकता है कि प्रथम, त्रेता में भरत ने भ्राता राम के प्रति निष्ठा व्यक्त करने में इस सूत्र के पांव पक्ष को साकार किया था। जब राम वन के लिए प्रस्थान कर गये थे, तो अनुज भरत ने सिंहासन उनकी चरण पादुका सुसज्जित कर अयोध्या का राज-काज चलाया था। तब से आज तक सफलता के इच्छुक जन् अपने इष्ट की चरण्-पादुकाएं सिर पर उठाए फिरते हैं।'
मुन्नालाल ने पुन: प्रश्न दोहराया, 'आचार्यश्री! इस सूत्र की विस्तृत विवेचना कर पारण विधि पर प्रकाश डालने का कष्ट करें!'
आचार्यश्री काशीफल के समान गंभीर मुख-मुद्रा बनाते हुए कहा, 'पुत्र पांव का सीधा अर्थ है, चरण-स्पर्श। पान उपहार का प्रतीक है और पूजा से तात्पर्य है, स्तुति-ज्ञान!' इतना कहने के उपरांत आचार्यश्री ने सफल नेता के समान मुख-मुद्रा में पुन: परिवर्तन किया और काशीफल की भाजी सा लिप-लिपा मुंह बना कर बोले, 'पुत्र! जिस किसी किसी भी जीव से तेरी स्वार्थ पूर्ति की संभावना हो, उसके चरण पकड़ जमीन पर लंबवत लेट जा। साष्टांग प्रणाम भी उसे ही कहते हैं। यह मत देख की उसके चरण कीचड़ में धंसे हैं। बस उन्हें कीचड़ में कमल के समान समझ 'चरण-कमल' के सदृश्य महत्व दे। दिन में जितनी बार भी भेंट हो, चरण-स्पर्श के साथ ही प्रारंभ होनी चाहिए। प्रहर की ओर ध्यान मत दे, प्रत्येक भेंट का समय तेरे लिए 'गुडमॉर्निग' ही होना चाहिए।'
मुन्नालाल ने प्रश्नवाचक दृष्टिं से आचार्यश्री की ओर देखा और बोला, 'स्वाभिमान..?'
उसकी जिज्ञासा को मध्य ही में लपकते हुए आचार्यश्री धिक्कार स्वर में बोले, 'मूर्ख! ..स्वाभिमान क्या होता है? स्वाभिमान तो मूर्ख व्यक्तियों का आभूषण है। श्रेष्ठजन, प्रगतिशील जन् इस प्रकार के आभूषण उतारकर खूंटी पर टांग देते हैं, क्योंकि स्वाभिमान-अवगुण प्रगति में टांग अड़ाता है।'
मुन्नालाल ने पुन: प्रश्नवाचक दृष्टिं से आचार्यश्री की ओर निहारा। उसकी जिज्ञासा का भाव भांप आचार्यश्री बोले यदि तेरे घर में खूंटी नहीं है और तू स्वाभिमान को अपने साथ ही टांगे रखना चाहता है, तो भी चरण-स्पर्श में तेरा स्वाभिमान आहत नहीं होता है। ..प्रिय शिष्य! तू चरण-स्पर्श कर श्रद्धा का बचाए रख। मन-मन में गाली देता रह। कौन सुनता है? चरण-स्पर्श कर भले ही मन में 'गुरु जी पनही लागै' का उच्चारण कर। इस प्रकार श्रद्धा सुरक्षित रहेगी, तो तेरा स्वाभिमान भी सुरक्षित रह जाएगा। चरण-स्पर्श के समान ही, प्रिया शिष्य 'पूजा' तत्व को अपना। तेरा इष्ट भले ही अवगुणों का भण्डार हो, किंतु तेरे लिए वह सद्गुणों की साक्षात प्रतिमा है। अंतर्मन में भले ही कुछ हो, किंतु उसके लिए तेरे मुख से स्तुति-गान के बोल ही निकलने चाहिए। आपने इष्ट की गंदी आदत पहचान और उन्हें सद्गुण समझ इष्ट की इच्छा पूर्ति कर। यदि उसमें ऐसी आदतों का अभाव है, तो उत्पन्न कर। शराब, शबाब, कबाब सभी प्रकृति प्रदत्त हैं। बिना किसी भेद भाव के इष्ट को अर्पित कर। इसी शुभ कर्म का प्रतीक पान है।'
आचार्य श्री ने वाणी को क्षणिक विराम दिया और आगे कहा, 'अब तू इसका महत्व सुन। इस सूत्र के पारण से तुच्छ मनुष्य भी परम्-पद को प्राप्त होता है। ..शिष्य मुन्नालाल श्रद्धा को सुरक्षित रख, निष्ठा का त्याग कर, स्वाभिमान को खूंटी पर टांग और सूत्र का पारण कर परम्-पद की प्राप्ति कर। मेरा आशीर्वाद तेरे साथ है। तेरा कल्याण हो, पुत्र !'
संपर्क – 9868113044