ग़ज़ल
हिज्र की 'उम्र इतनी हो गई ,
ज़िंदगी बेकसी-सी हो गई।
याद उनकी अभी बाक़ी मगर,
याद करना ख़ता-सी हो गई।
मन में आया भुला दूं मैं उसे
नज़्म में वह नुमाई हो गई।
ख़्वाब था बस जरा सा, कुछ नहीं,
ख़्वाब वो ही हक़ीक़ी हो गई ।
बेगुनाही में क्या ही अब कहूँ,
भूल थी बस सहज ही हो गई।
राजेन्द्र त्यागी