Sunday, May 4, 2008

खाली दिमाग शैतान का घर

आदमी स्वभाव से ही शैतान का सगा भतीजा होता है। उस पर भी खाली दिमाग हो, तो शैतानी ही सूझना स्वाभाविक है। शैतानी भरी हैरानी की बात तो यह है कि ऐसे खाली दिमाग, शैतानी कर देर-सबेर खुद तो खुद को प्यारे हो जाते हैं, लेकिन दूसरों के लिए मुसीबत भरी सौगात छोड़ जाते हैं।
ऐसे ही एक महानुभाव थे, कोलंबस साहब। शायद घर से भी खाली थे और बेरोजगार भी। घर-बाहर से बेकार हो तो शैतानी के अलावा और सूझेगा भी क्या? बैठे-ठाले जनाब के दिमाग में फितूर उठा,चलो भारत की खोज करें। अब कोई उनसे पूछे, क्यों जनाब क्या भारत किसी मेले ठेले में अपनी मां से बिछुड़ गया था या किसी ने उसका अपहरण कर लिया था, जो चल पड़े उसे खोजने। खोजने चल भी दिए तो यह बताओ कि बेवकूफाना ऐसी जिम्मेदारी जनाब को सौंपी किसने थी? अरे, बे-फिजूल की कवायद!
भारत तो जनाब के हाथ नहीं लगा, मगर अंधे के हाथ बटेर की तरह अमेरिका नाम का एक देश उनके हाथ अवश्य लग गया। बस बन गए तीसमारखां! अब पहले तो कोई उनसे पूछे कि अमेरिका की खोज करने के लिए किस कमबख्त ने तुमसे गुहार की थी। अमेरिका की खोज यदि नहीं भी करते तो कौन 'दिल्ली का सूबा ढल जाता' या दुनिया कौन उसके बिना विकलांग होए जा रही थी। चलो, किसी न किसी तरह तुम्हारी नैया अमेरिका के किनारे लग भी गई थी तो किसने कहा था, शोर मचाने के लिए।
जनाब, तुम तो अमेरिका की खोज कर बन गए तीसमारखां, मगर दुनिया वालों की तो कर दी नींद हराम। हाथ में डंडा लिए अमेरिका अब जबरन अलंबरदार बना फिरता है। कोलंबस साहब! आप यदि न खोजते तो गुमनाम सा अमेरिका एक तरफ पड़ा रहता, दुनिया वालों की नींद हराम न होती।
ऐसे ही एक और सज्जन इतिहास में हुए हैं, उनका नाम है, वास्कोडिगामा। उनकी कारगुजारियों से भी लगता तो यही है कि वे भी थे खाली दिमाग ही। कोलंबस साहब भारत की खोज करने में नाकामयाब रहे, तो फितूरी दिमाग वास्कोडिगामा खोज बैठे भारत को।
सोने की चिड़िया अपने जंगल में अच्छी-खासी फुदकती फिरती थी, 'उरला हलवाई, परला पंसारी' किसी से लेना एक न देना दो। जनाब के फितूर ने दुनिया को भारत की राह दिखला दी। कर दी चिड़िया की नींद हराम। एक तो चिड़िया ऊपर से सोने की! एक-एक कर ताड़ने लगे उस बेचारी को। हो गई बदनियतों की बदनियती की शिकार।
पुर्तगाली, फ्रांसीसी, अंग्रेज न जाने कहां-कहां के उठाई-गिरे चिड़िमार दुनिया भर से आ धमके और लगे चिड़िया के पंख नोच ने। जैसे-तैसे उन्हें भगाया या चिड़िया की दयनीय हालत देख खुद भाग खड़े हुए, मगर जाते-जाते उसके दो टुकड़े कर गए। अब टुकड़ों को उनके चेले नोंच-नोंच खा रहे हैं।
ऐसे ही एक खाली दिमाग शैतान थे जनाब डार्विन। उनकी शैतानी हरकत से तो ऊपर वाला भी तौबा कर बैठा। जनाब डार्विन को जब कुछ नहीं सूझा, तो बोले इंसान बंदर की औलाद है। होंगे, तुम्हारे पुरखे होंगे बंदर! मगर तुम्हें यह अधिकार किसने दे दिया कि सृष्टिं के तमाम इंसानों को बंदर की औलाद बना डालो?
अब जनाब डार्विन साहब से कोई पूछे, क्यों जनाब खुदा की कौन सी बही तुम्हारे हाथ लग गई, जिसे बांच कर तुमने भूतवाणी कर डाली कि इंसान बंदर की औलाद है। अगर-चै खुदा की बही तुम्हारे हाथ लग भी गई और उसमें साफ-साफ लिखा भी था कि इंसान बंदर की औलाद है। मगर-चै एक बात बताओ इस रहस्य को यदि उजागर न करते, तो कौन तुम्हारी भैंस दूध देते-देते लतिया जाती? गोया इतना जरूर था कि रहस्य उजागर न करते तो इंसान में बंदरीय लूट-खसोट की प्रवृति जागृत न हुई होती।
बंदर बांट जैसे वंशानुगत लक्षण तो इंसान में हालांकि पहले ही से मौजूद थे, किंतु जब से इंसान को यह पता चला है कि वह बंदर की औलाद है, उसके चरित्र में बंदराना लक्षणों का इजाफा हो गया!
हां, ऐसा मेरा पक्का विश्वास है। व्यक्ति को जब अपनी वंशावली अथवा वंश-परंपरा का पता चलता है तो उसके अनुरूप वह अपने आपको हनुमान मान ही बैठता है। कभी-कभी अपने पुरखों का मान-सम्मान रखने के लिए भी उसे जबरन पहलवान बनना पड़ता ही है।
अब न कोलंबस साहब इस लोक में हैं, न वास्कोडिगामा और न ही डार्विन साहब। उन्हें होना चाहिए था, खाली दिमाग की शैतानी खोज का कुछ तो मजा उन्हें भी चखना चाहिए था। हम, तो बस यही कहेंगे- खुद, तो मर गए कमबख्त! हमारा खून पीने के लिए अपनी औलाद छोड़ गए!
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