Friday, August 15, 2008

मुक्ति बोध

भाग्यहीन है, वह!
जिंदा है, मगर मरी समान!
कुछ लोग तो सब्र कर ही बैठ गए, वह किसी आतंकवादी की गोली की शिकार हो गई होगी अथवा उसका अपहरण कर लिया गया होगा!
सही सलामत होती, तो आशीर्वाद जरूर मिलता, उसका। किसी एक की पूंजी नहीं है, वह। वह तो जन-जन की मां है। सब की दुलारी है, वह।
किंतु, कमबख्त है, वह!
कुछ लोग उसकी उम्र का घटा जोड़ लगाने लगे हैं! रोज पैदा करते और रोज मारने लगे हैं, उसे!
उसके दत्तक पुत्रों का कहना है कि अब तो साठ पूरे कर इकसठ में पांव रख लिया है, उसने। सठिया गई है, वह!
आम आदमी त्रस्त है, घटा जोड़ के इस अंक गणित से। वह त्रस्त है, क्योंकि दिन, मास और वर्ष की सीमा रेखाओं में कैद कर लिया गया है, उसे!
मां की भी कोई उम्र होती है, भला! क्या मां भी कभी बचपन, जवानी और बुढ़ापे में कदम रखती है, भला!
इस तरह तो वह एक दिन मर भी जाएगी!
मां तो मां है!
शरीर तो नहीं कि रोज-रोज पैदा हो और रोज-रोज मरे!
कितना स्वार्थी हो गया है, आदमी! वस्तु की तरह उपभोग कर रहा है, उसका!
और, जो नि:स्वार्थ सान्निध्य चाहता है, उसका। जिसके लिए ही धरा पर अवतरण हुआ उसका। वही युगों-युगों से वंचित है। केवल उसके लिए ही वह जन्म मृत्यु से परे है।
अभागिन है वह!
दुर्भाग्य! कि वह कुछ लोगों की ही क्रीत दासी बन का रह गई। वह क्या बनी ताकतवर कुछ लोगों ने उसे कभी आजाद होने ही नहीं दिया!
जब से सभ्यता नाम की महामारी ने आदमी के झुंड में प्रवेश किया। ताकतवर चंद लोगों ने उस पर कब्जा कर लिया है। कितना अच्छा होता यदि आदमी सभ्य न होता। तब वह भी सर्व-सुलभ होती।
आदिम काल में जीता था, जब आदमी। वह भी आजाद थी और आदमी भी। आदमी ने जब से कथित सभ्यता का लबादा ओढ़ा है। आदमी सेवक से सामंत बन गया। न वह आजाद रही और न ही आदमी।
आजाद रहा तो केवल सामंत। लड़ते रहे आपस में उसके लिए। जो जीता वह आजाद रहा, जो हारा वह गुलाम। गुलाम के लिए वह मर गई और जीतने वाले ने उसकी उम्र की गणना
शुरू कर दी एक-दो-तीन।
गोरे आए, शरीर व बुद्धि दोनों में ताकतवर थे। सामंतों से छीन कब्जा जमा बैठे उस पर। कुछ के लिए एक बार फिर उसका देहावसान हो गया और कुछ के लिए पुनर्जन्म। गोरो ने भी उसकी उम्र का हिसाब किताब लगाया। वह पूरे डेढ़ सो वर्ष जिंदा रही उनके लिए।
बांझ नहीं है, वह।
भरा-पूरे परिवार है उसका, पिता भी पति भी और पुत्र भी।
मगर कुलक्षणी रही वह!
एक दिन सरफरोशी की तमन्ना जगी, सिरफिरे उसके पुत्रों के दिल में। टक्कर ले बैठे हुक्मरानों से। जज्बा था उनके दिल में उसे गोरों के चंगुल से मुक्त कराएंगे।
मुक्ति के नाम पर एक-एक कर एक हजार एक पुत्र होम कर दिये उसने!
सबेरा हुआ एक दिन। चारो तरफ शोर मचा- आजादी मुक्त हो गई गोरों की दासता से! हम भी आजाद हो गए! राम राज्य स्थापित हो गया!
मगर यह क्या! सब कुछ दिवास्वप्न था! कुछ लोगों के लिए वह जरूर फिर से पैदा हुई। मगर आम आदमी के लिए दोपहर आते-आते फिर मर गई!
मुक्ति कहां मिली, उसे। अपने होम हो गए और दत्तक पुत्र काबिज!
करमजली है वह।
नहीं, समझाया उसने अपने पुत्रों को।
कि सभ्य समाज में मुक्ति शब्द ही अर्थहीन है।
मुक्ति स्वयं ही मुक्त नहीं है।
मुक्ति यदि मुक्त हो गई तो फिर बंधन का क्या होगा!
सदियों से चली आ रही दास परंपरा का क्या होगा!
किसी की दासता, सामंतों के लिए मुक्ति है और उनकी मुक्ति, उनके लिए दासता।
नहीं, समझाया उसने अपने पुत्रों को!
बदनसीब थी वह!
न वह आजाद हुई थी और न ही आदमी। हुआ था बस एक हस्तांतरण। गोरों के चंगुल से मुक्त हुई थी वह, मगर कालों ने झपट लिया उसे। आम आदमी पहले भी गुलाम था आज भी गुलाम है।
पहले पर-अधीन थे! अब स्व-अधीन हैं!
अब तो सुना है सिर पीट-पीट कर उसने भी दम तोड़ दिया है और दत्तक पुत्रों ने उसकी लाश भी टुकड़े-टुकड़ों में बांट ली है। जिसके हाथ उसकी दौलत लगी, उसने कहा आर्थिक आजादी मिल गई। जिसके हाथ राज-काज लगा, उसने कहा राजनैतिक आजादी मिल गई। तीसरे टुकड़े को लेकर दोनों के बीच समझौता हुआ और उसके साथ ही घोषणा कर दी गई-'अब सामाजिक आजादी भी हमारी दासी हो गई!'
अच्छा होता वह किसी किसान की कुटिया की स्वामिनी होती, यदि! हलवा-पूरी न सही मगर
दासी तो न कहलाती। किसान कुछ अपनी कहता कुछ उसकी सुनता, यूं घुट-घुट कर तो न मरती!
अच्छा होता यदि वह किसी मजदूर का वरण कर लेती! मजदूरिन कहलाती, मगर बंधुआ तो नहीं! दिन भर मजदूरी करते रात को एक दूजे का दुख-सुख बांटते!
तब पुत्रवती हो कर भी कम से कम निपूती तो न कह लाती। वह बंधक है, मुक्त नहीं!
मुक्त रहना उसकी नियति नहीं!
वह अजन्मा है, इसलिए मरी नहीं!
मरना उसकी प्रकृति नहीं!
आदमी मूर्ख है,
खोजता है, उसे राजपथ पर!
लाल किले की प्राचीर पर!
संपर्क : 9717095225

Wednesday, August 6, 2008

नेता का विराट स्वरूप

भक्तजनों ने आग्रह किया- स्वामीजी! साधना के उपरांत ही सही, किंतु ईश्वर का ज्ञान संभव है। उसकी अनुभूति संभव है, किंतु यह नेता! नेता हमारे लिए अगम-अगोचर हो गया है। साधना, आराधना, प्रार्थना के उपरांत भी नेता का रहस्य समझ नहीं आ रहा है! कृपया कुछ प्रकाश नेता के रूप पर भी डालिए, ताकि हम लोकतांत्रिक जीव भी उसकी माया को जान सके और लोक-सागर से पार हो सकें।
भक्तजनों के आग्रह-स्वर श्रोत्रेंद्रियों में प्रवेश करते ही स्वामीजी के मुखारबिंदु से निकला, नेता! 'नेति-नेति' अर्थात यह भी नहीं यह भी नहीं। फिर स्वामीजी बोले जिसका उद्ंभव ही 'न' से हुआ हो उसका वर्णन शब्दों में कैसे संभव है? शब्द ज्ञान की अपनी सीमाएं हैं और नेता असीम है। फिर भी हे, भक्तजनों! सीमित शब्दावली में ही मैं नेता के असीम स्वरूप का वर्णन करने का प्रयास करता हूं।
'जुगाड़' की तरह अपने प्रवचन को आगे खींचते हुए स्वामीजी बोले, हे भक्तजनों! नेता सर्वव्यापी है, सर्वाकार है, निर्विवाद है, सद्ंचिदानंद है, जुगाड़ी है अर्थात सभी जुगाड़ों का स्त्रोत है। नेता के विराट स्वरूप का संक्षिप्त वर्णन करने के बाद स्वामीजी ने उसके एक-एक गुण का विस्तृत वर्णन कुछ इस प्रकार किया।
भक्तजनों! नेता सर्वव्यापी है, वह राष्ट्र के कण-कण में व्याप्त है। राजधानी से लेकर गांव-देहात तक की गली-मौहल्ले की हर ईट के नीचे वह विद्यमान है। हृदय निर्मल होना चाहिए घट-घट में नेता के दर्शन संभव हैं।
भक्तजनों, अब मैं नेता के सर्व-विवादित गुण का बखान करता हूं। सर्व-विवादित यह गुण है उसका स्वरूप। आदिकाल अर्थात जब से सृष्टिं में नेता नाम के जीव का उद्ंभव हुआ है, तभी से उसके स्वरूप को लेकर विवाद है। कहा जा सकता है कि नेता और उसका स्वरूप विवाद दोनों का उद्ंभव व विकास साथ-साथ ही हुआ है।
हे, भक्तजनों! विवादों के पार यदि देखा जाए तो नेता सर्वाकार है, बहुरूपी है।कभी-कभी उसे बहुरूपिया कह कर भी संबोधित किया जाता है। क्योंकि नेता लीलामय है, इसलिए भक्त ने उसके जिस रूप के दर्शन की इच्छा व्यक्त की नेता ने उसे उसी रूप में दर्शन दिये। उसके विभिन्न स्वरूप भक्त की भावना पर भी निर्भर करते हैं। शास्त्रों में कहा गया है-
'जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देख तिन तैसी'
बहुरूपिया होने के बावजूद शास्त्रों में मूलतया उसके दो स्वरूपों का वर्णन प्रमुखता से मिलता है। आज के प्रवचनों में हम मुख्य रूप से इन्हीं दो रूपों की चर्चा करेंगे।
हे, भक्तजनों! शास्त्रों को घोट कर यदि निचोड़ा जाए तो नेता का मूल स्वरूप निराकार ही सिद्ध होता है। निराकार है, तभी तो जल-वायु और आकाश की तरह वह दल रूपी पात्र के अनुरूप आकार धारण कर लेता है, रंग बदल लेता है। निराकार है तभी तो वह घट-घट का वासी है और आड़ी-तिरछी उसकी टांग का आभास तभी तो प्रत्येक क्षेत्र में हो जाता है। स्नेह के वशीभूत भक्तजन कभी-कभी उसे घाट-घाट का जल ग्रहण-कर्ता भी कहते हैं। दर्शन देकर नेता अक्सर अंतर्धान हो जाता है, हवा हो जाता है, इसलिए ही उसका एक नाम हवाबाज भी है। ये सभी लक्षण उसके निराकार स्वरूप का वर्णन करते हैं।
नेता के निराकार स्वरूप का वर्णन कर अद्ंभूतानन्द जी महाराज ने अपने प्रवचन पर अर्ध विराम लगाया। भक्तों ने अगला प्रश्न उठाया, 'नेता जब निराकार है, तो दर्शन किसके?'
चिलम में दम लगाने की माफिक महाराज ने लंबी सांस खींची और फिर बोले, 'प्रश्न महत्वपूर्ण है।'
हे, भक्तजनों! नेता निराकार ही है। मगर जब-जब चुनाव सन्निकट होते हैं, भक्तों के आग्रह पर वह उम्मीदवार बनकर साकार रूप में अवतरित होता है। भक्तजनों यही कारण है कि चुनाव संपन्न हो जाने के बाद नेता अंतर्धान हो जाता है। वास्तव में तब वह अपने निराकार रूप में चला जाता है। इसलिए तुच्छ जन को उसके दर्शन नहीं होते। मगर जो प्राणी भक्ति-भाव (पांव-पान-पूजा) के साथ उसके विराट स्वरूप के सामने आत्मसमर्पण कर देते हैं, ऐसे भक्तों को वह निराकार स्वरूप में भी दर्शन देता है।
भक्तजनों, सभी जुगाड़ों का आदि स्त्रोत होने के कारण नेता को जुगाड़ी भी कहा गया है। जुगाड़ उसकी प्रकृति है, उसकी माया है। सृष्टि के तमाम जुगाड़ उसी के जुगाड़ से संचालित हैं। जिसके सहारे वह संपूर्ण राजनैतिक सृष्टिं का निर्माण करता है।
स्वामीजी, यह भ्रष्टाचार? हां, हां, भ्रष्टाचार!
भक्तजनों, भ्रष्टाचार भी उसी शक्ति पुंज जुगाड़ का एक अंश है। हे, भक्तजनों! जिस प्रकार जल से भरा कुंभ यदि जल ही में फूट जाए तो दोनों जल एक दूसरे में समा जाते हैं, एकाकार हो जाते हैं। उसी प्रकार की गति जुगाड़ व भ्रष्टाचार की है। इसलिए शास्त्रों में कहा गया है कि भ्रष्टाचार जुगाड़ है और जुगाड़ भ्रष्टाचार। नेता प्रथम भ्रष्टाचार के लिए जुगाड़ करता है, फिर भ्रष्टाचार के सहारे चुनाव के लिए धन का जुगाड़ करता है और फिर उसके सहारे चुनाव में विजयश्री प्राप्त करने का जुगाड़। विजयश्री प्राप्त हो जाने के बाद सरकार बनाने के जुगाड़ में व्यस्त हो जाता है। ये सभी उसकी लीलाएं हैं। ऐसी ही लीलाओं के माध्यम से संपूर्ण राजनैतिक सृष्टिं की संरचना का जुगाड़ फिट हो जाता है। यह जुगाड़ ही की माया है कि नेता कभी नहीं हारता, हमेशा जनता ही हारती है।
नेता निर्विवाद है। दुनिया के संपूर्ण प्रपंच उसकी माया है, लीला है। मर्यादा स्थापना हेतु प्रपंच करना उसका परम कर्तव्य है। प्रपंच के माध्यम से वह लोकतंत्र वासियों को उनके कर्तव्य- अकर्तव्य का बोध कराता है। क्योंकि वह कीचड़ में कमल की भांति, प्रपंच करते हुए भी उनमें लिप्त नहीं होता। वह प्रपंच कर्म भी सहज भाव से करता है, इसलिए निर्विकारी है, निर्विवाद है,
सभी विवादों से परे हैं।
नेता का असत्य भी सत्य हैं, क्योंकि सत्य के मानदंड, सत्य की परिभाषा परिवर्तनशील हैं, इसलिये समय के अनुरूप नेता ही सत्य के मानदंड व परिभाषा तय करता है। इसलिये ही शास्त्रों में नेता को सत्ं और जनता को असत्ं कहा गया है।
नेता चित्स्वरूप भी है। राजनीति की समस्त चेतना नेता ही से प्रवाहित है। नेता को शक्ति पुंज कहा गया है। लोकतंत्र के लोक और तंत्र दोनों ही का चेतना स्त्रोत नेता ही है। लोकतंत्र रूपी सृष्टिं के संपूर्ण चक्र-कुचक्र नेता की ही माया से संचालित हैं। लोकतंत्र का जुगाड़ उसी की चेतना से गतिशील है। क्योंकि वह सत् है, चित् है, इसलिए वह आनंद स्वरूप है। वह आनंद स्वरूप है, इसलिए ही जनता दुखानंद रूप है। जनता का दुख ही नेता का आनंद है और उसका आनंद जनता का दुख है। यही लोकतंत्र का नियम है। शेष कल भक्तजनों, आओ अब नेता के उस विराट स्वरूप की आरती उतारे। धन्य-धन्य के सुर के साथ भक्तजन अपने-अपने स्थान पर खड़े हो कर आरती गुनगुनाने लगते हैं।