ग़ज़ल
ये जमीं आसमां, हाँ मिले हैं वहाँ।
वहम ही के सही, सिलसिले हैं वहाँ।।
है तपन से भरी, वो घनी वादियाँ।
आग ओढ़े हुए, का़फिले हैं वहाँ।।
ये नयन क्यों भरे, बादलों की तरह।
बे-सबब तो नहीं, कुछ गिले हैं वहाँ।।
ये हवा क्या चली, खिल गई हर कली।
लब किसी के मगर, क्यों सिले हैं वहाँ।।
हमको तन्हाइयाँ, अब तो डसने लगीं।
और 'अंबर' नए, गुल खिले हैं वहाँ।।
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