Saturday, October 6, 2007

एक अदद जटायु की खोज



एक अदद जटायु की खोज

राजेन्द्र त्यागी

जी विज्ञानी गिद्धों की घटती पैदावार को लेकर चिंतित हैं। अब अपनी ऊर्जा वे गिद्धों की पैदावार बढ़ाने में लगाएंगे। सुना है, सरकार भी इस विषय को लेकर काफी चिंतित है। सरकार की चिंता को लेकर हमें कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि सजातीय के प्रति चिंतित होना जीवों का स्वभाव है। सरकार नामक गठबंधन में शामिल तत्वों कुछ हों या न हों, किंतु उनके जीव होने से इनकार नहीं किया जा सकता। वैसे भी, सरकारों का सरोकार मुख्य रूप में चिंता और चिंतन से ही है, अत: गिद्धों के प्रति उनका मोह आश्चर्य का विषय नहीं है। आश्चर्य हमें विज्ञानियों की सोच को लेकर हुआ, क्योंकि हम उन्हें न बुद्धूजीवी मानते हैं और न ही गिद्धों का सजातीय। फिर न जाने क्यों, अचानक उन्हें गिद्ध मोह कैसे हो गया? क्यों उनकी पैदावार बढ़ाने के लिए अभियान चला रहे हैं? इसे सोहबत का असर भी कहा जा सकता है और परिस्थितिजन्य अन्य कारण भी। अभियान केवल गिद्धों की पैदावार को लेकर ही चलाया जाता तो भी हमारी चिंता का वजन वजनदार न होता, हमारे लिए भी चिंता सरकारी स्तर की होती। चिंता का वजन वजनी होने का कारण गिद्धों की पैदावार बढ़ाने और इंसानों की पैदावार घटाने के लिए चलाए जा रहे अभियान हैं। कभी-कभी लगता है कि सरकार और विज्ञानियों को अब इंसानों की अपेक्षा गिद्धों की कहीं अधिक आवश्यकता है। गिद्धों की पैदावार घट रही है, यह सुनकर भी आश्चर्य होता है और इंसानियत विरोधी ऐसे लोगों की बुद्धि पर तरस भी आता है। वास्तविकता तो यह है कि पैदावार गिद्धों की नहीं, इंसानों की घट रही है। गिद्ध तो एक ढूंढों, हजार मिलते हैं और इंसान हजार के बीच एक भी मुश्किल से! हम इतना अवश्य स्वीकारते हैं कि मरे जानवरों को आहार बनाने वाले गिद्धनुमा विशाल परिंदे आसमान में अब नहीं दिखाई पड़ते, लेकिन उनकी न संख्या में कमी आई और न ही उनकी पैदावार घटी है, केवल स्वरूप बदला है। गिद्धों के परिवर्तित रूप को पहचानो और दृष्टिं बदलो, चारो ओर गिद्ध ही गिद्ध नजर आएंगे। उनके स्वरूप में ही नहीं, स्वभाव में भी परिवर्तन आया है। परिंदे मृत देह का भक्षण करते थे, परिवर्तित गिद्ध जीवित को अपना आहार बना रहे हैं। परिंदे पर्यावरण के लिए लाभदायक होते होंगे, हम इनकार नहीं करते, मगर परिवर्तित गिद्ध समाज के पर्यावरण को प्रदूषित कर रहे हैं। रूप परिवर्तन का यह सिद्धांत मनगढ़ंत नहीं, इसके पीछे ऐतिहासिक आधार है। कलियुग के साथ यह विडंबना रही है कि सतयुग, त्रेता अथवा द्वापरयुग में जब कभी किसी देवता ने रुष्ट-तुष्ट अवस्था में किसी को शाप या वरदान दिया तो कलियुग में मानव योनि प्राप्त होने का ही दिया। भगवान राम भी इससे अछूते नहीं रहे। वन से लौटने के समय भक्ति-भाव से प्रसन्न होकर उन्होंने किन्नरों को कलियुग में राज करने का वरदान दिया था। भगवान राम के उस वरदान का परिणाम सबके सामने है। हमारा अनुमान है कि जटायु की भक्ति से भी प्रसन्न होकर भगवान ने अवश्य उसे भी ऐसा ही कुछ वरदान दिया होगा, 'हम तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हुए वत्स। कलियुग में तुम्हें मनुष्य योनि प्राप्त होगी।'भगवान राम के वरदान का सहारा लेकर त्रेतायुग के सारे गिद्ध कलियुग में मनुष्य योनि को प्राप्त हो गए। जो चतुर सुजान थे, उन्होंने सत्ता का भी दरवाजा जा खटखटाया। इसमें भगवान राम की भी कोई गलती नहीं है। उन्होंने तो केवल जटायु को वरदान दिया था। उसका लाभ समूची प्रजाति ने उठा लिया। यह कलियुग की परंपरा है, क्योंकि इस युग के देवता स्वभावत: काफी उदार हैं। खैर, जो हुआ, विधि का विधान है, इस पर किसी का वश नहीं है, किंतु भूल सुधार की जा सकती है, की जानी चाहिए। खोज गिद्धों की नहीं, जटायु की होनी चाहिए। उन्हीं की घटती पैदावार चिंता का विषय होनी चाहिए।
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