Wednesday, March 12, 2008

अन्तरात्मा की आवाज

मुन्नालाल चांदी का नहीं, हाथ में सोने का झुंझुना लेकर पैदा हुआ था। काम के नाम पर बाप-दादा द्वारा छोड़ा गया झुंझुना बजाने के अलावा और कोई कार्य उसके पास नहीं था। खाली बैठे उसके मन में अध्यात्म-भाव जागृत हो गया। राजनीति और अध्यात्म दो ही अवस्था में सूझता है, एक जब गंवाने के लिए बहुत कुछ हो, दूसरे जब कुछ भी न हो अर्थात इल्ला-रुक्के की स्थिति हो। ऐसी दोनों ही स्थिति में व्यक्ति खाली पाया जाता है! दोनों ही प्रकार के ऐसे महानुभाव राजनीति और अध्यात्म में रोटी खोजते हैं! शेष रोटी में ही राजनीति और अध्यात्म के दर्शन कर लेते हैं!
दरअसल मुन्नालाल की जन्म कुंडली में शनि की महादशा का प्रकोप था। राहु और केतु भी कुछ तिरछे-तिरछे ही गमन कर रहे थे। अत: साधु-सन्तों की कुसंगति में पड़ गया। उसकी निगाह साधु-सन्तों के ज्ञान भण्डार पर थी और साधु-सन्तों की निगाह उसके धन-भंडार पर।
साधु-सन्तों ने उसे आत्मज्ञान प्रदान करना शुरू किया। उसे आत्मा की आवाज सुनने और यथार्थ स्वरूप की ओर गमन करने का अभ्यास कराया!'
अभ्यास करते-करते मुन्नालाल को आत्मा की आवाज सुनाई देने लगी और उसी के अनुरूप वह गमन करने लगा। आत्मा कहती, 'हे, मुन्नालाल! भगवद्ं भजन में ध्यान लगाओ, दान-पुण्य कर इस जीवन को सार्थक बनाओ और अपना परलोक भी सुधारो। साधुओं के लिए आश्रम बनवाओ।'
आत्मा के आदेश का पालन करते हुए उसने साधुओं के लिए एक भव्य आश्रम का निर्माण कराया। एक दिन आत्मा ने मुन्नालाल को पुन: आवाज दी, 'सन्त मुन्नालाल! माया-मोह का त्याग करो, माया बंधन है। यथार्थ ज्ञान प्राप्ति में बाधक है। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह ये सभी विकार इस माया की ही उत्पत्ति हैं। अत: विकारों का त्याग कर माया के बंधन से मुक्त होने के प्रयास करो। मनुष्य जब तक बंधन से मुक्त नहीं होगा, अपने यथार्थ स्वरूप को नहीं पहचान पाएगा।'
मुन्नालाल के आश्वासन के उपरान्त आत्मा ने आदेश दिया, 'ट्रस्ट का निर्माण कर अपनी समस्त संपत्ति आश्रम के नाम दान कर दो। इस तरह तुम बंधन मुक्त हो जाओगे और यथार्थ को प्राप्त हो जाओगे। यही मुक्ति का मार्ग है, यही मोक्ष मार्ग है।'
मुन्नालाल आत्मा द्वारा दिखलाए मार्ग का अनुसरण करता रहा और धीरे-धीरे यथार्थ स्वरूप की तरफ बढ़ता चला गया, अर्थात उसका जहाज डूबने लगा।
यथार्थ स्वरूप को देख वह दुखी था। पत्नी दयावती से उसका दुख देखा न गया और एक दिन वह बोली, 'हे, स्वामी! आप सत्यनारायण का व्रत करो। सत्यनारायण भगवान की कथा सुनने और व्रत करने मात्र से ही साधुराम नामक वैश्य का डूबता जहाज पुन: तैरने लगा था। लीलावती-कलावती भी सन्तान और धन्य-धान्य से परिपूर्ण हों गई थीं।'
पत्‍‌नी के सुझाव पर मुन्नालाल ने सत्यनारायण व्रत-कथा प्रारंभ कर दी। मगर वह भी उसके लिए कोढ़ में खाज के समान ही साबित हुई। वास्तव में पत्‍‌नी ने उसे केवल व्रत करने और कथा पाठ करने के लिए कहा था, सत्यनारायण को जीवन में उतारने के लिए नहीं।
उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी अत: 'सत्य' को जीवन में उतार बैठा। वह नहीं जानता था कि सत्य दूसरों को भयभीत करने के लिए होता है, अपनाने के लिए नहीं! नैतिकता जीवन में उतारने के लिए नहीं उपदेश देने के लिए होती है!
मुन्नालाल अब पूरी तरह अपने यथार्थ स्वरूप में आ चुका था। अर्थात वह पूरी तरह लुट-पिट चुका था। एक दिन उसकी भेंट बचपन के एक मित्र से हुई। पूरा हाल जानने के बाद मित्र ने उसे आचार्यश्री स्वामी अभेदानन्द की शरण में जाने की सलाह दी।
आचार्यश्री राजनीति में धर्म के समान राजनेताओं के धर्म गुरु थे। आचार्यश्री ने मुन्नालाल के रोग से संबद्ध सभी लक्षण ध्यान पूर्वक सुने और फिर बोले- तुम मूर्ख हो, वत्स! आत्मा की आवाज सुनोगे तो ऐसी ही गति प्राप्त होगी, क्योंकि आत्मा की आवाज मनुष्य को उसके यथार्थ स्वरूप से परिचित कराती है और जिसमें तुम विचरण कर रहे हो यही मनुष्य का यथार्थ स्वरूप है।
तुम्हें यदि पुन: अपनी पूर्व स्थिति प्राप्त करनी है तो आत्मा का हनन कर अन्तरात्मा की आवाज सुननी होगी। जिसके श्रवण मात्र से ही नेता रातों-रात सत्ता तक पहुंच जाता है। लाख विरोध के उपरान्त भी सर्वशक्तिमान बन जाता है। सत्ता का केंद्र बन जाता है। साधारण मनुष्य भी धन-धान्य से परिपूर्ण होकर मृत्युलोक में सर्वसुख उपभोग करता है।
मुन्नालाल के कल्याणार्थ आचार्यश्री आगे बोले- हे वत्स, अन्तरात्म-तत्व सभी प्राणियों में समान रूप से विद्यमान है, किन्तु विंद्वान उसे विकसित कर सफलता का मार्ग प्रशस्त कर लेते हैं। संबद्ध व्रत कर तुमने अन्तरात्मा को विकसित नहीं किया, केवल आत्मा की ही आवाज सुनते रहे। हे, वत्स! यदि अन्तरात्मा की आवाज सुनना चाहते हो तो आत्मा का हनन कर डालो! मान-अपमान से परे हो जाओ, धन-धान्य स्वत: ही तुम्हारे नजदीक आजाएंगे।'
आत्महनन-व्रत-विधि पर प्रकाश डालते हुए आचार्य श्री आगे बोले, 'वत्स! प्रत्येक मनुष्य में काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार नामक पांच विकार विद्यमान हैं। जब किसी एक भी विकार की प्रधानता हो जाती है तब 'आत्म-तत्व' की स्थिति मेघाच्छादित सूर्य के समान हो जाती है। तब आत्म-तत्व गौण व अन्तरात्म-तत्व प्रधान हो जाता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य को आत्म-तत्व की नहीं अंतरात्मा की आवाज सुनाई देने लगती है। अत: जाओ और आत्महनन-व्रत का पालन कर अंतरात्मा की आवाज सुनो, ईश्वर तुम्हारा कल्याण करेगा।'
आचार्यश्री द्वारा बताए व्रत का पालन कर मुन्नालाल आज पुन: पूर्व स्थिति को प्राप्त हो चुका है। डूबता उसका जहाज पुन: किनारे लग गया है। वह नेता भी हो गया है और सर्व-सुख संपन्न भी।
संपर्क – 9868113044