Monday, December 31, 2007

राजनीति में मूंछों का अल्पसंख्यक होना

ईमानदारी की तरह राजनीति में मूंछों का भी महत्व घटता जा रहा है। बालीवुड से राजनीति की तरफ पलायन करने वाले अभि-नेता भी मूंछ विहीन हैं।
मुझे नहीं मालूम की ईमानदारी व मूंछों के बीच कोई रिश्ता है या नहीं, मगर दोनों का साथ-साथ महत्वहीन होना पारस्परिक रिश्तों की तरफ इशारा अवश्य करता है। हमारी चिंता व चिंतन का विषय यहां ईमानदारी नहीं केवल मूंछें हैं, क्योंकि संवेदनशील दो मसले एक साथ उठाना हमारी कूवत से बाहर की बात है। आप यदि पसंद करे और आपके स्वभाव के अनुकूल हो तो मूंछों पर किए गए हमारे शोध से प्राप्त निष्कर्षो को आप ईमानदारी की दुर्गति पर भी लागू कर सकते हैं। ऐसा करने के लिए हम आपको मौलिक अधिकार प्रदान करते हैं।
ऐसा नहीं है कि राजनीति से मूंछें डॉयनासोर अथवा गिद्ध गति को प्राप्त हो चुकी हैं। थोड़ी-बहुत मूंछें हैं, मगर उनमें से अधिकांश को मूंछें नहीं अपितु मूंछों के अवशेष ही कहना ज्यादा उचित होगा। ऐसी मूंछों की स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर नहीं है। अत: उन्हें दलित मूंछें भी कहा जा सकता है।
भेड़ों के झुंड में ऊंट की तरह यदाकदा कुछ उच्च वर्गीय मूंछें भी दलित मूंछों की राजनीति करती दिखलाई पड़ जाती हैं, मगर उनका दायरा भी सीमित ही है और ताव नामक वंशानुगत गुण का असर उन पर कभी-कभार ही दिखलाई पड़ता है। कुल मिलाकर यह कहना अनुचित न होगा कि राजनीति में मूंछें अल्पसंख्यक होती जा रही हैं।
ऐसा क्यों हो रहा है, मूंछें अल्पसंख्यक क्यों होती जा रहीं हैं? ठहरे पानी में जलकुंभी की तरह यह प्रश्न एक अर्से से हमारी बुद्धि की पोखर पर काबिज है। उसे हम जितना हल करने का प्रयास करते हैं, जलकुंभी में गधे की तरह उसमें हम उतना ही फंसते जा रहे हैं। प्रश्न हल होने का नाम नहीं ले रहा है और हम हल करने की जिद्द नहीं छोड़ पा रहे हैं, अत: मूंछों से जुड़ा यह प्रश्न हमारे लिए 'मूंछ का सवाल' बन गया है।
गहन मंथन और विभिन्न किस्म के नेताओं से इस्क्लूसिव बात करने के उपरांत हम कुछ निष्कर्ष हमारे हाथ लगे, जिनका खुलासा आपके समक्ष प्रस्तुत है-
1. राजनीति अब मूंछों की लड़ाई नहीं रह गई है। स्थायित्व शब्द राजनीति में अर्थहीन हो गया है, इसलिए स्थायी दुश्मनी और दोस्ती का राजनीति में कोई अर्थ नहीं है, फिर चेहरे पर क्यों फिजूल ही में खर-पतवार उगाए जाएं?'
2. हालिया जमाने में हाल मूछंदर नेता का प्रगति कर पाना मुश्किल काम है। खुदा-न-खस्ता प्रगति कर भी ले तो बेचारा मलाई कैसे चाटेगा, क्योंकि मलाई चाटने के वक्त मूंछें आड़े आ जाती हैं। मूंछों के बावजूद मलाई चाटने का दु:साहस किया भी तो आधी मलाई मूंछों पर चिपक कर रह जाएगी। मलाई भी पूरी हाथ नहीं लगेगी और जग हंसाई मुफ्त में हो जाएगी। जिसे पता नहीं, उसे भी पता चल जाएगा कि नेता मलाई चाट है।
3. मलाई चाटना नेता की मजबूरी है। मलाई न चाटे तो आकाओं को रोज-रोज मक्खन लगाने के लिए इतना मक्खन कहां से लाएगा? मक्खन लगाने और मलाई चाटे बिना राजनीति नहीं चला करती। अत: राजनीति में अस्तित्व बरकरार रखने के लिए मूंछें नहीं, मलाई आवश्यक है। देवता भी मलाई प्रेमी होते थे अत: मूंछ नहीं रखते थे। आधुनिक देवता भी उसी देवत्व परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं।
4. राजनीति में कदम जमाने और जमे कदम उखाड़ने के लिए किसी की नाक का बाल बनना भी परम आवश्यक है और मूंछ इस परम आवश्यकता की पूर्ति में बाधक हैं। फिर मूंछ का भार फिजूल में ही वहन क्यों किया जाए?
5. राजनीति में मूंछों के अल्पसंख्यक होने का एक मात्र कारण पूंछ का विकसित होना है, क्योंकि राजनीति में पूंछ वालों की ही पूछ है। अत: मूंछें साफ होती गई और पूंछ लंबी होती चली गई।
इस प्रकार राजनीति में मूंछ अल्पसंख्यक होती जा रही है। आप चाहें तो राजनीति में ईमानदारी विलुप्त होने के पीछे भी मेरे इन्हीं शोध निष्कर्ष को लागू कर सकते हैं।
संपर्क : 9868113044