Monday, April 28, 2008

बापू कैद में (व्यंग्य नाटक) -छह


गतांक से आगे...
दृश्य तीन
(फ्लैश लाइट मंच के मध्य में फोकस और आगे की कथा सुनाने के लिए छाया प्रकट)
छाया :
गत् दिवस के दृश्य पर बापू को यकीन नहीं हुआ। समाधिस्थ हो वे विचार करने लगे, 'यह कैसे हो सकता है कि एक भी राष्ट्र भक्त शेष न हो। एक भी निष्ठंावान भामाशाह इस देश में शेष न बचा हो। चुनाव के टिकटों की बिक्री? ...आदर्श और सिद्धांत कोरी लफ्फाजी तो नहीं कि मौसम की तरह हर तीसरे माह बदलते रहें। ...संस्कृतियां एक-दो साल में नहीं बदला करती। युग-युगांतर में जाकर कहीं थोड़ा-बहुत परिवर्तन आता है, संस्कृतियों में। ...अवश्य कहीं दृष्टिं दोष रहा होगा।' (एक क्षण के मौन के बाद) ...बापू ने कल लोकतंत्र का जुलूस मेरी आंखों से देखा था। आज अपनी आंखों से देखने का निश्चय किया और आंख-कान और मुंह से हाथ हटाए। एक कागज पर आत्म-परिचय लिखा और लाठी टेकते-टेकते अकेला ही जा लगे पार्टी दफ्तर की टिकट खिड़की की लाइन में।
(मंच पर पुन: पार्टी कार्यालय का दृश्य। परिसर में ही स्थित एक कमरे में आत्म-परिचय समिति का कार्यालय। कार्यालय की खिड़की के सामने आत्म-परिचय जमा कराने वालों की लाइन। उसी लाइन में बापू भी लग जाते हैं। आस-पास के लोगों की नजरें बापू की तरफ उठती हैं।)
पहला (आश्चर्य से) :
अबे देख! ..यह कौन?
दूसरा (गौर से देखते हुए) : हूँ, यह तो कोई गांधी का सगा भतीजा सा लगै!
पहला (पुन: आश्चर्य से) : अबे, भतीजा ना! असली गांधी सा ही लगै। गौर से तो देख।
दूसरा (उपेक्षा भाव से) : देख लिया, गौर से ही देखा है। जो भी है, चौखटा है, नुमाइशी!
तीसरा (हँसते हुए) : क्यूं परेशान हो भाई, चुनाव का दौर है, नए-नए जीव प्रकट होने ही लगते हैं।
(अपना-अपना आत्म-परिचय जमा कर हँसते हुए वहाँ से बिदा हो जाते हैं। बारी बापू की आती है और वे भी अपना आत्म-परिचय क्लर्क को थमा देते हैं)
क्लर्क (ठहाका लगाते हुए) :
मिल गया-मिल गया, मिल गया भइया मिल गया...!
मेहता (होठों पर मुसकराहट लाते हुए) : अरे, बड़े खुश हो रहे हो भइया, कौन मिल गया। हमे भी तो बताओ, हम भी खुश हो ले!
क्लर्क (बापू के आत्म-परिचय को हवा में लहराते हुए) : बस पूछो ना, मेहता जी। ...बस मिल गया!
मेहता (उत्सुकता का प्रदर्शन करते हुए) : अरे, बताओ ना हम से क्या पर्दा! ...किसी धरती पकड़ का बॉयोडेटा हाथ लग गया क्या?
क्लर्क (ठहाके के साथ बापू का आत्म-परिचय मेहता की तरफ बढ़ाते हुए) : यह लो जनाब, तुम भी पढ़ लो इस बाजीगर की आत्मकथा!
(मेहता साहब आत्म-परिचय पढ़ कर मुसकराते हैं। दुबारा पढ़ते हैं। उसके बाद वह भी जोर का ठहाका लगाते हैं। उनके साथ वाली कुर्सी पर विराजमान चौधरी साहब उन्हें टोकते हैं।)
चौधरी (कृत्रिम हंसी हंसते हुए) :
...के हुआ, मेहत्ता साब! हम भी तो देख्खें। तुम दोन्नों ही अकेले-अकेले मज्जे लेत्ते रओगे। भइया हमने भी सरीक करलो या तमास्से में!
मेहता (हंसते हुए) : ...लो तुसी भी देख लो, जनाब। पार्टी धन्य हो गई गांधीजी ने टिकट के लिए अप्लाई किया है!
(बापू का आत्म-परिचय मेहता चौधरी के हाथ में थमा देता है। चौधरी भी पढ़ कर हंसने लगता है।)
चौधरी (मुसकराते हुए) :
भई, बायडाट्टा तो गांधी के सगे भतिज्जो का सा लाग्गै। या-ए तो टिकस देवे की सिफारिश करनी ही पड़ेग्गी!
(चौधरी व मेहता का वार्तालाप सुन कर शेष दोनों पदाधिकारी भी अपनी-अपनी कुर्सियों पर बैठे-बैठे ही बापू के आत्म-परिचय की ओर ताकने लगते हैं। उनमें से एक अन्य पाण्डे जी उसे चौधरी के हाथ से ले लेते हैं।)
चौधरी (व्यंग्य में) :
भई पाण्डे जी, अर जरा देख का बता गांध्धी-असली के नकली?
पाण्डे (मुसकराते हुए) : बायडाट्टा तो असली सा लग रहा है, बुड्डें के पता नहीं असली है या नकली?
चौधरी : अच्छा चल जे बता, जदाद कित्ती लिक्खी?
पाण्डे (व्यंग्य भाव से) : हां, कोई अरब-दो-अरब की तो होगी ही!
चौधरी (उत्सुकता के साथ) : भई बता, सच्ची-सच्ची बता। इत्ती है तो फिर गाँध्धी कती ना!
पाण्डे (चश्मा साफ करते हुए) : ढाई गज की एक धोती, एक लंगोटी, एक लाठी..!
मेहता (उत्सुकता के साथ) : मखौल ना कर भाई, सही-सही बता।
पाण्डे (आंखों पर चश्मा चढ़ाते हुए) : सही-सही ही बता रहा हूं। ...अरेऽऽ, एक बकरी, एक चरखा भी।
(सभी जोर का ठहाका लगाते हैं)
चौधरी (ठहके को मुसकराहट में तब्दील करते हुए) :
बायडाटा तो कमबख्त ने फुरसत में लिख्खा दिख्खे। ...फारजरी के मुकदमें भी जरूर होंग्गे, जालिम पै। ...पाण्डे जी, जरा देख्खो त्तो सई, मुकदम्में कित्ते लिक्खे सै?
पाण्डे (निगाह आत्म-परिचय पर टिकाते हुए) : मुकदमे हैं, तो कई, पर चार सौ बीसी का तो कोई नहीं।
चौधरी (पूर्व भाव से) : गाँध्धी है तो फिर, मुकद्दमें अंग्रेजन के जम्माने के होंगे!
पाण्डे (हँसते हुए) : ठीक पहचाना, आजाद्दी से पहले के ही हैं!
उपाध्याय (उबासी लेते हुए) : ...पता क्या लिखा है?
पाण्डे (व्यंग्य करते हुए) : लो पता भी सुनों भाई (धीरे-धीरे) रिंग रोड़ ...राजघाट ...दिल्ली।
चौधरी (क्लर्क की ओर मुखातिब होते हुए) : ...पर जे भी देख्खो पण्डे, राजघाट पै तो धोबीघाट भी सै!
उपाध्याय (चाँद फेरते हाथ फेरते हुए) : धोबीघाट हो या निगमबोध घाट, क्या फर्क पड़ता है। (चपरासी की ओर संकेत करते हुए) ...जरा अंदर ले आ गांधी के भतीजे को,थोड़ा मजा तो ले-लें।
(चपरासी के संकेत पर बापू ने प्रवेश किया। बापू को देख कर एक बार फिर सभी ने जोरदार ठहाका लगाया)
चौधरी (कृत्रिम गंभीरता के साथ) : अच्छा टिकस चावै है, बाबा! चुनाव लड़वे की इछ्छा है। पर एक बात तै बता तेरे पल्ले तै एक काणी कोड्डी बी ना।
बापू (विनीत भाव से) : है, सरकार है! बकरी है, चरखा है...।
चौधरी (मध्य हीमें व्यंग्य भाव से) : ...पर बकरी अर चरखा बेच कै तै चुनाव ना लड़ा जावै।
बापू (पूर्व भाव से) : चुनाव के लिए पैसे की क्या जरूरत सरकार?
पाण्डे (चेहरे पर गंभीर भाव लाते हुए) : मुफ्त में वोट ना मिले हैं, श्रीमान!
चौधरी (पूर्व भाव से) : अच्छा चल जे बता तेरे छेत्तर में तेरी बिरादरी के कित्ते बोट सै?
बापू (आश्चर्य भाव से) : पैसे... बिरादरी... !
चौधरी (उपेक्षा भाव से) : हाँ, बिरादरी! ...जलदी बता टैम खराब ना कर!
बापू (भाव छिपाते हुए) : ...एक भी नहीं, श्रीमान।
चौधरी (पूर्व भाव से) : ...पैसा तेरे पल्ले ना, बिरादरी की बोट भी ना! ...अर चला चुनाव लड़वे!
बापू (चेहरे पर विश्वास के भाव लाते हुए) : ...जनाब, इरादा तो है, टिकट देकर तो देखो।
चौधरी (उपेक्षा भाव से) : ...मुफ्त में तो डीटीसी का टिकट भी कोई ना दे। या तो परलियामेंट का टिक्स सै। ...अच्छा चल को ना! ...नाम तै बता।
बापु (सहज भाव से) : ...गांधी।
पाण्डे (व्यंग्य भाव से) : अच्छा, गांधी! (विचार की मुद्रा में रुक-रुक कर) .. .कौन सा गांधी, सोनिया गांधी... प्रियंका गांधी ...राहुल गांधी ...वढेरा गांधी ...इनमें से तो कोई ना! (क्षणभर रुकने के बाद) ..हम तो इनके अलावा और किसी गांधी को नहीं जानते!
(पाण्डे के लहजे पर एक बार फिर सभी लोग ठहाका लगाते हैं)
उपाध्याय (हँसते हुए) :
गांधी फिल्म का गांधी रिचर्ड एटनबरो! (ठहाका)
पाण्डे (पूर्व भाव से) :
उचित दादा! एटनबरो की डुप्लीकेट कापी है, पर सत्यापित नहीं कराई!
चौधरी (हाँसते हुए) : वा काम उपाधयाय जी कर देवेंगे। (रुकने के बाद) अच्छा फिर तै बताईयो अपना नाम, वल्द की साथ!
बापू (पुन: विनीत भाव से) : मोहनदास वल्द करम चंद गांधी ...मोहनदास करमचंद गांधी।
चौधरी (उपेक्षा भाव से) : नाम तै कोई चौख्खा सा रख लेत्ता। अच्छा, चौख्ख सा कोई नाम रख कै फिर आईओ...।
उपाध्याय (गरदन को झटका देते हुए, गंभीर भाव से) : क्या बतायाऽऽऽ ...सच में ! मोहनदास करमचंद गांधी! सच्ची-सच्ची बता, बाबा! ...मोहनदास करमचंद गांधी ही है ना!
(उपाध्याय को गंभीर होता देख शेष लोग भी गंभीर हो कर उपाध्याय के चेहरे की ओर देखने लगते हैं)
बापू (सहज भाव से) :
हां, यही सत्य है, श्रीमान।
उपाध्याय (मन ही मन विचार करते हुए) : ...बकरी... लाठी ...चरखा ...राजघाट ...अंग्रेजों के जमाने के मुकदमे ...सकल-सूरत भी गांधी जैसी ही, नाम भी वही। ...अबे, कहीं गांधी ही तो नहीं! ...बैठे-बिठाए झंझट क्यों मौल लिया जाए। (पार्टी महासचिव राय साहब को फोन मिला कर, गंभीर मुद्रा में) हैलो, सर! ...सर, गजब हो गया..!

राय साहब (लापरवाही से) : ...हाँ ऽऽऽ, क्या आफत आ गई!
उपाध्याय (पूर्व भाव से) : ...सर! ...गांधी जी ने टिकट के लिए अप्लाई किया है!
राय साहब (पूर्व भाव से) : ...कौन गांधी?
उपाध्याय (अपनी बात पर बल देते हुए) : सर, महात्मा गांधी! ...मोहनदास करमचंद गांधी, सर!
राय साहब (क्रोध में) : ...क्या बकवास है, उपाध्याय! ...मजाक का समय नहीं है।
उपाध्याय (पूर्व भाव से) : ...सर मजाक नहीं, सर! बॉयोडेटा भी उन्हीं का है! ...शक्ल-ओ-सूरत भी वही। ...सर मेरा विश्वास करो, गांधी ही हैं।

राय साहब (गंभीर होते हुए) : ...कन्फर्म!
उपाध्याय (पूर्व भाव से) : जी, सर!
राय साहब (पूर्व भाव से) : ठीक है, फिर तो मामला गंभीर है! ...अच्छा, फौरन मेरे चैंबर में आकर बात करो।
उपाध्याय (आत्म-परिचय राय साहब की ओर बढ़ाते हुए) : ...सर यह देखिए, बॉयोडॉटा
राय साहब (आत्म-परिचय पढ़ कर, मुसकराहट के साथ) : हूँ ऽऽऽ! बॉयोडॉटा तो बड़ी खूबसूरती से तैयार किया है।
उपाध्याय (गंभीर भाव से) : ...जी सर!
राय साहब (संशय व्यक्त करते हुए) : उपाध्याय, चुनाव का मौसम है। ...कोई बेरूपिया ना हो!
उपाध्याय (पूर्व भाव से) : नहीं, सर! ...मुझे तो गांधी जी से ही लगते हैं!
राय साहब (दीवार पर टंगे बापू के चित्र को निहारते हुए) : अच्छी तरह पहचान लिया है, ना! ...गांधीजी ही हैं, ना!
उपाध्याय (बापू के चित्र पर आँख टिकाते हुए) : जी, हाँ !
राय साहब (गंभीर भाव से) : ...अच्छा ऽऽऽ! ...तो वे हैं, कहाँ?
उपाध्याय (संतोष के भाव के साथ) : सर! मेरे कमरे में!
राय साहब (पूर्व भाव से) : ठीक है, सम्मान के साथ बैठाओ। ...देखो! ...कोई कष्ट नहीं होना चाहिए।
उपाध्याय (पूर्व भाव से) : ...ठीक, सर!
राय साहब (गंभीर भाव से) : ...और देखो उपाध्याय, ...अगर ऐसा है तो मामला गंभीर है! ...अच्छाऽऽ! ...कोई बात नहीं मेरे फोन का इंतजार करना। ...और सुनो, बापू को जूस-वूस पिला देना, अच्छाऽऽ!
(उपाध्याय वापिस अपने कमरे में)
उपाध्याय (विनय भाव से) :
अरे, बाबा! आप अभी तक खड़े ही हैं! ...आइए-आइए (बराबर वाले कमरे में ले जाकर सोफे की ओर संकेत कर)... यहां, आराम से बैठिए।
बापू (सहज भाव से) : मगर... !
उपाध्याय (पूर्व भाव से) : ...आपका केस महासचिव जी के पास पुटअप कर दिया है। फैसला अभी आता ही होगा। (कुछ रुक कर) ...तब तक आप आराम करो।
(उपाध्याय जूस लाने के लिए चपरासी को आदेश देता है और खुद राय साहब के फोन के इंतजार में कार्यालय- कक्ष में टहलने लगते हैं)
(राय साहब पार्टी अध्यक्ष को फोन करते हैं)
राय साहब (व्याकुल भाव से) :
हैलो, सर! ...मैं देवदत्त राय, सर!
अध्यक्ष (सहज भाव से) : हाँ-हाँ, बोलो राय साहब!
राय साहब (पूर्व भाव से) : सर, गांधीजी ने टिकट के लिए अप्लाई किया है, सर!
अध्यक्ष (उपेक्षा भाव से) : कौन, गांधी? ..किस की बात कर रहे हो, राय साहब?
राय साहब (शब्दों को खींच कर) : सर! ...वही महात्मा गांधी ...सर बापू!
अध्यक्ष (हँसते हुए) : राय साहब! खुश हो रहे हो या रो रहे हो!
राय साहब (चिंता भाव से) : सर खुशी की बात नहीं है और रो भी नहीं रहा हूं! ...बस चिंतित हूं!
अध्यक्ष (गंभीर भाव से) : ...तुम कैसे कह सकते हो कि वह शख्स गांधी ही है, क्या...?
राय साहब (बात पर बल देते हुए) : सर, खुद मैंने बॉयोडेटा पढ़ा है, उपाध्याय लेकर आया था।
अध्यक्ष (पूर्व भाव से) : बॉयोडॉटा तो नकली भी हो सकता है! क्या तुमने...?
राय साहब (सहज भाव से) : सर मैंने तो नहीं, मगर उपाध्याय ने देखा है। (विश्वास के साथ) वे बापू ही हैं।
अध्यक्ष (कुछ सोचते हुए) : मगर बापू को यदि टिकट...! ( रुक कर) ...वे मुझ से सीधे संपर्क करते!
राय साहब (रहस्य भाव से) : ...मगर सर, इसमें विपक्ष की भी तो कोई साजिश हो सकती है!
अध्यक्ष (चिंता व आश्चर्य भाव से) : विपक्ष की साजिश! ...कैसी?
राय साहब (पूर्व भाव से) : विपक्ष ने ही उन्हें उकसाया हो और पार्टी को बदनाम करने के लिए टिकट की लाइन में लगने की सलाह दे दी हो!
अध्यक्ष (गंभीर होते हुए) : हूँ ऽऽऽ! , मामला गंभीर लगता है। (कुछ रुकने के बाद) ...अच्छा, तुम कन्फर्म हो ना?
राय साहब (विश्वास के साथ) : जी सर!
अध्यक्ष (पूर्व भाव से) : ...तो ऐसा करो, ...मैं कार्यालय पहुंचता हूँ ...कार्यकारणी की आपात बैठक कॉल करलो।
(पार्टी अध्यक्ष सहित कार्यसमिति के सभी सदस्य कार्यालय के मुख्य सभागार में एकत्रित होते हैं। सभागार के फर्श पर गद्दों के ऊपर सफेद रंग की चादर बिछी है और दीवार के साथ-साथ गोल तकिए रखे हुए हैं। बीच में एक डेस्क रखी है। डेस्क के पास पार्टी अध्यक्ष बैठते हैं और उनके दाएं-बाएं कार्यसमिति के अन्य सदस्य बैठ जाते हैं। सभागार की दीवार पर राष्ट्रीय नेताओं के साथ बापू का चित्र टंगा है)
अध्यक्ष (गंभीर मुद्रा में) :
एक गंभीर मैटर पर डिसकस करने के लिए आप लोगों को कष्ट दिया है!
शेष सभी (जिज्ञासा भाव के साथ ) : क्या ऽऽऽ..!
अध्यक्ष (पूर्व भाव से, निगाह बापू के चित्र की तरफ उठाते हुए) : गांधीजी ने टिकट के लिए अप्लाई किया है!
शेष सभी (आश्चर्य के साथ) : जी, क्याऽऽऽ...!
अध्यक्ष (पूर्व भाव से) : हाँऽऽऽ...!
अग्रवाल साहब (आश्चर्य और हर्ष के साथ) : सच में गांधीजी ही हैं, तो चुनाव में रंग आजाएगा। ...घर बैठ-बिठाए चुनाव जीता-जिताया समझो।
सिंह साहब (मुंह पिचकाते हुए) : रंग या रंग में भंग...।
अग्रवाल साहब (मध्य ही में) : ...क्या कह रहे हो सिंह साहब! रंग में भंग नहीं, भंग में रंग कहो। ...बापू को चुनाव मैदान में उतार दिया तो लोगों के सिर चढ़ कर बोलेगा, उनका जादू!
ओझा साहब (उपेक्षा भाव से) : आउट आफ डेट! ...अब गांधी का क्रेज कहां रहा है, लोगों में।
सिंह साहब (व्यंग्य भाव से) : हाँ, ठीक कहते हैं, ओझ्झा साहब! ...गांधी-गरदी का जमाना खत्म हुआ अगरवाल साहब...!
अग्रवाल (उत्तेजित होते हुए) : ...फिर किस गरदी का जमाना है, जनाब? ...नेता गरदी चलानी है तो गांधी...!
ओझा साहब (मुसकराते हुए, मध्य ही में) : ...हीरो गरदी! (थोड़ा रुक कर अपनी बात दोहराते हुए) ...हीरो गरदी का वक्त है, हीरो गरदी का!
अग्रवाल साहब (पूर्व भाव से) : ...मैं सहमत नहीं हूँ! ...जनता में आज भी बापू के प्रति क्रेज है और रहेगा...।
ओझा साहब (व्यंग्य करते हुए) : ...अक्ल की बात पर पहले भी कभी सहमत हुए हो? ....जो आज होगे। ...अक्ल की बातों से तो लगता है, आपको परहेज है, अग्रवाल साहब!
(ओझा साहब का कटाक्ष सुन कर अग्रवाल साहब तिलमिला कर रह जाते हैं। उनकी स्थिति देख अध्यक्ष हस्तक्षेप करते हैं)
अध्यक्ष (नसीहत देने के लहजे में) :
...देखो! प्रॉबलम गंभीर है, एक-दूसरे पर कटाक्ष का समय नहीं। ...आपसी मतभेद भुलाकर प्रॉबलम साल्व करना ही उचित होगा।
ओझा साहब (गंभीर मुद्रा में) : ...गांधी को फटे हाल देखेंगे तो विपक्ष को बैठे-बिठाए एक मुद्दा जरूर मिल जाएगा।
अध्यक्ष (जिज्ञासा भाव से) : ...वह कैसे?
ओझा साहब (नाक-भौं चढ़ाते हुए) : ...विपक्ष सवाल करेगा, ''जिनके शासन में राष्ट्रपिता भी गरीबी रेखा के नीचे हो, वे आम आदमी की गरीबी कैसे दूर करेंगे।''
सिंह साहब (उत्साह के साथ) : बात तो पते की है, ओझा साहब! गरीबी हटाओ नारे की भी ऐस्सी की तैस्सी हो जाग्गी जनाब! ...रहन दो जनाब!
अध्यक्ष (गंभीर भाव के साथ समर्थन करते हुए) : ...बात तो ठीक है, ऐसी हालत में बापू को जनता के सामने लाना प्रैक्टिकल न होगा...।
उपाध्याय (मध्य ही में) : ...मगर जनाब, बापू तो अंग्रेजी राज में भी ऐसी ही वेशभूषा में रहते थे ...तब तो... !
अध्यक्ष (सहज भाव से) : ...हाँ, ठीक कहते हो, अग्रवाल साहब! ...मगर तब देश की जनता फ्रीडम के लिए फाइट कर रही थी। उसे एक फकीर की आवश्यकता थी। अब (क्षणिक मौन के बाद) अब ऐसा कोई इश्यू नहीं है, इसलिए नई
जेनरेशन...!
अग्रवाल साहब (प्रस्ताव पर जोर देते हुए, मध्य ही में) : ...टिकट न सही, चुनाव प्रचार के लिए तो इस्तेमाल किया ही जा सकता है...।
ओझा साहब (तुनक कर) : ...स्वप्न सुंदरी के सामने टिक पाएगा, ग्लैमरहीन तुम्हारा बापू ..।
सिंह साहब (क्षोभ व्यक्त करते हुए) : दीण-दुणिया की कुछ तो खैर-खबर रक्खा करो, अगरवाल साहब! ...चुनाव परचार के लिए दूसरो ने चौक्खी एक दरजन सुपन सुंदरियां किराए कर लेल्ली हैं। ..अब बताओ गांध्धी की औकात है उनका मुकाबिला करने की। ...सही कहत्ते हैं, ओझझा साहब... कित टिकेंग्गे थारे बापू!
राय साहब (झंझलाते हुए) : ...ओ हो! ...हमने तो इसे भी 'हाउस' बना लिया है। ...मीनिंगलैस बहस का टाइम नहीं है। ...यह बताया जाए कि ऐसे हालत में किया क्या जाए...?
ओझा साहब (अपनी बात पर बल देते हुए) : टिकट देना तो उचित नहीं है...!
उपाध्याय (मध्य ही में, गर्दन हिला कर) : ...और खाली हाथ लौटाना उचित होगा?
अग्रवाल साहब (गंभीर) : विपक्ष के हाथ लग गए बापू तो, करा-धरा सब गुड़-गोबर हो जाएगा, यह भी सोच लेना!
अध्यक्ष (चिंता व्यक्त करते हुए) : कोई तो रास्ता निकालना ही होगा! फैसला शीघ्र किया जाना चाहिए! ...बापू को ज्यादा देर वेट कराना उचित नहीं...।
उपाध्याय (गंभीर भाव) : हाँ, जनता को पता चल गया तो संभालना मुश्किल हो जाएगा!
सिंह साहब (क्रोध का प्रदर्शन करते हुए) : ...पहले जनता को ही बता आओ... बाकी काम तो फिर निपटा लेगें। ...जनता पर बड़ा भरोसा है।
उपाध्याय (क्रोध भाव के साथ) : ...हां, इसी भरोसे अभी तक एक भी चुनाव नहीं हारा हूँ, जनाब... !
ओझा (नकल उतारते हुए) : ...बापू की ऊंगली पकड़ लो जनाब, ...हार का मजा भी मिल जाएगा!
अध्यक्ष (झुंझलाते हुए) : उफऽऽऽ...! फिर वही ..कभी तो गंभीर हो जाया करो! (एक लंबी सांस खीचने के बाद) उपाध्यायजी ठीक कहते हैं, पब्लिक को पता चल गया तो लॉ एण्ड आर्डर की स्थिति संभालना मुश्किल हो जाएगा।
ओझा साहब (गंभीर हो कर) : ...तो, क्या अध्यक्षजी आप मानते हैं कि जनता में अभी भी बापू को लेकर क्रेज है?
अध्यक्ष (समझाने के लहजे में) : पूरी तरह तो इग्नोर नहीं किया जा सकता। अगर ऐसा होता तो हम बापू को बाहर से ही टरका देते। (चिंता भाव से) यहाँ माथा-पच्ची क्यों करते!
सिंह साहब (उपेक्षा भाव से) : तो इसका मतलब...!
अध्यक्ष (मध्य ही में चिंता भाव से) : इसका मतलब साफ है! ...यह ऐसा साँप हमारे गले में पड़ गया है, जिसे उतार कर फेंकना भी खतरनाक है और गर्दन में लटकाए-लटकाए घूमना भी!
ओझा साहब (गंभीर हो कर) : फिर तो अध्यक्ष जी 'साँप मरे, ना लाठी टूटे' वाला कोई जतन खोजना होगा।
अध्यक्ष (झुंझलाते हुए) : तब से मैं और क्या कह रहा हूँ? ...इसी प्राबॅलम को साल्व करने के लिए ही तो हम यहाँ इकठ्ठा हुए हैं, मगर...!
अग्रवाल साहब (गंभीर मुद्र के साथ मध्य ही में) : ...अब आप ही बताइए, अध्यक्ष जी क्या किया जाए? ...आपका फैसला सर्वमान्य होगा।
सिंह साहब (मुस्कराहट के साथ) : ...इसमें नया क्या है? ...अध्यक्षजी का फैसला तो सबको मान्य होगा ही... !
ओझा साहब (अग्रवाल की और देख कर) : ...यह तो हमारी पार्टी की परंपरा है!
सिंह साहब (होठों पर ऊंगली रख ओझा की ओर संकेत करते हुए) : ...मगर फैसला सुनाने से पहले महातमा जी के दर्शन हम भी तो करलें।
ओझा (मुसकराते हुए) : बात तो ठीक है, खाम -ओ-ख्वाँ ही लाठी पीटते रहने से क्या लाभ!
अध्यक्ष (राय साहब की ओर संकेत करते हुए) : सिंह साहब ठीक कहते हैं। बापू को ससम्मान यहाँ ले आया जाए।
(राय साहब के साथ बापू का सभागर में प्रवेश। अध्यक्ष सहित सभी सदस्य खड़े हो जाते हैं और सभी की निगाहें एक बार बापू की तरफ उठती हैं तो दूसरी बार दीवार पर टंगे बापू के चित्र की ओर। एक ही क्षण में यह क्रम स्वत: ही कई बार दोहराया जाता है। आश्वस्त हो कर सभी बापू को प्रणाम करते हैं)
अध्यक्ष (आदर के साथ) :
आइए बापू ...आपका स्वागत है (समीप के आसन की ओर संकेत कर) यहाँ बैठिए बापू।
बापू (हर्ष के साथ मन ही मन) : ...ओह! कितने शालीन हैं मेरे शिष्य ...इनके हाथों में अवश्य देश सुरक्षित रहेगा। ...कमबख्त! मुन्नालाल झूँठ बोलता था!
अध्यक्ष (विनय भाव से) : बापू! ...आदेश करें!
बापू (संकोच के साथ) : पुत्र! ...चुनाव लड़ना चाहता हूँ।
अध्यक्ष (विनम्र भाव से) : बापू! यह तो पार्टी व हमारे लिए हर्ष का विषय है! आपको चुनाव में उतारा जाए, इस प्रस्ताव पर कार्यसमिति के सभी सदस्य सहमत हैं, किंतु... !
(सहमति की बात सुनते ही सदस्य एक दूसरे का मुंह ताकने लगते हैं)
बापू (सहज भाव से) : .
..किंतु, क्या पुत्र?
अध्यक्ष ( तनाव के भाव के साथ) : ...किंतु, बापू आपको इसकी क्या आवश्यकता?
बापू (पूर्व भाव से) : पुत्र! ...राष्ट्र सेवा करना चाहता हूँ!
अध्यक्ष (आश्चर्य के साथ) : राष्ट्र सेवा! ...किंतु उसके लिए चुनाव लड़ने की क्या आवश्यकता?
बापू (मुसकरा कर) : ...बात-बात पर किंतु, पुत्र! (विराम) मैंने सुना है, पुत्र राष्ट्र सेवा के लिए सांसद बनना आवश्यक है!
अध्यक्ष (तनाव के साथ) : नहीं-नहीं, बापू! ऐसा कुछ भी नहीं है। राष्ट्र सेवा एमपी बने बिना भी की जा सकती है, लोकनायक जे.पी. की तरह।
बापू (मुसकराते हुए) : अपने कथन पर विचार कर देख लो, मुझे कोई एतराज नहीं है। (विराम) विचार कर लो, कहीं फिर किसी आपातकाल..!
अध्यक्ष (मध्य ही में घबराते हुए) : ...नहीं-नहीं मेरे कहने का अर्थ यह नहीं था, मै तो...।
बापू (मध्य ही में) : ...फिर मैं तुम्हारी ही तरह राष्ट्र सेवा...!
अध्यक्ष (विनीत भाव के साथ) : ...बापू, मगर लोग क्या कहेंगे कि चुनाव जीतने के लिए हमने बापू का दुरुपयोग किया।
बापू (उपेक्षा भाव से) : कहने दो, पुत्र! ...लोग तो अब भी कह रह हैं। कुछ न कुछ तो कहेगें ही!
अध्यक्ष (चिंता व्यक्त करते हुए) : किंतु विपक्ष इसे मुद्दा बना लेगा। (एक क्षण रुकने के बाद) अब आप ही बताओ बापू , बैठे-बिठाए मुद्दा देकर क्या संप्रदायिक पार्टी को लाभ पहुंचाना उचित होगा ..?
ओझा साहब (मध्य ही में गंभीर भाव से) : ...बापू, आप तो पहले ही सक्रिय राजनीति से संन्यास ले चुके हो! ...अब आप ही बताओ बापू क्या फिर भी चुनाव लड़ना आपकी गरिमा के अनुकूल होगा?
अध्यक्ष (रहस्यमय भाव चेहरे पर लाते हुए) : ...ठीक ही कहा, ओझा साहब ने बापू!
ओझा (अध्यक्ष के कान में) : अरे, भाई! बापू को संग्रहालय में रख देते हैं। सभी समस्याओं से छुटकारा मिल जाएगा।
अध्यक्ष (पूर्व भाव से) : ...हाँ-हाँ बापू, चुनाव न लड़ा कर आप हमारे पास ही विश्राम करें! आप भी सुरक्षित रहेंगे और आपकी गरिमा भी। ..हम आपका आदर करते हैं ना, बापू!
(बापू मौन रह कर अन्य सदस्यों के चेहरों के भाव पढ़ने का प्रयास करते हैं। अध्यक्ष व राय साहब कक्ष के एक कोने में जाकर मंत्रणा करते हैं)
राय साहब (कान के पास मुँह लगा कर) :
नहीं-नहीं, सर संग्रहालय में नहीं। ...संग्रहालय में रखेंगे तो बापू डंप हो जाएंगे।
अध्यक्ष (जिज्ञासा भाव से) : क्या मतलब...?
राय साहब (शब्दों को खींचते हुए ) : ...सऽऽऽर, मतलब साफ है, ब्रांड में अभी जान है, ...क्यों न इसको कैस किया जाए?
अध्यक्ष (पूर्व भाव से) : फिर...क्या किया जाए, राय साहब?
राय साहब : कार्यालय प्रांगण में क्यों न स्थापित कर दिए जाए?
अध्यक्ष : उससे क्या होगा?
राय साहब : निगाहों के सामने रहेंगे तो गड़बड़ी भी नहीं कर पाएंगे। विपक्ष में शामिल होने का खतरा भी टल जाएगा!
अध्यक्ष (चिंतन की मुद्रा में) : ...हूँऽऽऽ!
राय साहब (मुस्करा कर) : ...सऽऽऽर, आंगन में खड़े-खड़े कुछ तो वोट बटोरेंगे।
(अध्यक्ष सहमति में गरदन हिलाते हैं और दोनों पुन: अपने स्थान पर लौट आते हैं)
अध्यक्ष (गंभीर भाव से) :
बापू! आपके लिए कार्यालय परिसर में व्यवस्था कर देते हैं। ..वहीं अपने भक्तों का आशीर्वाद देते रहना!
बापू (मुसकराते हुए) : जैसी तुम्हारी इच्छा, पुत्रों!
राय साहब (हर्ष के साथ) : हाँ, बापू! ..तुम्हारी गरिमा भी बने रहेगी और चुनाव का आनंद भी!
बापू (मुसकराते हुए) : ...भीष्म पितामह के सामान, पुत्र!
अध्यक्ष (हर्ष के साथ) : हाँ, हाँ, बापू! युद्ध से भी मुक्ति मिल जाएगी और युद्ध का आनंद भी प्राप्त होता रहेगा!
बापू (सहमति में सिर हिलाते हुए) : हाँ, यही उचित रहेगा, पुत्र!
(बला टली के अंदाज में सभी ने अध्यक्ष के प्रस्ताव हर्ष व्यक्त किया और एक-एक कर सभागार से रवाना हुए। कार्यालय प्रांगण में बापू की प्रतिमा स्थापित करने की तैयारियां जोर-शोर से शुरू हो गई। उधर अनिष्ट की आशंका से ग्रस्त बापू भी मौका पाते ही वहां से रफू-चक्कर हो गए।)
(कल : बापू और राष्ट्रपति भवन पर तैनात सिपाही ..जारी)