Friday, May 16, 2008

टीले का रहस्य

आज आपको एक कहानी सुनाता हूं। कहानी न अतीत की है और न ही वर्तमान की। कहानी भविष्य की है। भविष्य की है, किंतु कोरी कल्पना नहीं। कल्पना कोरी कल्पना कभी होती भी नहीं है। प्रत्येक कल्पना किसी न किसी यथार्थ पर ही आधारित होती है। अत: इस कहानी को कोरी कल्पना समझ कर यों ही हंसी में मत उड़ा देना। अच्छा कहानी सुनों-
सूनामी गांव में एक ग्वाला रहता था। ईमानदार था, प्रेमी जीव था, सत्यवादी था, अहंकार करने के लिए उसके पास कुछ था ही नहीं, अत: अहंकार-मुक्त भी था। जब उसे अहंकार ही नहीं था, तो क्रोध कहां से होता! वैसे क्रोध के लिए भी पल्ले कुछ होना आवश्यक है। कुल मिलाकर सज्जनता के सर्वगुणों से संपन्न था। यही उसकी पूंजी थी और यही उसकी संपन्नता।
वह रोज सुबह उठता। अपने साथियों के साथ दूर जंगलों में पशु चराने ले जाता। साथी ग्वालों को प्रेम का पाठ पढ़ाता, आपस में विवाद होने पर सहज भाव से उसे निपटा देता। खुद घाटे में रहता मगर विवाद को तूल न पकड़ने देता। पशु चरने में व्यस्त हो जाते, तो उसके साथी उसे घेरकर लोक-परलोक की कहानियां सुनते। ग्वाला वैसे तो निरक्षर था। यहां तक कि अपना नाम भी लिखना नहीं जानता था। संस्कृत और संस्कृत-निष्ठ भाषा बोलने का तो प्रश्न ही नहीं। किंतु, न जाने कौन शक्ति उसकी आत्मा में प्रवेश कर जाती कि वह कहानी सुनाते-सुनाते आध्यात्मिक-प्रवचन सुनाने लगता। जिसमें वेद-पुराण और गीता-उपनिषदों के दृष्टांत भी होते। उसके साथी उस के ज्ञान पर आश्चर्य भी करते, किंतु बहुत ही ध्यान से उसे सुनते। कुछ ज्ञान की जिज्ञासा वश तो कुछ चमत्कार की जिज्ञासा के कारण।
गांव भर में वह ग्वाला संत के नाम से मशहूर हो गया। उसके ज्ञान के बारे में जितने मुंह, उतनी ही धारणाएं उत्पन्न हो गई। कोई कहता कि इस पर भूत-प्रेत का साया है, तो कोई कहता कि विशेष स्थिति में किसी संत की आत्मा इसके शरीर में प्रवेश कर जाती हैं। गांव वालों ने उसे पंडितों को दिखाया, तांत्रिकों को दिखाया, ओझा-बूझा को दिखाया, मगर किसी के हाथ कुछ न आया। प्रवचन का सिलसिला बदस्तूर जारी है।
एक दिन की बात है, वह अपने साथियों के साथ पशुओं को लेकर घने जंगल की ओर निकल गया। एक स्थान पर हरी-भरी घास देखकर सभी ने वहीं पशु चराने का फैसला किया और पेड़ों की छांव में सुस्ताने बैठ गए। उसी जंगल में एक वृक्ष के नीचे मिट्टी का एक टीला देखकर संत-ग्वाला उस पर जाकर बैठ गया। प्रवचन सुनने की इच्छा से उसके साथी अपने-अपने स्थान से उठकर उसके आसपास आकर बैठ गए। उन्हें देखकर प्रतिदिन की तरह उस ग्वाले-संत ने नेत्र बंद किए और बोलना शुरू कर दिया। मगर यह क्या! आज रोजाना जैसे तो प्रवचन नहीं! साथी पहले तो हैरान हुए और फिर यह सोचकर कि शायद यह भी प्रवचन का ही हिस्सा है, सभी शांत हो कर सुनने लगे। लेकिन, तब उन्हें हैरानी हुई जब संत ने कहा कि मैं आप लोगों को प्रतिदिन अच्छी-अच्छी कहानी सुनाता हूं, उसके बदले में सभी ग्वाले कर के रूप में मुझे अपनी-अपनी गायों का दूध दिया करेंगे। यह संपूर्ण जंगल और यहां उगने वाली घास पर भी मेरा अधिकार है।
कुछ देर तक अपनी महिमा का बखान कर संत-ग्वाला उस टीले से नीचे उतर आया और फिर अपने साथियों के साथ, पूर्व का सा व्यवहार करने लगा। संत के बदलते स्वरूप को देखकर उसके साथियों की हैरान बढ़ती जा रही थी। रोज की तरह अगले दिन फिर सभी ग्वाले उसी जंगल में पशु चराने गए और कुछ देर के बाद संत-ग्वाला उसी टीले पर जाकर बैठ गया और बैठते ही उसके व्यवहार में परिवर्तन शुरू हो गए। कल उसने जंगल और उसकी घास पर अपना अधिकार जमाया था, आज व दूसरे ग्वालों के पशुओं पर भी अपना हक जमाने लगा। उसी टीले पर बैठ कर एक दिन उसने एक-एक कर अपने साथियों को बुलाया और प्रत्येक के कान में कुछ कहा। परिणामस्वरूप परस्पर मनमुटाव पनपने लगा और दो गुट बन गए। एक गुट संत का साथ देने लगा और दूसरा गुट उसका विरोधी हो गया।
बावजूद इसके उसके साथी इस बात को लेकर हैरान थे कि संत टीले पर बैठकर अगड़म-बगड़म बकता है और टीले से नीचे उतर कर फिर पूर्व जैसा ही सद्-व्यवहार करने लगता है। सभी को प्रेम का पाठ पढ़ाने लगता है, सुख-दुख में एक दूसरे की मदद करने के लिए प्रेरित करने लगता है। साथी सोचने लगे आखिर माजरा क्या है! माजरे की तह तक जाने के लिए सभी ग्वाले गांव के जहीन-बुजुर्ग के पास गए। एक दिन ग्वालों के साथ जंगल जाकर बुजुर्ग ने पूरी स्थिति का जायजा लिया। पहले तो वह भी हैरान हुआ, लेकिन फिर वह इस नतीजे पर पहुंचा कि संत की प्रकृति में कोई विकृति नहीं है। संत की प्रकृति में विकृति पैदा होती, तो टीले से नीचे उतरकर भी वह बरकरार रहती, किंतु ऐसा तो कुछ नहीं है। हो-न-हो इस टीले में ही कुछ करामात है।
बुजुर्ग ने टीले की खुदाई कराने का निर्णय किया। टीले की खुदाई शुरू हो गई। खुदाई के दौरान सबसे पहले कुर्सी-नुमा काले रंग का एक सिंहासन मिला। उसके नीचे आकूत धन दब पड़ा था। धन भी काले ही रंग का था। काले रंग की इस दौलत का रहस्य जानने के लिए पुरातत्व-वेत्ताओं और भूगर्भ-शास्त्रियों को बुलाया गया और उसका अध्ययन शुरू हो गया। अध्ययन से पता चला कि कभी यहां भारत नाम का एक देश हुआ करता था। लोकतंत्र-काल में वहां की शासन व्यवस्था पर नेता नामक जीवों का कब्जा था। उन्हीं नेताओं के सद्कर्मो के कारण पहले लोकतंत्र का खातमा हुआ और धीरे-धीरे पूरा देश ही रसातल में चला गया। उन नेताओं को काला रंग बहुत प्रिय था। अत: वे काले रंग के ही कारनामे करते थे और काला ही धन एकत्रित करते थे। खुदाई में प्राप्त काला सिंहासन और काला धन लोकतंत्र काल के ऐसे ही किसी नेता का रहा होगा।
अधिकारियों ने वाकया अपने राजा को सुनाया। आश्चर्य व्यक्त करते हुए राजा ने सारा धन राजकोष में जमा कराने का आदेश दिया। किंतु राजा के मंत्री इस आदेश से सहमत नहीं थे। उन्होंने खुदाई में प्राप्त सारा धन समुद्र में डुबो देने का सुझाव दिया। राजा ने कारण पूछा, तो मंत्रियों ने कहा कि महाराज यह काला धन है, इसे यदि राजकोष में रखा गया, तो समूची राज-व्यवस्था काली हो जाएगी और भारत की तरह हमारा राज भी रसातल में चला जाएगा। अत: इसे नष्ट करना ही राज हित में होगा। राजा ने मंत्रियों की सलाह पर सारा काला धन समुद्र में फिंकवा दिया। गांव वालों ने राहत की सांस ली। उन्हें उनका संत फिर मिल गया था।
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