ग़ज़ल
मैं अकेला था, अकेला ही चला हूँ।
बंधनों से मुक्त, मैं रस्ता नया हूँ।।
मील के पत्थर नहीं, हैं लक्ष्य मेरे।
मैं क्षितिज के पार, जाना चाहता हूँ।।
क्यों समर्पण, सामने उनके करूं मैं।
क्या हुआ मैं, जो अभावों में पला हूँ।।
भाव हैं निश्छल, प्रणय का मैं पुजारी।
प्रेम का संदेश लेकर, मैं बढ़ा हूँ।।
दोष उनको ही, भला क्यों दू सफर का।
जो बना रहबर, मैं उससे ही लुटा हूँ।।
भव्यतम शाही सवारी, जा चुकी है।
राजपथ पर, मैं अकेला ही खड़ा हूँ।।
चूमता अंबर, धरा के होंठ पल-पल।
देखकर ऐसा प्रणय, ही मैं जी रहा हूँ।।
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bahut khub
ReplyDeleteअच्छा लिखा है...बधाई।
ReplyDeleteशीर्षक गजल है या रचना गजल... समझ नहीं पाया... सुरुआत की आधी रचना में सकारात्मक भाव हैं और लय भी है परन्तु अन्त की आधी रचना नाकारात्मक भाव ओढे है.. भाव अच्छे होते हुये भी रचना बिखरी सी लगती है.... आशा है आप इसे अन्यथा न लेंगे
ReplyDeleteक्यों समर्पण, सामने उनके करूं मैं।
ReplyDeleteक्या हुआ मैं, जो अभावों में पला हूँ।।
बहुत अच्छा लिखा है आपने...बधाई.
नीरज