चचा मुसद्दीलाल एक अर्से से असाध्य रोग से पीड़ित हैं। गली-मुहल्ले के डाक्टर जवाब दे चुके हैं, क्योंकि चचा स्वयं भी इस नश्वर संसार को जवाब देने की स्थिति में पहुंच गए हैं। पुत्र मुन्नालाल ने हैसियत के मुताबिक पिता की दवा-दारू में कोई कसर बाकी नहीं रखी, मगर क्या किया जाए जब ईश्वर को कुछ और ही मंजूर है। पीड़ित मुसद्दीलाल एक दिन मुन्नालाल से बोले, 'मुन्ना एक काम कर, मुझे किसी सरकारी अस्पताल में भर्ती करा दे।'
पिता की बात सुन अपनी हैसियत और भीड़ भरे सरकारी अस्पतालों के दृश्य उसके सामने एक साथ उभर आए और वह कसमसा कर रह गया। उसने पिता की बात का कोई जवाब नहीं दिया। बस मन ही मन अपने को धिक्कारा, काश! कोई मंत्री-संतरी उसकी भी जान-पहचान का होता और वह भी अपने पिता की अंतिम इच्छा पूरी कर पाता।
दो-तीन दिन बीत जाने के बाद चचा मुसद्दीलाल ने अपनी इच्छा पुन: व्यक्त की। अपनी एलआईजी हैसियत और पिता के दुराग्रह के कारण शालीनता के सभी बंधन तोड़ मुन्नालाल बोला, 'सरकारी अस्पताल में भर्ती होना चाहते हो, अभी भी अपने को तहसीलदार समझ रहे हो। जिंदगी के अंतिम चरण में भी विलासिता के ख्वाब देख रहे हो।'
पुत्र के मधुर वचन सुन मुसद्दीलाल की आंखें भर आई और मन ही मन अपने आप को धिक्कारा, 'सरकारी अस्पताल में इलाज भी विलासिता! क्या जमाना आगया है?'
मृत्यु शैया पर पड़े पिता के साथ दुर्व्यवहार का किस्सा पूरी कालोनी में चर्चा का विषय बन गया। लोक-लाज वश वृद्ध माता-पिता की सेवा करने वाले सुपुत्रों ने भी मुन्नालाल को धिक्कारा, तो ऐसे सुपुत्र भी आलोचना करने में पीछे नहीं रहे, जो पुण्य प्राप्त करने के आध्यात्मिक स्वार्थ के वशीभूत सेवा करना अपना परम-धर्म मानते हैं। और तो और ऐसे लोगों ने भी मुन्नालाल को खूब लानत-मनानत देकर अपनी गिनती सुपुत्रों में करा ली, जिन्होंने अपने माता-पिता को जीते-जी एक गिलास पानी भी कभी अपने हाथ से नहीं पिलाया। हां, मृत माता-पिता की आत्मा उन्हें परेशान न करें, इस भय से मुक्त रहने के लिए वे उनका श्राद्ध करना कभी नहीं भूले।
खैर बात उड़ते-उड़ते मुसद्दीलाल के मित्र चिंतादास के पास पहुंची और लानत-मनानत देने के लिए उसने मुन्नालाल को तलब किया। चिंतादास ने मुन्नालाल को पुत्रधर्म समझाया, पित्र भक्ति से ओतप्रोत पौराणिक कहानी सुनाई और लानत-मनानत दी और अंत में पिता को अस्पताल में भर्ती कराने की आदेशात्मक सलाह दी।
चिंतादास के वचन सुन मुन्नालाल बोला, 'चचा! तुम्ही बताओ, कोई कोर-कसर छोड़ी है उनके इलाज में, मगर वे तो सोचते हैं, आज भी वैसा ही जमाना है, जैसा उनकी तहसीलदारी के समय था।'
भीगी पलकों के साथ मुन्नालाल आगे बोला, 'चचा सरकारी अस्पताल में भरती कराना अब कोई खाला का घर नहीं है कि जब चाहो मेहमानदारी में चले जाओ। भरती कराने के लिए कम से कम स्वास्थ्य मंत्री की सिफारिश तो चाहिए ही, कहां से लाऊं?'
मुन्नालाल की चिंता चिंतादास को भी उचित लगी और हमें भी। सरकारी अस्पतालों में अब या तो सरकार आराम फरमाने जाते है अथवा ऐसे भाई लोग जेल की हवा में जिनका दम घुटता है। आम आदमी तो हाथ में दवा की पर्ची थामे बस तारीख पर तारीख ही भुगतता रहता है और तब तक भुगतता रहता है, जब तक कि ऊपर वाले की अदालत में उसके मुकदमे का अंतिम फैसला न सुना दिया जाता।
मुन्नालाल करता भी तो क्या करता, वह जानता है कि शहर में अमन-चैन कायम रखने के लिए पुलिस वाले वारदात दर्ज नहीं करते और मृत्यु दर में गिरावट लाने के परम्ं उद्देश्य की प्राप्ति हेतु सरकारी अस्पताल वाले ला-इला़ज मरीज को भर्ती नहीं करते। फिर इस हालात में उसके पिता को कोई क्यों भर्ती करेगा।
दरअसल सरकारी अस्पताल वाले बड़े ही दयालु किस्म के जीव होते हैं। वे नहीं चाहते हैं कि कोई भी व्यक्ति सड़-सड़ कर अस्पताल में मरे, अच्छा यही है कि वह अपने परिजनों के बीच चैन से मृत्यु को प्राप्त हो। यही वजह है कि मरीज को जीवन के अंतिम पायदान तक पहुंचाने का अनुष्ठंान पूर्ण कर उसे अस्पताल से घर भेज दिया जाता है, ताकि वह शास्त्रानुसार मृत्यु को प्राप्त हो सके।
हां, मृत्यु का भी अपना शास्त्र होता है, अर्थशास्त्र! जो व्यक्ति निजी पंचतारा अस्पतालों की सुंदर नर्सो की बांहों में मृत्यु का वरण करते हैं, वे एचआईजी मृत्यु को प्राप्त होते हैं। सरकारी अस्पतालों के नकचढ़े वार्ड बॉय व नर्सो के प्रवचन सुनते-सुनते इस नश्वर शरीर का त्याग करने वाले मनुष्य एमआईजी मृत्यु को प्राप्त होते हैं और आंखों में अस्पताल सुख का सपना संजोए-संजोए घर के एक कोने में बिछी खटिया पर प्राण त्यागने वाले प्राणी एलआईजी मृत्यु को प्राप्त होते हैं। ईडब्ल्यूएस मृत्यु को प्राप्त होने वाले मनुष्य महानगरों की सड़क के किनारे पटरियों पर दम तोड़ने का सुख प्राप्त करते हैं।
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मुसद्दीलाल जी को यह ज्ञान नहीं हुआ है कि मृत्यु का पुण्यलाभ (उन्हें और् परिवार जनों को) घर में ही है।
ReplyDeleteअगर परिवार वाले बिल्कुल उपेक्षा नहीं करते तो खैराती अस्पताल/सरकारी अस्पताल की बजाय घर बेहतर है।
एल आई जी मृत्यु एम आई जी मृत्यु से बेहतर है। कई मामलों में मैने एम आई जी मृत्यु से ईडब्ल्यू एस मृत्यु बेहतर पायी है।
एम आई जी मृत्यु में विकट उपेक्षा है।
खैर, यह अपना अपना आकलन है।
वाह सरजी जबरदस्त वर्णन किया आपने मृत्यु के प्रकारों का.
ReplyDeleteउच्च कोटी का हास्य-व्यंग्य.
सटीक नज़र डाली है गुरु!!
ReplyDeleteबहुत बढिया , बहुत सुंदर हास्य-व्यंग्य.!
ReplyDeleteवाह बढिया लेख, खासकर मृत्यु का वर्गीकरण ।
ReplyDeleteमैं भी ग्यान दत्त जी से सहमत हूँ कि परिवार जनों के आसपास वाली मृत्यु एम आइ जी मृत्यु से बेहतर है ।
सर सादर परनाम,
ReplyDeleteमृत्यु के अर्थशास्त्र का विवरण फ्लैटो की अलग अलग वर्गों मे कर आम आदमी को उसकी ओकत का दृश्य दिखा कर अंधकार से निकलने का पर्यास अति उत्तम लगा आप के प्रतैयक व्यंग मे सचाई है !
आप का सेवक
रवि दुआ
दिल्ली
२८.२.2008