Tuesday, January 8, 2008

अबोध!!!

रेत जिस सहजता से इकट्ठा होता है,
उसी सहजता से बिखर जाता है।
कल नहीं जानता था, अबोध था।
पांव पर रेत चढ़ाता, घर बनाता।
खुश होता,
स्रजनात्मक अभिव्यक्ति पर।
वह मेरा सहज विजय-भाव था,
अहम् नहीं।
रेत का घर रेत की तरह बिखर जाता।
रोता..!
वह मेरा पराजय भाव था।
अहम् का बिखरना नहीं।
तब नहीं जानता था।
रेत का घर, रेत होता है।
घर नहीं!
तब मैं अबोध था!
आज जानता हूं,
अबोध नहीं हूं!
फिर भी सपने बुनता हूं,
महल बनाता हूं।
किंतु यह स्रजनात्मक अभिव्यक्ति नहीं,
अहम् भाव है।
क्योंकि मैं अब अबोध नहीं, जानता हूं।
फिर भी खुश होता हूं, अहम् भाव पर।
महल ढह जाते हैं,
सपने बिखर जाते हैं।
फिर भी रेत के महल खड़े करता हूं,
सपने बुनता हूं।
सच में आदमी कल भी अबोध था,
आज भी अबोध है!
रेत के महल खड़े करता है।
रेत की तरह बिखर जाते हैं।
सपने बुनता है,
सपनों की तरह बिखर जाते हैं।
अतीत के सहारे, वर्तमान का निर्माण।
और रेत के गलियारों में,
कहीं खो जाता है, वर्तमान का यथार्थ!
संपर्क – 9868113044