गधे क्या आदिकाल से ही 'गधे' थे या इस विशेषण से उन्हें बाद में नवाजा गया? प्रश्न मौलिक भी है, गंभीर भी और शोध का विषय भी! इसलिए जब से यह प्रश्न मेरे जहन में अवतरित हुआ है, तभी से मेरा मन प्रसव-पीड़ा के समान शोध-पीड़ा से पीड़ित है। मेरे जैसे खोजी प्रवृति व्यक्ति के लिए यह स्वाभाविक भी है! अत: स्वभाव के अनुरूप प्रश्न का जवाब खोजने की प्रक्रिया शुरू हो गई। जवाब हासिल करने के लिए मैंने गधों के चरित्र व स्वभाव पर एकाधिकार रखने वाले महान साहित्यकार कृशन चंदर के प्रिय गधे को चुना।
कृशन चंदर के गधे को खोजना भी अपने आप में दुष्कर कार्य था। मगर 'जिन खोजे तिन पाइए' की तर्ज पर एक दिन सफलता हासिल कर ही ली। महान साहित्यकार कृशन चंदर के प्रिय गधे का मिलना मेरे लिये सुखद आश्चर्य था! क्योंकि मैंने उसे कहां-कहां नहीं खोजा, सत्ता के गलियारों में, आश्रमों के बाड़ों में, विश्वविद्यालयों के बरामदों में, मगर नहीं मिला। मिला भी तो निर्जन एक खंडहर में।
अक्ल के पुतले गधे की दयनीय ऐसी दशा देख सुखद आश्चर्य यकायक दुखद आश्चर्य में तब्दील हो गया। अश्रुपूरित नेत्रों के साथ हम ने दादा को प्रणाम किया और फिर थोड़ा सा फासला बना कर उनके चरणों में बैठ गये।
आसन ग्रहण करने के साथ ही हमारे मुंह से निकला, ''क्या हाल बना रखा है, कुछ लेते क्यों नहीं, दादा?''
लेटे-लेटे ही दादा ने थूथड़ी ऊपर उठाई और बोले, ''मेरे हाल पर न जाओ, यह बताओ हमसे से इतनी दूरी क्यों? लगता है, आदमी अभी सुधरा नहीं।''
दादा ने पिछली टांगे जमीन से रगड़ी और बोले, ''सुनो बरखुरदार! आदमी की तरह हम गधे लोग बिना वजह दुलत्ती नहीं झाड़ते। वजह हो तो भी हर वजह पर नहीं। दुलत्ती झाड़ते भी हैं, तो सिर्फ आदमी को डराने के लिए। ..तुम ही बताओ अब तक कितने आदमी घायल हुए हमारी दुलत्ती से? अरे भाई! हम आदमी नहीं हैं कि आदमी को घायल करने के लिए, आदमी की तरह दुलत्ती झाड़ते रहें।''
दादा की अंतर्यामी क्षमता देख हम गदगद हो गये। उनके प्रति हमारे मन में उत्पन्न स्नेहमयी ज्वार-भाटा की गति और तेज हो गई। अपने आप पर शर्मिदा हुए और शर्म के ही वाहन पर आरूढ़ हो कर उनके चरणों के करीब पहुंच गये!
''दादा! आदमी और आदमी का दुलत्ती से संबंध हमारी समझ नहीं आया, जरा विस्तार से बताओ।''..अनायास उठी यह लघु शंका हमने उनके सामने प्रस्तुत की।
''सीधी सी बात है, बरखुरदार! दुलत्ती झाड़ना हमारी नहीं, आदमी की फितरत है।अपने अवगुणों को अन्य जीवों पर आरोपित करना भी आदमी ही की फितरत है।''
दादा आगे बोले, ''खैर, छोड़ो ये सब बातें। यह बताओ कि गरीब खाने में कैसे आना हुआ।''
औपचारिकता का निर्वाह करते हुए हमने बस इतना ही कहा, ''यों हीं बस आपकी आत्मकथा पढ़ी थी, मिलने की इच्छा जागृत हो गई।''
दादा ने त्यौरी पर बल डालते हुए कहा, ''झूठ मत बोलों! आदमी और बिना प्रयोजन किसी के पास जाए, वह भी मेरे जैसे उपेक्षित जीव के पास, असंभव!'
कृशन चंदर द्वारा लिखित इन महाशय की आत्मकथा हमने एक बार नहीं, कई बार पढ़ी थी। बौद्धिक और आदमी के मन की बात भांप लेने की उनकी क्षमता से प्रभावित भी हुए थे। मगर भेंट हुई तो आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रह पाए।
आखिरकार लागलपेट की मानवीय प्रवृति पर विराम लगाते हुए लघु शंका निवारण के बाद दीर्घ शंका निवारण के लिए मूल सवाल उनके सामने पटक दिया, ''सावन के बादलों की तरह एक सवाल हमारे जहन में अर्से से गरज रहा है, दादा! कृपया उसका निवारण करें।''
अनुमति प्राप्त होते ही हमने सवाल दाग दिया, ''दादा, क्या आपकी प्रजाति के जीव प्रारंभ से ही 'गधे' हैं अथवा बाद में कहलाये?''
हमारा सवाल सुनते ही दादा की आंख भर आई और ओस की बूंद से दो आंसू आंख से निकल थुथने पर लुढ़क गये। फिर अपने को संभाला और बोले, ''वत्स निष्ठंा, हां! निष्ठंा, और वह भी आदमी के प्रति। निष्ठंा की पराकाष्ठा ने ही हम गधों के साथ यह विशेषण जोड़ दिया। उससे पहले हम केवल नाम के ही गधे थे।''
क्षणिक मौन के उपरांत दादा आगे बोले, ''हां, वत्स! हमारे एक पूर्वज की निष्ठंावान गलती का खामियाजा पूरी बिरादरी आज तक ढो रही है। मालिक के घर में चोर घुस जाने पर यदि हमारा पूर्वज भी कुत्ते की तरह ही सोता रहता, तो हम भी आज सम्मान की जिंदगी जीते होते!''
कहते-कहते दादा की आंख-नाक दोनों से जल-धारा ऐसे प्रवाहित होने लगी, मानों पितरों के सम्मान में तर्पण-संस्कार पूर्ण कर रहे हों! दादा ने लंबी सांस खींच कर जल-धारा के प्रवाह के सामने अवरोध खड़ा करने का प्रयास कर बोले, ''उसके कर्तव्य क्षेत्र में भी नहीं था, धोबी को जगाना! ..मगर निष्ठंा ने उसका मुंह बंद नहीं रहने दिया और धोबी को जगाने की मंशा से वह जोर-जोर चिल्लाने लगा। ''
दादा ने आह भरी और बोले, ''..निष्ठंा की सजा उसे मौत मिली और पूरी बिरादरी को सदा-सदा के लिए अपमान! उस निष्ठंा के ही कारण पूरी बिरादरी को बेवकूफ की उपाधी से नवाजा गया! उससे पहले गधे भी 'गधे' नहीं कह लाए जाते थे! हम भी सामान्य जीवों की ही श्रेणी में आते थे, वत्स!'
लगता था कि उम्र के साथ-साथ दादा कुछ ज्यादा ही भावुक हो गये हैं। अक्ल का परिचय तो आज भी उन्होंने कृशन चंदर के ही जमाने का सा दिया, मगर उस तरह की शैतानी अब उनमें देखने को नहीं मिली।
गमगीन माहौल को कुछ हल्का करने के उद्देश्य से हमने अगला सवाल किया, ''दादा! तुम्हारी बुद्धिमत्ता के किस्से तो आज भी चर्चित हैं। तुम्हारे जैसे जहीन जीव को तो देश का नेतृत्व संभालना चाहिए। तुम राजनीति में क्यों नहीं आ जाते? वैसे भी राजनीति में तुम्हारी बिरादरी वालों की संख्या कुछ कम नहीं है। कई तो सत्ता तक पहुंच गये हैं।''
सवाल सुन दादा इस बार मुस्करा दिए, ''गलत! एक भी तो नहीं!'' दादा की थूथड़ी पर अचानक ही चिंतन की रेखाएं उभर आई और फिर विचार की मुद्रा में बोले, ''अच्छा! ..चलो एक-आधे का नाम तो बताओ?''
दादा ने फिर लंबी सांस खींची और गंभीर हो कर कर बोले, ''बरखुरदार! निष्ठंावान, ईमानदार, मेहनती, संतोषी, निर्विकारी जीव का भला राजनीति में क्या काम? अगर किसी ने हिम्मत की भी तो ऐसे जीव को टिकने कहां दिया गया!''
दादा के जवाब पर अप्रत्यक्ष असहमति व्यक्त करते हुए हमने अगला सवाल किया, ''दादा! 'गधे पंजीरी खा रहे हैं!' ..फिर यह कहावत क्यों?''
सवाल सुन कर इस बार न तो दादा की आंख में आंसू थे और न ही थूथड़ी पर मुस्कान की लकीरें। इस बार उनकी आंखों में क्रोध की लाल-लाल लकीरें जरूर थी।
दादा ने थूथड़ी अगले पैरों से रगड़ते हुए बोले, ''गलत, बिलकुल गलत! गधे नहीं, कुत्ते दूध-मलाई खा रहे हैं। अरे, बरखुरदार! गरदन झुकाकर ईमानदारी से काम में लगे रहने वालों केभाग्य में पंजीरी कहां?''
''मगर कहावत तो यही है, दादा!'' हमने दादा को कुरेदने की मानवीय चेष्टा की।
''.. यह कहावत गधों के खिलाफ साजिश है और इसके पीछे उसी आदमी और कुत्ते का दिमाग है, जिनके कारण गधा बेवकूफी का पर्यायवाची बना। इसके पीछे भी मंशा वही, बेईमानी की पंजीरी कोई खाए और बदनाम कोई और!''
'मगर दादा कुत्ता क्यों? कुत्ता भी तो वफादार जीवों की श्रेणी में आता है। हमने अगला सवाल उछाला।'
दादा बोले, ' निष्ठंा व चापलूसी में अंतर करना सीखो, बरखुरदार। चापलूस कभी निष्ठंावान नहीं हो सकता। कुत्ता निष्ठंावान नहीं चापलूस है। जिसने भी टुकड़ा डाल दिया उसी के आगे दुम हिला दी, उसी के तलवे चाट लिये। हमने कभी किसी के तलवे नहीं चाटे, दुम नहीं हिलाई। दिन भर मेहनत की और रात को सूखी घास चबा कर ही संतोष कर लिया।'
'आदमियों की दुनियां में चापलूस ही पंजीरी खा रहे है और हमारे जैसे गधे, 'गधे' कह लाए जा रहे हैं। इतना भी होता तो भी गनीमत थी, खा वे रहे हैं, वाउचर हमारे जैसों के नाम से भरे जा रहे हैं। हमारी नहीं कुत्तों की संस्कृति अपनाई है, तुम लोगों ने। मिल गये न सभी सवालों के जवाब, बरखुरदार! अब जाओ, मुझे भी आराम करने दो।'
लघु व दीर्घ हमारी भी सभी शंकाओं का समाधान हो चुका था। मगर इस बार कृशन चंदर के उस प्रिय गधे के प्रति हमारी श्रद्धा की धारा इतने ज्यादा वेग से उमड़ी की वह सभी बांध तोड़ने के लिये आतुर थी। इस बार आदमियत के कारण नहीं अपितु पूर्ण समर्पण भाव के साथ दादा के चरणों में गिर पड़े और बोले दादा तुम्हारी सेवा अब हम करेंगे।
आंख बंद करते-करते दादा बोले, 'बेवकूफ न बन। आदमी है, आदमी ही रह। गधे का बच्चा मत बन। गधे का बच्चा बनेगा तो सुखी घास में ही गुजारा करना पड़ेगा।'
संपर्क – 9868113044
क्या भी साहब!
ReplyDeleteबाकी लोग तो बाप तक ही सीमित थे, आपने तो दादा ही बना लिया. खैर क्या करिएगा, पंजीरी और दूध मलाई दादा को नहीं मिलने वाली है. मान लीजिए. इसकी वजह यह है की जहाँ से इनकी सप्लाई होती है, वे लोग उनको अपना प्रतिस्पर्धी मानते हैं. ऐसे में क्या किया जा सकता है.
बाप बनाओ या दादा, पुण्यात्मा वंदनीय है!
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