Monday, March 31, 2008

चिंता प्रधान देश

एक गोष्ठी में जाना हुआ। चर्चा का विषय था, 'क्या भारत कृषि प्रधान देश है।' विषय सामयिक था। सभी विद्वान वक्ताओं के भिन्न-भिन्न मत थे, अत: वक्ताओं ने पक्ष-विपक्ष दोनों ही पहलुओं पर जमकर लतरानी की और विद्वत्ता का परिचय दिया। कहते हैं कि जहां सभी एक मत के लोग हों, वहां विद्वत्ता का अभाव होता है।
पहले वक्ता मुन्नालाल थे। उनका मानना था कि भारत कृषि प्रधान देश है। क्योंकि किसान आत्महत्या कर रहे हैं और उनके मुक्ति-आन्दोलन को मीडिया बराबर तरजीह दे रहा है। मीडिया केवल प्रधान विषयों को ही प्रधानता प्रदान करता है। बजट में किसानों के दयनीय हालत पर चिंता व्यक्त करते हुए, कर्ज-माफ किया गया। प्रधानमंत्री और भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी भी किसानों की दयनीय स्थिति पर चिंता व्यक्त कर चुके हैं। सोनिया जी तो रहती ही चिंतित है। भारत यदि कृषि प्रधान देश न होता, तो सरकार किसानों को लेकर चिंतित न होती।
दूसरे वक्ता मास्टर मुसद्दीलाल मुन्नालाल जी के मत से सहमत नहीं थे। उनका कहना था कि किसान की आत्महत्या के अकेले तर्क के आधार पर देश की अर्थ-प्रधानता का निर्धारण करना बेमानी होगा। उन्होंने बल देते हुए कहा कि भारत कृषि-प्रधान नहीं भ्रष्टाचार प्रधान देश है, क्योंकि समूची अर्थ व्यवस्था भ्रष्टाचार के फन पर उसी प्रकार टिकी है, जिस प्रकार शेषनाग के फन पर पृथ्वी। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इस मुद्दे पर चिंता व्यक्त की थी।। उनके कहने का तात्पर्य था कि एक रुपये में से केवल 8भ् पैसे ही भ्रष्टाचार के माध्यम से देश की अर्थिक स्थिति को सुदृढ़ कर रहे हैं, शेष क्भ् पैसे फिजूल ही जाया हो रहे हैं। ऐसी ही चिंता भाव प्रधानमंत्री राहुल गांधी भी व्यक्त कर चुके हैं। हकीकत में भ्रष्टाचार का यह शिष्टाचार जिस दिन लुप्त हो जाएगा, अर्थ व्यवस्था रसातल में चली जाएगी। अत: इस देश में कृषि नहीं, भ्रष्टाचार प्रधान है।
मास्टर मुसद्दीलाल के उपरांत माइक संभाला प्रो. खैराती लाल जी ने। उनका मत पूर्व दोनों वक्ताओं से भिन्न था। उन्होंने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा कि यह महंगाई प्रधान देश है। इस देश में ईमान के अलावा सभी कुछ महंगा है। इस देश में निरंतर यदि किसी ने प्रगति की है, तो वह महंगाई ही है। महंगाई हमेशा ही महंगी रही है, कभी सस्ती नहीं हुई। महंगाई जीवन-संगनी ही नहीं, पनघट से मरघट तक साथ देने वाली दिव्य प्रेयसी है। महंगाई देश की सुदृढ़ अर्थिक स्थिति का प्रतीक है। महंगाई का कद राजनीति से भी बड़ा हो गया है। महंगाई के बढ़ते रुतबे को देखकर पक्ष-विपक्ष दोनों आतंकित हैं। प्रधानमंत्री, भावी प्रधानमंत्री, राजमाता और पी.एम. वेटिंग सभी इस पर चिंता व्यक्त कर चुके हैं। किंतु यह भी सभी जानते हैं कि जिस दिन इस देश में 'टके सेर भाजी, टके सेर ख़्ाजा बिकने लगेगा' यह देश लाल बुझक्क्ड़ का देश कह लाया जाने लगेगा। कौन सरकार चाहेगी कि महंगाई दर में कटौती कर लाल बुझक्क्ड़ की सरकार कहलाए। अत: यह देश महंगाई प्रधान देश है।
संगोष्ठि-कक्ष से बाहर निकल कर हम सोच रहे हैं कि सभी वक्ता अपूर्ण सत्य का बखान करते रहे। पूर्ण सत्य की और किसी का ध्यान नहीं गया। यह देश न कृषि प्रधान है, न भ्रष्टाचार प्रधान और न ही महंगाई प्रधान है। यह देश चिंता प्रधान देश है। क्योंकि इस देश में प्रत्येक समस्या का समाधान केवल मात्र चिंतित होना है। यही पूर्ण सत्य है।
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Saturday, March 29, 2008

जूं रेंगती नहीं अथवा अहसास नहीं होता

आजकल जूंओं के बारे में एक आम शिकायत है कि उन्होंने रेंगने छोड़ दिया है, निष्क्रिय हो गई हैं। पति को पत्‍‌नी की जूं से शिकायत हैं। घर कभी चिल्ड्रेन पार्क सा लगता है तो कभी कबाड़ी की दुकान सा। लाख कहने के बावजूद पत्नी के कान पर जूं नहीं रेंग रही है, घर व्यवस्थित नहीं कर पा रही है। पत्नी को पति की जूं से शिकायत है। बार-बार चीखने चिल्लाने और आंसू जाया करने के बाद भी पति की जूं सक्रिय नहीं हों रहीं है। पति रास्ते पर नहीं आ रहें हैं। संतान को मां-बाप की जूंओं से और मां-बाप को संतान की जूंओं से इसी तरह की शिकायत है।
इस प्रकार की शिकायतें केवल घरेलू जूंओं की ही नहीं है। राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इस प्रकार की शिकायतें बहुतायत में प्राप्त होती रहती हैं। स्वायत्ता के लिए तिब्बती आन्दोलन कर रहे हैं। उनके समर्थन में यूरोपिय देश भी चिल्ल-पौं मचा रहे हैं, मगर चीन के कान की जूं रेंग ही नहीं रही है। भारत व पाकिस्तान को भी एक-दूजे की जूंओं से कमोबेश ऐसी ही शिकायतें हैं। कैसी अजीब बात है कि जब जूं निष्क्रिय हों जाती हैं, तो सेनाएं सक्रिय हो जाती हैं और आतंकवाद की जूं शरीर पर चहलकदमी करने लगती हैं।
इसी प्रकार की शिकायतें राष्ट्र-राज्य स्तर पर भी है। महंगाई बढ़ रही है, किसान आत्महत्या कर रहें हैं और सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही है। एक-आधा जूं ने करवट बदली भी थी, किसानों के कर्ज माफ कर दिए गए, मगर बाकी जूं उसका श्रेय लेने में जुट गई। बहरहाल किसानों का जीवन-मुक्ति अभियान जारी है! अजीब बात है कि देश का आम नागरिक भ्रष्टाचार की आग में झुलस रहा है और प्रशासन भ्रष्टाचार के आरामदेह गद्दों पर सुख की नींद सो रहा है। उसके कान पर एक जूं तक नहीं रेंग रही है।
शासन-तंत्र भले ही कोई हो जूंओं की मानसिकता अपरिवर्तनीय है। राजतंत्र हो या हो लोकतंत्र जूं समान भाव से ही रक्तपान करती हैं। वे अपने मन से ही सक्रिय होती हैं और अपने ही मन से निष्क्रिय। जब इच्छा होती है कान पर चहलकदमी करने लगती हैं, जब इच्छा होती है, तंद्रा में लीन हो जाती हैं। मगर एक अहम सवाल यह भी है कि जूं क्या वास्तव में अपने धर्म से विमुख हो गई हैं? क्या वास्तव में अब वे रेंगती नहीं हैं? हमें लगता है कि उन पर निष्क्रिय होने का आरोप लगाना जूंओं के प्रति अन्याय ही है।
हो सकता है, हताश कुछ लोगों की जूंओं ने रेंगना बंद कर दिया हो। रेंगने का जब कोई फर्क ही न पड़े तो व्यर्थ रेंगने का औचित्य भी क्या? जूं रेंगना शुरू भी कर दें, तो भी कौन बबूल पर आम लटकने लगेंगे और नहीं रेंग रहीं हैं, तो ही क्या आम के वृक्षों पर बबूल के कांटे उग आए हैं। दरअसल मसला जूंओं के रेंगने न रेंगने का नहीं है। असल मसला है अहसासीकरण का। जब अहसास होना ही बंद हो जाए तो ऐसी स्थिति में उनका रेंगने या न रेंगना स्वयं ही औचित्यहीन हो जाएगा।
जनता कितनी भोली है, जूंओं से उम्मीद करती है कि वे अपने पदचाप से सरकार को जागृत कर देंगी। सरकार निद्रा में नहीं है, जो जागृत अवस्था में आएगी। सरकार विदेह है, अर्थात अशरीरी और देह से परे आत्म स्थिति प्राप्त प्राणी के कान पर जूं रेंगे या न रेंगे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है।
जनता वास्तव में भोली है, वह नहीं जाती है कि प्रशासन भोग-योग, आसक्ति-विरक्ति और राग-वैराग्य से परे कर्मयोगी की स्थिति को प्राप्त हो गया है। वह भोगों का भोग करता है, मगर उनमें लिप्त होता नहीं है। वह भ्रष्टाचार करता है, मगर भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं है, इसलिए वह भ्रष्टाचारी नहीं है। जब वह कर्म करते हुए भी कर्मो में लिप्त नहीं है, तब जूं रेंगे या न रेंगे फर्क क्या पड़ता है। अत: तोहमत जूंओं पर लगना वाजिब नहीं है। जूंओं का काम रेंगने है, आज भी रेंग रहीं हैं। उनके शरीर पर न सही तुम्हारे शरीर पर ही सही। असल मुद्दा अहसासीकरण का है। विदेह और कर्मयोगी अहसास विहीन होते हैं। अत: जूं रेंगने भी लगे तो फर्क क्या पड़ता है!
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Monday, March 24, 2008

गधों को ‘गधे’ के विशेषण से नवाज़ा जाना

गधे क्या आदिकाल से ही 'गधे' थे या इस विशेषण से उन्हें बाद में नवाजा गया? प्रश्न मौलिक भी है, गंभीर भी और शोध का विषय भी! इसलिए जब से यह प्रश्न मेरे जहन में अवतरित हुआ है, तभी से मेरा मन प्रसव-पीड़ा के समान शोध-पीड़ा से पीड़ित है। मेरे जैसे खोजी प्रवृति व्यक्ति के लिए यह स्वाभाविक भी है! अत: स्वभाव के अनुरूप प्रश्न का जवाब खोजने की प्रक्रिया शुरू हो गई। जवाब हासिल करने के लिए मैंने गधों के चरित्र व स्वभाव पर एकाधिकार रखने वाले महान साहित्यकार कृशन चंदर के प्रिय गधे को चुना।
कृशन चंदर के गधे को खोजना भी अपने आप में दुष्कर कार्य था। मगर 'जिन खोजे तिन पाइए' की तर्ज पर एक दिन सफलता हासिल कर ही ली। महान साहित्यकार कृशन चंदर के प्रिय गधे का मिलना मेरे लिये सुखद आश्चर्य था! क्योंकि मैंने उसे कहां-कहां नहीं खोजा, सत्ता के गलियारों में, आश्रमों के बाड़ों में, विश्वविद्यालयों के बरामदों में, मगर नहीं मिला। मिला भी तो निर्जन एक खंडहर में।
अक्ल के पुतले गधे की दयनीय ऐसी दशा देख सुखद आश्चर्य यकायक दुखद आश्चर्य में तब्दील हो गया। अश्रुपूरित नेत्रों के साथ हम ने दादा को प्रणाम किया और फिर थोड़ा सा फासला बना कर उनके चरणों में बैठ गये।
आसन ग्रहण करने के साथ ही हमारे मुंह से निकला, ''क्या हाल बना रखा है, कुछ लेते क्यों नहीं, दादा?''
लेटे-लेटे ही दादा ने थूथड़ी ऊपर उठाई और बोले, ''मेरे हाल पर न जाओ, यह बताओ हमसे से इतनी दूरी क्यों? लगता है, आदमी अभी सुधरा नहीं।''
दादा ने पिछली टांगे जमीन से रगड़ी और बोले, ''सुनो बरखुरदार! आदमी की तरह हम गधे लोग बिना वजह दुलत्ती नहीं झाड़ते। वजह हो तो भी हर वजह पर नहीं। दुलत्ती झाड़ते भी हैं, तो सिर्फ आदमी को डराने के लिए। ..तुम ही बताओ अब तक कितने आदमी घायल हुए हमारी दुलत्ती से? अरे भाई! हम आदमी नहीं हैं कि आदमी को घायल करने के लिए, आदमी की तरह दुलत्ती झाड़ते रहें।''
दादा की अंतर्यामी क्षमता देख हम गदगद हो गये। उनके प्रति हमारे मन में उत्पन्न स्नेहमयी ज्वार-भाटा की गति और तेज हो गई। अपने आप पर शर्मिदा हुए और शर्म के ही वाहन पर आरूढ़ हो कर उनके चरणों के करीब पहुंच गये!
''दादा! आदमी और आदमी का दुलत्ती से संबंध हमारी समझ नहीं आया, जरा विस्तार से बताओ।''..अनायास उठी यह लघु शंका हमने उनके सामने प्रस्तुत की।
''सीधी सी बात है, बरखुरदार! दुलत्ती झाड़ना हमारी नहीं, आदमी की फितरत है।अपने अवगुणों को अन्य जीवों पर आरोपित करना भी आदमी ही की फितरत है।''
दादा आगे बोले, ''खैर, छोड़ो ये सब बातें। यह बताओ कि गरीब खाने में कैसे आना हुआ।''
औपचारिकता का निर्वाह करते हुए हमने बस इतना ही कहा, ''यों हीं बस आपकी आत्मकथा पढ़ी थी, मिलने की इच्छा जागृत हो गई।''
दादा ने त्यौरी पर बल डालते हुए कहा, ''झूठ मत बोलों! आदमी और बिना प्रयोजन किसी के पास जाए, वह भी मेरे जैसे उपेक्षित जीव के पास, असंभव!'
कृशन चंदर द्वारा लिखित इन महाशय की आत्मकथा हमने एक बार नहीं, कई बार पढ़ी थी। बौद्धिक और आदमी के मन की बात भांप लेने की उनकी क्षमता से प्रभावित भी हुए थे। मगर भेंट हुई तो आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रह पाए।
आखिरकार लागलपेट की मानवीय प्रवृति पर विराम लगाते हुए लघु शंका निवारण के बाद दीर्घ शंका निवारण के लिए मूल सवाल उनके सामने पटक दिया, ''सावन के बादलों की तरह एक सवाल हमारे जहन में अर्से से गरज रहा है, दादा! कृपया उसका निवारण करें।''
अनुमति प्राप्त होते ही हमने सवाल दाग दिया, ''दादा, क्या आपकी प्रजाति के जीव प्रारंभ से ही 'गधे' हैं अथवा बाद में कहलाये?''
हमारा सवाल सुनते ही दादा की आंख भर आई और ओस की बूंद से दो आंसू आंख से निकल थुथने पर लुढ़क गये। फिर अपने को संभाला और बोले, ''वत्स निष्ठंा, हां! निष्ठंा, और वह भी आदमी के प्रति। निष्ठंा की पराकाष्ठा ने ही हम गधों के साथ यह विशेषण जोड़ दिया। उससे पहले हम केवल नाम के ही गधे थे।''
क्षणिक मौन के उपरांत दादा आगे बोले, ''हां, वत्स! हमारे एक पूर्वज की निष्ठंावान गलती का खामियाजा पूरी बिरादरी आज तक ढो रही है। मालिक के घर में चोर घुस जाने पर यदि हमारा पूर्वज भी कुत्ते की तरह ही सोता रहता, तो हम भी आज सम्मान की जिंदगी जीते होते!''
कहते-कहते दादा की आंख-नाक दोनों से जल-धारा ऐसे प्रवाहित होने लगी, मानों पितरों के सम्मान में तर्पण-संस्कार पूर्ण कर रहे हों! दादा ने लंबी सांस खींच कर जल-धारा के प्रवाह के सामने अवरोध खड़ा करने का प्रयास कर बोले, ''उसके कर्तव्य क्षेत्र में भी नहीं था, धोबी को जगाना! ..मगर निष्ठंा ने उसका मुंह बंद नहीं रहने दिया और धोबी को जगाने की मंशा से वह जोर-जोर चिल्लाने लगा। ''
दादा ने आह भरी और बोले, ''..निष्ठंा की सजा उसे मौत मिली और पूरी बिरादरी को सदा-सदा के लिए अपमान! उस निष्ठंा के ही कारण पूरी बिरादरी को बेवकूफ की उपाधी से नवाजा गया! उससे पहले गधे भी 'गधे' नहीं कह लाए जाते थे! हम भी सामान्य जीवों की ही श्रेणी में आते थे, वत्स!'
लगता था कि उम्र के साथ-साथ दादा कुछ ज्यादा ही भावुक हो गये हैं। अक्ल का परिचय तो आज भी उन्होंने कृशन चंदर के ही जमाने का सा दिया, मगर उस तरह की शैतानी अब उनमें देखने को नहीं मिली।
गमगीन माहौल को कुछ हल्का करने के उद्देश्य से हमने अगला सवाल किया, ''दादा! तुम्हारी बुद्धिमत्ता के किस्से तो आज भी चर्चित हैं। तुम्हारे जैसे जहीन जीव को तो देश का नेतृत्व संभालना चाहिए। तुम राजनीति में क्यों नहीं आ जाते? वैसे भी राजनीति में तुम्हारी बिरादरी वालों की संख्या कुछ कम नहीं है। कई तो सत्ता तक पहुंच गये हैं।''
सवाल सुन दादा इस बार मुस्करा दिए, ''गलत! एक भी तो नहीं!'' दादा की थूथड़ी पर अचानक ही चिंतन की रेखाएं उभर आई और फिर विचार की मुद्रा में बोले, ''अच्छा! ..चलो एक-आधे का नाम तो बताओ?''
दादा ने फिर लंबी सांस खींची और गंभीर हो कर कर बोले, ''बरखुरदार! निष्ठंावान, ईमानदार, मेहनती, संतोषी, निर्विकारी जीव का भला राजनीति में क्या काम? अगर किसी ने हिम्मत की भी तो ऐसे जीव को टिकने कहां दिया गया!''
दादा के जवाब पर अप्रत्यक्ष असहमति व्यक्त करते हुए हमने अगला सवाल किया, ''दादा! 'गधे पंजीरी खा रहे हैं!' ..फिर यह कहावत क्यों?''
सवाल सुन कर इस बार न तो दादा की आंख में आंसू थे और न ही थूथड़ी पर मुस्कान की लकीरें। इस बार उनकी आंखों में क्रोध की लाल-लाल लकीरें जरूर थी।
दादा ने थूथड़ी अगले पैरों से रगड़ते हुए बोले, ''गलत, बिलकुल गलत! गधे नहीं, कुत्ते दूध-मलाई खा रहे हैं। अरे, बरखुरदार! गरदन झुकाकर ईमानदारी से काम में लगे रहने वालों केभाग्य में पंजीरी कहां?''
''मगर कहावत तो यही है, दादा!'' हमने दादा को कुरेदने की मानवीय चेष्टा की।
''.. यह कहावत गधों के खिलाफ साजिश है और इसके पीछे उसी आदमी और कुत्ते का दिमाग है, जिनके कारण गधा बेवकूफी का पर्यायवाची बना। इसके पीछे भी मंशा वही, बेईमानी की पंजीरी कोई खाए और बदनाम कोई और!''
'मगर दादा कुत्ता क्यों? कुत्ता भी तो वफादार जीवों की श्रेणी में आता है। हमने अगला सवाल उछाला।'
दादा बोले, ' निष्ठंा व चापलूसी में अंतर करना सीखो, बरखुरदार। चापलूस कभी निष्ठंावान नहीं हो सकता। कुत्ता निष्ठंावान नहीं चापलूस है। जिसने भी टुकड़ा डाल दिया उसी के आगे दुम हिला दी, उसी के तलवे चाट लिये। हमने कभी किसी के तलवे नहीं चाटे, दुम नहीं हिलाई। दिन भर मेहनत की और रात को सूखी घास चबा कर ही संतोष कर लिया।'
'आदमियों की दुनियां में चापलूस ही पंजीरी खा रहे है और हमारे जैसे गधे, 'गधे' कह लाए जा रहे हैं। इतना भी होता तो भी गनीमत थी, खा वे रहे हैं, वाउचर हमारे जैसों के नाम से भरे जा रहे हैं। हमारी नहीं कुत्तों की संस्कृति अपनाई है, तुम लोगों ने। मिल गये न सभी सवालों के जवाब, बरखुरदार! अब जाओ, मुझे भी आराम करने दो।'
लघु व दीर्घ हमारी भी सभी शंकाओं का समाधान हो चुका था। मगर इस बार कृशन चंदर के उस प्रिय गधे के प्रति हमारी श्रद्धा की धारा इतने ज्यादा वेग से उमड़ी की वह सभी बांध तोड़ने के लिये आतुर थी। इस बार आदमियत के कारण नहीं अपितु पूर्ण समर्पण भाव के साथ दादा के चरणों में गिर पड़े और बोले दादा तुम्हारी सेवा अब हम करेंगे।
आंख बंद करते-करते दादा बोले, 'बेवकूफ न बन। आदमी है, आदमी ही रह। गधे का बच्चा मत बन। गधे का बच्चा बनेगा तो सुखी घास में ही गुजारा करना पड़ेगा।'
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Thursday, March 20, 2008

असत्य ही सत्य है

यह गांधी का देश है। 'सत्य अहिंसा परमोधर्म' इस देश का मूलमंत्र है। इस मूलमंत्र का जाप करते हुए हम शत-प्रतिशत गांधी के बताए मार्ग पर चल रहे हैं, अर्थात सत्य, अहिंसा और धर्म मार्ग पर। ये तीनों नैतिक मूल्य हमारी संस्कृति के आधार है। इनकी अवहेलना कर हम बे-पैंदी के लोटे बनना नहीं चाहते। सत्य! लाल-श्वेत रक्त कोशिकाओं की तरह सत्य तो हमारे रक्त में समाहित है, रग-रग में प्रवाहित है। अहिंसा, बाप-रे बाप! इस शब्द का विलोम भी हमारे शब्द कोष में नहीं है, न वाचा, न मनसा, न कर्मणा।
प्रतिक्रियावादी चंद लोग हमारे सत्य से कुंठित है, इसलिए उसे नकार रहे हैं। हमारे सत्य को गलत रूप में परिभाषित करने की चेष्टा कर रहे हैं। यह कहन भी अतिश्योक्ति न होगा कि इसके लिए वे झूठ का सहारा ले रहे हैं।
दरअसल हमारे सत्य के प्रतिक्रिया स्वरूप ही उन्होंने असत्य शब्द की रचना की है। मगर हम उनके इस असत्य 'सत्य' को भी अंगीकार करते हैं। क्योंकि छोटी-छोटी बात के लिए हम किसी के भी मन को व्यथित करना नहीं चाहते।
दरअसल हम स्वभाव से ही उदारवादी हैं, अहिंसावादी हैं। गांधीजी कह गये हैं कि हिंसा शारीरिक ही नहीं मानसिक भी होती है। पर मन को दुखित करना भी हिंसा है।
हमारे लिए उनका 'असत्य' भी सत्य है। क्योंकि हमारे शास्त्र भी इसका पोषण करते हैं और गांधीजी भी इसे स्वीकारते हैं। शास्त्र कहते हैं-
'सत्यम् ब्रुयात प्रियम् ब्रुयात,
न ब्रुयात सत्यम्ं अप्रियम्ं।'
अर्थात सत्य बोलो, प्रिय बोलो, मगर अप्रिय सत्य कभी न बोलो।
स्पष्ट है कि शास्त्र अप्रिय सत्य बोलने से साफ- साफ इनकार करते हैं। मगर प्रतिक्रियावादी हमारे जिस सत्य को असत्य कहते हैं, शास्त्र उसके बोलने पर पाबंदी नहीं लगाते। क्योंकि सत्य की तरह असत्य वचन कटु नहीं होते। उनमें शक्कर का सा मिठास होता है। ऐसे वचनों से किसी के मन को ठेस नहीं पहुंचती। तभी तो असत्य प्रशंसा सुन कर भी मन गार्डन-गार्डन हो जाता है।
विडंबना यही है कि प्रतिक्रियावादियों का सत्य कभी प्रिय नहीं होता। व्यावहारिक विज्ञान के अनुसार भी सत्य हमेशा ही कटु होता है। सत्य वचन हमेशा ही दूसरों के मन को व्यथित करते हैं, कष्ट पहुंचाते हैं। आचार-विचार में सत्य का सहारा लेने वाले व्यक्ति 'परिचित्तानुरंजन' प्रवृति के जीव होते हैं। 'परिचित्तानुरंजन' हिंसा है और हम हिंसावादी नहीं हैं। क्योंकि हम गांधी के मार्ग का अनुसरण करते हैं, इसलिए हम प्रतिक्रियावादियों के सत्यवादी मार्ग से सहमत नहीं हैं। यही कारण है कि हम उनके द्वारा परिभाषित सत्य को अपनाने से कतराते हैं।
सत्य अप्रिय होता है, शाश्वत सत्य है और मनीषियों ने सत्य को 'अप्रिय' विशेषण से वैसे ही विभूषित नहीं कर दिया। सत्य अप्रिय होता है! इसके पीछे भी कई कारण है। प्रथम सत्य वचन से पोल खुलने का भय बना रहता है। कौन चाहेगा कि उसकी पोल खुले। पोल न खुले इसलिए विशेष कुछ जीवों व क्षेत्रों को विशेषाधिकार दिये गये हैं। विशेषाधिकार का सीधा-सीधा ताल्लुक सत्यं ब्रुयात पर पाबंदी है। फिर भी यदि कोई सत्य के सहारे विशेषाधिकार संपन्न जीवों की पोल खोलने का दुस्साहस करे तो उसे दंडित किया जा सके। वैसे भी पोल खोलने से दूसरे के मन को पीड़ा पहुंचती और गांधीजी कह गए है, पर पीड़ा हिंसा है और हम गांधीजी के सत्य मार्ग पर आरूढ़ हैं।
द्वितीय निंदा का आधार भी सत्य ही है और पर पीड़ा की तरह निंदा भी हिंसा की ही श्रेणी में आती है। हिंसा मनुष्य का धर्म नहीं है, गांधीजी कह गए हैं। हम गांधीजी के बताए मार्ग पर चल रहे हैं।
असत्य पूर्णरूपेण मानवीय दृष्टिंकोण पर आधारित है, इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं है। अर्थात असत्यवादी पूरी तरह मानववादी है। मानव ही असत्य दर्शन का केंद्र बिंदु है। क्योंकि असत्य वचनों में हिंसा की मिलावट कतई नहीं है। असत्य वचन व्यक्त कर हम हिंसा से साफ-साफ बच जाते हैं। ऐसा करना ही मानव मात्र के लिए श्रेय कर है। गांधीजी भी कहते हैं, मनुष्य को मनसा,वाचा,कर्मणा अहिंसा वादी ही होना चाहिए। अत: हम गांधी के बताए मार्ग पर चल रहे हैं।
असत्य ही एक ऐसा फार्मूला है, जिससे व्यक्ति, समाज व राष्ट्र की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती है। क्योंकि असत्य भ्रष्टाचार का वाहक है और भ्रष्टाचार चार पुरुषार्थो में से अर्थ व काम नाम के महत्वपूर्ण दो पुरुषार्थो का आदि स्त्रोत है। भ्रंष्टाचार ही के कारण नेता व अधिकारियों के यश में वृद्धि होती है, धन-धान्य से परिपूर्ण होते है। भ्रष्टाचार सत्य वचन की तरह कोई पर पीड़ा दायक तो नहीं। यह तो इस हाथ ले और उस हाथ दे का स्वच्छ व ईमानदारी से परिपूर्ण सौदा है।
इस देश का बहुजन आज जब बगल में असत्य की बैसाखियां दबाए सत्य मार्ग का अनुसरण कर रहा है, धर्म मार्ग पर चल रहा है। ऐसे में अल्पजनों का सत्य-सत्य पुकारना, सत्य उजागर करना, सत्य खाना और सत्य पीना कहां तक जायज है। ऐसा करना राष्ट्र की मुख्य धारा से संबंध विच्छेद करना है, राष्ट्रीय नीति की अवहेलना है, राष्ट्र की अस्मिता पर आघात है, राष्ट्र द्रोह है।
अप्रिय सत्य की अपेक्षा असत्य वचन ही उत्तम हैं, यह हमारा नेताई मत ही नहीं है,दृढ़ विश्वास भी है। अप्रिय होने के कारण प्रतिक्रियावादियों का सत्य असत्य है। बस हमारा असत्य ही सत्य है, शाश्वत सत्य है। यही परम धर्म है। इस प्रकार यह देश गांधी और गांधी जैसे अन्य मनीषियों द्वारा दिखलाए सत्य मार्ग का अनुसरण कर रहा है। धर्म मार्ग पर चल रहा है। इसलिए ही यह देश महान है, हम महान हैं।
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Tuesday, March 18, 2008

भारत रत्‍न गिल साहब!

भारतीय हॉकी टीम बीजिंग ओलंपिक में खेलने से वंचित रह गई। हॉकी टीम यदि 'टीम' होती तो बीजिंग में सैर-सपाटा करने से वंचित न रहती। पराजय को राष्ट्रीय शर्म का विषय बताया जा रहा है। समूचा राष्ट्र शरमसार है। केवल गिल साहब के अतिरिक्त! दरअसल गिल साहब प्रोफेशनल व्यक्ति हैं। प्रैक्टिकल अप्रोच वाले इनसान हैं। मेरा मानना है कि हॉकी को मोक्ष प्रदान करने के लिए वे कतई दोषी नहीं हैं। जो व्यक्ति गिल साहब की आलोचना कर रहे हैं, उनसे पूछना चाहूंगा कि संहारकर्ता को पुनर्जीवन का कार्य क्या सोच कर सौंप गया? मेरे दूसरा सवाल है- गिल साहब को हॉकी की बागडोर थमाते हुए क्या उन्हें बताया गया था कि आतंकवाद की तरह हॉकी को गडडी नहीं, चढ़ाना है, उसे पुनर्जीवित करना है?
राष्ट्रीय-चरित्र में 'शर्म' नाम का यह तत्व अचानक कहां से घुसपैंठ कर गया? मैं आश्चर्यचकित हूं! हकीकत में हॉकी टीम का ओलंपिक से वंचित रहना नहीं, राष्ट्रीय-चरित्र में 'शर्म' तत्व की घुसपैंठ शर्म का विषय है! गिल साहब की अध्यक्षता में चुनिंदा प्रोफेश्नल नेताओं की एक कमैटी गठित कर इस घुसपैंठ की जांच होनी चाहिए।
हॉकी को राष्ट्रीय खेल का दर्जा प्रदान करना, मेरे लिए आश्चर्य का पहला कारण है। पता नहीं किसने और क्यों अंग्रेजों के इस खेल को राष्ट्रीय-सम्मान से विभूषित करने की जुर्रत कर दी? भारत का राष्ट्रीय खेल कबड्डी होना चाहिए था। गूल्ली-डंडा हो सकता है। इनके अतिरिक्त कंचे-गोली को राष्ट्रीय खेल घोषित किया जा सकता था। ये सभी ऐसे खेल हैं, जो क्षेत्रवाद से ऊपर उठ कर गली-गली खेले जाते हैं। कंचे-गोली का तो जवाब नहीं! हमारी समूची राजनीति ही गोली बाजी पर आधारित है। ऐसा कौन सा दल और कौन से नेता है जो 'गोली' देने में माहिर नहीं है! यदि अंग्रेजों के खेल को ही राष्ट्रीय खेल का दर्जा देना है, तो क्रिकेट को दिया जा सकता है। ऊपर वाले की दुआ से आजकल क्रिकेट का झण्डा भी बुलंद है और खिलाडि़यों की बिकावली का बाजार भी गर्म है।
शरमसार होने का वैसे भी कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि नाक ऊंची रखने के लिए हमारे पास एक नहीं अनेक विकल्प मौजूद हैं। हुड़दंगी-राजनैतिक संस्कृति क्या गर्व करने के लिए नाकाफी है? संसद से लेकर सड़क तक क्या हुड़दंग के खेल में हम किसी से पीछे हैं? भ्रष्टाचार में नित-निरंतर प्रगति क्या हमारे लिए राष्ट्रीय-गौरव का विषय नहीं हो सकता? राजनीति में भ्रष्टाचार की तरह वृद्धि को प्राप्त महंगाई पर क्या सिर ऊंचा नहीं कर सकते? ऐसी अनेकों उपलब्धि्यां राष्ट्रीय-कोष में जमा हैं, जिनपर गर्व किया जा सकता है। अत: राष्ट्रवासियों शर्म का त्याग करो। गिल साहब को भारतरत्‍न से सम्‍मानित करने की मांग करो!

Friday, March 14, 2008

युग-धर्म


सुना है,
सुनता आ रहा हूं।
आत्मा अमर है,
शरीर नश्वर है।
होते होंगे,
राम के त्रेता में,
कृष्ण के द्वापर में।
अब तो यह फ़लसफ़ा बेमानी सा लगता है।
दादी-नानी के मुंह से,
परियों की कहानी सा लगता है!
मैंने तो,
हर दिन, हर पल,
आत्मा को मरते देखा है।
---पढ़ा है,
पढ़ता आ रहा हूं।
आत्मा बदलती है, शरीर
पुराने कपड़ों की तरह।
बदलती होगी,
मैंने नहीं देखा!
हाँ, देखा है, बस!
आत्मा का आवरण
बदलते शरीरों को देखा है!
--यह त्रेता नहीं,
द्वापर नहीं,
कलियुग है!
आत्मघात ही,
इसका युग-धर्म है।
आत्मघात ही,
इसका युग-आदर्श है!
--- इसलिए ही,
मैं अंतरात्मा की आवाज पर
नित् आत्म-हत्या करता हूं।
तन-मन में
नित नई आत्मा भरता हूं।
फिर-फिर,
भ्रूण हत्या करता हूं।
क्योंकि इस युग में,
आत्मा नहीं,
शरीर अमर है।

संपर्क – 9717095225

Wednesday, March 12, 2008

अन्तरात्मा की आवाज

मुन्नालाल चांदी का नहीं, हाथ में सोने का झुंझुना लेकर पैदा हुआ था। काम के नाम पर बाप-दादा द्वारा छोड़ा गया झुंझुना बजाने के अलावा और कोई कार्य उसके पास नहीं था। खाली बैठे उसके मन में अध्यात्म-भाव जागृत हो गया। राजनीति और अध्यात्म दो ही अवस्था में सूझता है, एक जब गंवाने के लिए बहुत कुछ हो, दूसरे जब कुछ भी न हो अर्थात इल्ला-रुक्के की स्थिति हो। ऐसी दोनों ही स्थिति में व्यक्ति खाली पाया जाता है! दोनों ही प्रकार के ऐसे महानुभाव राजनीति और अध्यात्म में रोटी खोजते हैं! शेष रोटी में ही राजनीति और अध्यात्म के दर्शन कर लेते हैं!
दरअसल मुन्नालाल की जन्म कुंडली में शनि की महादशा का प्रकोप था। राहु और केतु भी कुछ तिरछे-तिरछे ही गमन कर रहे थे। अत: साधु-सन्तों की कुसंगति में पड़ गया। उसकी निगाह साधु-सन्तों के ज्ञान भण्डार पर थी और साधु-सन्तों की निगाह उसके धन-भंडार पर।
साधु-सन्तों ने उसे आत्मज्ञान प्रदान करना शुरू किया। उसे आत्मा की आवाज सुनने और यथार्थ स्वरूप की ओर गमन करने का अभ्यास कराया!'
अभ्यास करते-करते मुन्नालाल को आत्मा की आवाज सुनाई देने लगी और उसी के अनुरूप वह गमन करने लगा। आत्मा कहती, 'हे, मुन्नालाल! भगवद्ं भजन में ध्यान लगाओ, दान-पुण्य कर इस जीवन को सार्थक बनाओ और अपना परलोक भी सुधारो। साधुओं के लिए आश्रम बनवाओ।'
आत्मा के आदेश का पालन करते हुए उसने साधुओं के लिए एक भव्य आश्रम का निर्माण कराया। एक दिन आत्मा ने मुन्नालाल को पुन: आवाज दी, 'सन्त मुन्नालाल! माया-मोह का त्याग करो, माया बंधन है। यथार्थ ज्ञान प्राप्ति में बाधक है। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह ये सभी विकार इस माया की ही उत्पत्ति हैं। अत: विकारों का त्याग कर माया के बंधन से मुक्त होने के प्रयास करो। मनुष्य जब तक बंधन से मुक्त नहीं होगा, अपने यथार्थ स्वरूप को नहीं पहचान पाएगा।'
मुन्नालाल के आश्वासन के उपरान्त आत्मा ने आदेश दिया, 'ट्रस्ट का निर्माण कर अपनी समस्त संपत्ति आश्रम के नाम दान कर दो। इस तरह तुम बंधन मुक्त हो जाओगे और यथार्थ को प्राप्त हो जाओगे। यही मुक्ति का मार्ग है, यही मोक्ष मार्ग है।'
मुन्नालाल आत्मा द्वारा दिखलाए मार्ग का अनुसरण करता रहा और धीरे-धीरे यथार्थ स्वरूप की तरफ बढ़ता चला गया, अर्थात उसका जहाज डूबने लगा।
यथार्थ स्वरूप को देख वह दुखी था। पत्नी दयावती से उसका दुख देखा न गया और एक दिन वह बोली, 'हे, स्वामी! आप सत्यनारायण का व्रत करो। सत्यनारायण भगवान की कथा सुनने और व्रत करने मात्र से ही साधुराम नामक वैश्य का डूबता जहाज पुन: तैरने लगा था। लीलावती-कलावती भी सन्तान और धन्य-धान्य से परिपूर्ण हों गई थीं।'
पत्‍‌नी के सुझाव पर मुन्नालाल ने सत्यनारायण व्रत-कथा प्रारंभ कर दी। मगर वह भी उसके लिए कोढ़ में खाज के समान ही साबित हुई। वास्तव में पत्‍‌नी ने उसे केवल व्रत करने और कथा पाठ करने के लिए कहा था, सत्यनारायण को जीवन में उतारने के लिए नहीं।
उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी अत: 'सत्य' को जीवन में उतार बैठा। वह नहीं जानता था कि सत्य दूसरों को भयभीत करने के लिए होता है, अपनाने के लिए नहीं! नैतिकता जीवन में उतारने के लिए नहीं उपदेश देने के लिए होती है!
मुन्नालाल अब पूरी तरह अपने यथार्थ स्वरूप में आ चुका था। अर्थात वह पूरी तरह लुट-पिट चुका था। एक दिन उसकी भेंट बचपन के एक मित्र से हुई। पूरा हाल जानने के बाद मित्र ने उसे आचार्यश्री स्वामी अभेदानन्द की शरण में जाने की सलाह दी।
आचार्यश्री राजनीति में धर्म के समान राजनेताओं के धर्म गुरु थे। आचार्यश्री ने मुन्नालाल के रोग से संबद्ध सभी लक्षण ध्यान पूर्वक सुने और फिर बोले- तुम मूर्ख हो, वत्स! आत्मा की आवाज सुनोगे तो ऐसी ही गति प्राप्त होगी, क्योंकि आत्मा की आवाज मनुष्य को उसके यथार्थ स्वरूप से परिचित कराती है और जिसमें तुम विचरण कर रहे हो यही मनुष्य का यथार्थ स्वरूप है।
तुम्हें यदि पुन: अपनी पूर्व स्थिति प्राप्त करनी है तो आत्मा का हनन कर अन्तरात्मा की आवाज सुननी होगी। जिसके श्रवण मात्र से ही नेता रातों-रात सत्ता तक पहुंच जाता है। लाख विरोध के उपरान्त भी सर्वशक्तिमान बन जाता है। सत्ता का केंद्र बन जाता है। साधारण मनुष्य भी धन-धान्य से परिपूर्ण होकर मृत्युलोक में सर्वसुख उपभोग करता है।
मुन्नालाल के कल्याणार्थ आचार्यश्री आगे बोले- हे वत्स, अन्तरात्म-तत्व सभी प्राणियों में समान रूप से विद्यमान है, किन्तु विंद्वान उसे विकसित कर सफलता का मार्ग प्रशस्त कर लेते हैं। संबद्ध व्रत कर तुमने अन्तरात्मा को विकसित नहीं किया, केवल आत्मा की ही आवाज सुनते रहे। हे, वत्स! यदि अन्तरात्मा की आवाज सुनना चाहते हो तो आत्मा का हनन कर डालो! मान-अपमान से परे हो जाओ, धन-धान्य स्वत: ही तुम्हारे नजदीक आजाएंगे।'
आत्महनन-व्रत-विधि पर प्रकाश डालते हुए आचार्य श्री आगे बोले, 'वत्स! प्रत्येक मनुष्य में काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार नामक पांच विकार विद्यमान हैं। जब किसी एक भी विकार की प्रधानता हो जाती है तब 'आत्म-तत्व' की स्थिति मेघाच्छादित सूर्य के समान हो जाती है। तब आत्म-तत्व गौण व अन्तरात्म-तत्व प्रधान हो जाता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य को आत्म-तत्व की नहीं अंतरात्मा की आवाज सुनाई देने लगती है। अत: जाओ और आत्महनन-व्रत का पालन कर अंतरात्मा की आवाज सुनो, ईश्वर तुम्हारा कल्याण करेगा।'
आचार्यश्री द्वारा बताए व्रत का पालन कर मुन्नालाल आज पुन: पूर्व स्थिति को प्राप्त हो चुका है। डूबता उसका जहाज पुन: किनारे लग गया है। वह नेता भी हो गया है और सर्व-सुख संपन्न भी।
संपर्क – 9868113044

Sunday, March 9, 2008

आरक्षण की भीड़ में

बासी चेहरा उनका, आज कुछ ज्यादा ही चमक रहा था। बिलकुल घी चुपड़ी बासी रोटी जैसा। निगाह पड़ी और निगोड़ी भूखे स्वान की तरह अटक कर रह गई। लोक-लाज त्याग हम पर ऋतुसंहार हाबी हो गया। हम अपने को रोक नहीं पाए और श्रृंगार रस से ओतप्रोत ताऊ चिरंजीत की पैरोडी गुनगुने बैठ गए-
'प्रिय जला कर घास, घास के पास
बैठ कर कुछ गप-शप हो जाए।'
मगर ऋतुसंहार की अति संवेदनशील परिस्थितियों में श्रृंगार रस से ओतप्रोत इन पंक्तियों का श्रीमती जी पर तनिक भी असर दिखलाई नहीं दिया।
जवाब में उन्होंने गुनगुनाया, 'जरा ये मुन्ना सो जाए, जरा ये मुन्ना सो जाए'।
श्रीमती जी का अमानवीय यह रुख देख हम घबराए। पैंतरा बदला और लार टपकाते भूखे श्वान की तरह पूंछ हवा में लहराई, फिर बोले, ''क्या बात है, आज तो चेहरे से गजब का नूर टपक रहा है। सच मानो गौरवान्वित ऐसे दिव्य स्वरूप के दर्शन पहले कभी नहीं हुए। क्या किस फेयर एण्ड लवली का कमाल है?''
श्रीमती जी हमारी नीयत भांप गई और तपाक से बोली आज भूखे ही रहोगे।
हमने पालतू श्वान की पूंछ की तरह अपनी मूछें भी नीची की मगर फिर भी उनमें वामपंथी अकड़ बरकरार थी, समझौते की मेज तक आने के लिए तैयार न थी।
उनके हाव-भाव देख सूखे पत्ते की तरह खर-खराते हमने पूछा, भागवान! आम्रपाली से बोध भिक्षुणी बनने का कारण?
श्रीमती जी बोली- 'आज महिला दिवस है।'
काली बिल्ली की तरह आंखें चमकाती श्रीमती जी बोली- 'सुनो जी करवा चौथ पतियों का दिन होता है और उपवास बेचारी पत्नियां रखती हैं। महिला दिवस पर आज तुम उपवास रखोगे।'
श्रीमती जी हमारे हर दाव पर धोबी पाट मारे जा रही थी। हमें भी समझ आने लगा था कि श्रीमती जी आज हाथ आने वाली नहीं है। फिर भी इज्जात की खातिर हम पिटे पहलवान की तरह जमीन पर पड़े-पड़े ही हाथ पैर मारते रहे।
पिटा दांव फिर अजमाते हुए हम बोले- क्या महिला दिवस! आज क्या, पिछले तीस वर्ष से हमें तो हर दिवस महिला दिवस ही नजर आ रहा है। इस घर में आपके पांव पड़े नहीं थे कि कैलेंडर बदल गया था।
श्रीमती जी ने तोते की तरह निगाह बदली और कंधे से कंधा रगड़ते बोली-'महिलाएं अब हर क्षेत्र में पुरुष के कंधे से कंधा मिला कर समाज का छकड़ा प्रगति की राह पर खींच रही हैं। महिलाओं में अब जागृति आ गई है। अब शोषण नहीं चलेगा।'
अपना कंधा सहलाते हमें वह दिन याद आया जब अग्नि को हाजिर-नाजिर जान सात वचनों का कड़वा घूंट पीया था। सात गाली वचन दिलाने वाले पंडित को दी और दस अपने बाप को।
अपनी औकात के मुताबिक विनय भाव से हम बोले- हे, देवी! आज क्या, हमारे घर के लिए आपकी डोली ही जागृत अवस्था में ही उठी थी। डोली उठने के समय आपका विलाप और आपके करुण क्रंदन से उस दिन पड़ोसियों की नींद हराम होना इसकी स्पष्ट पुष्टि करता है।
तब सुषुप्त अवस्था में तो हम थे, आप नहीं। अत: हे, प्रिय! तुम्हारे आगमन से नींद तो हमारी हराम हुई है, तुम्हारी नहीं।
जागे हम है, तुम तो पहले ही से जागृत थी।
तुमने तब विलाप किया था, बस! हम तब से आज तक विलाप करते आ रहे है।
हमारा विलाप सुन श्रीमती जी का मुखमंडल तेज आंच में सिकी रोटी की तरह और भी लाल हो गया। लाल-लाल आंखें तरेर वे बोली, 'अब यह सब कुछ नहीं चलेगा। वे दिन गए जब खलील ़फाख्ता उड़ाया करता था। अब इस घर में मुझे भी तैंतीस प्रतिशत आरक्षण चाहिए।'
श्रीमती जी के आरक्षणवादी ऐसे विचार सुन हमारा ऋतुसंहार ऐसे गायब हुआ जैसे नये फार्मूला युक्त डिटरजेंट को देख कपड़ों से मैल।
धुले-धुले से हम सोचने लगे, अरे! ऋतुसंहार के चलते-चलते यह नरसंहार का एपीसोड! लेकिन श्रीमतीजी आज पूरे राजनैतिक जोश में थी। दार्शनिक लहजे का सफल प्रदर्शन करती श्रीमती जी ने फरमाया-'क्रांतिया नरसंहार से ही आती है, तुम्हारे ऋतुसंहार से नहीं।'
श्रीमती जी के शास्त्रीय ऐसे वचन सुन ऋतुसंहार का भूत भागा, दिमाग चकराया, जुबान सूखी और दिल घबराया। श्वान की जगह उसके अबोध शिशु की तरह मिमयाते हुए हम बोले- 'हे वंदनीय, हे स्मरणीय हे पठनीय! बाहर की दूषित राजनीति का अच्छे-भले घर में प्रवेश क्यों कराती हो। तुम तैंतीस परसेंट की बात करती हो, यह घर तो सेंट-पर-सेंट ही तुम्हारा है।
अपनी दशा तो बात-बात पर पूंछ हिलाने वाले किसी टोमी, रोमी से ज्यादा कभी नहीं रही। तुम्हारा ही तो एकाधिकार है इस घर- परिवार पर। अमर बेल की तरह बल खाती श्रीमती जी ने फिर दोहराया- 'चिकनी चुपड़ी इन बातों में अब हम नहीं आएंगे। तैंतीस परसेंट से कम पर बाज नहीं आएंगे।'
श्रीमती जी की जिद्द के कारण हम आंधी में घिरे गधे की तरह किंकर्तव्यविमूढ़ है।
बड़ा पुत्र मतभिन्नता के आधार पर आरक्षण मांग रहा है। छोटा पुत्र कहता है, मैं छोटा हूं, मेरा शोषण होता आया है। अत: मुझे भी आरक्षण चाहिए। पौत्र कहता है मैं अकेला हूं, अल्पसंख्यक हूं आरक्षण मुझे भी चाहिए।
आरक्षणवादियों की इस भीड़ में मैं अकेला पड़ गया हूं। मैं सोच रहा हूं-हरे-भरे इस घर को न जाने किस की नजर लग गई। घर का आंगन क्यों गृह युद्ध के मैदान में तब्दील होता जा रहा है? एक- एक कर अब और कितने पाले खिंचेंगे इस घर में?
संपर्क – 9868113044