Saturday, February 2, 2008

आदमी बंदर की औलाद!

डार्विन ने कहा आदमी बंदर की औलाद है! न मालूम डार्विन ने इस प्रकार का दावा किस आधार पर कर दिया? न जाने उनके पास ऐसे कौन से सबूत थे, जिनके आधार पर ऐसा मुंह -फट बयान देने की जुर्रत कर दी! उनके विकासवादी सिद्धांत में किसी प्रकार के ऐसे अवशेष प्राप्त होने का जिक्र भी नहीं मिलता है, जिनसे ऐसा अमानवीय दावा किया जा सके!
एक संभावना यह हो सकती है कि उन्हें आस्ट्रेलिया के क्रिकेट खिलाड़ी एंड्रयू साइमंड्स की शक्ल-ओ-सूरत के आदमी कुछ ज्यादा ही तादाद में मिल गये हों और उसी के आधार पर उन्होंने आपने विकासवाद सिद्धांत का प्रतिपादन कर दिया हो। इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने आस्ट्रेलिया क्रिकेट टीम की लूट-खसोट की प्रवृत्ति को आधार बना कर ही अपने सिद्धांत की नीव रख दी हो!
बहरहाल आधार कुछ भी रहा हो, लेकिन इस सिद्धांत को लेकर कई शंकाएं हमारे मन का बंद द्वार खटखटा रहीं हैं। मसलन आदमी यदि बंदर की औलाद है, तो फिर बंदर से आदमी बनने का सिलसिला जारी क्यों नहीं है? अद्भुत इस विकास पर अचानक पूर्ण विराम कैसे लग गया? शंका-सवाल ़िफजूल ही पैदा नहीं हो गए हैं! उन्हें खाली दिमाग की खलल भी कहना उचित न होगा!
सवाल पैदा होने की वजह है कि कम से कम कलियुग में तो हमने किसी बंदर को आदमी बनते नहीं देखा! अलबत्ता आदमियों की हरकतें बंदराना जरूर दिखलाई दे जाती हैं।
कलियुग ही क्यों द्वापर के इतिहास में भी ऐसा कोई प्रसंग हमारे हाथ नहीं लगा, जिसके आधार पर यह कहा जाए कि कृष्ण भगवान के द्वापर में ़फलां-़फलां आदमी बंदर से विकसित होने के ताजा उदाहरण हैं। इतना ही क्यों द्वापर में ऐसे साइमंड्स की शक्ल-ओ-सूरत के आदमियों का भी तो कहीं जिक्र नहीं है।
साइमंड्सी सूरत के कुछ नायक-महानयक त्रेतायुग में अवश्य अवश्य प्राप्त हैं। भगवान राम की सेना में समूची एक ब्रिगेड ऐसे ही वीरों की थी। किंतु भगवान राम के भक्तों की प्रकृति बंदराना नहीं थी। क्रोध आने पर अथवा रावण जैसे राक्षस को मजा चखाने के लिए बंदराना हरकत कभी करनी पड़ गई हो तो उसे उनकी प्रकृति कहना उचित न होगा। दरअसल यह उनका परिस्थिति-जन्य स्वभाव था! रामभक्त भक्त तो आज भी शालीन ही पाए जाते हैं!
त्रेतायुग के इतिहास से संबद्ध किसी भी ग्रंथ में बंदर से विकसित आदमी का कहीं कोई संदर्भ प्राप्त नहीं है। अत: केवल भगवान राम की ब्रिगेड के आधार पर डार्विनी सिद्धांत के औचित्य को स्वीकारना उचित न होगा।

फिर डार्विन के मन में इस प्रकार का मानव विरोधी फितूर आया क्यों? अतत: इस बारे में हमने सोचा क्यों न किसी जहीन बुजुर्ग बंदर से ही इस बारे में बात की जाए? अत: हमने संसद भवन का रुख किया, क्योंकि वहां प्रत्येक किस्म के बंदर सहज उपलब्ध हैं!
वहां पहुंचते ही हमने सुदामा की पोटली की तरह बंदरों की जमात के बीच केले, चने और गुड़ की पोटली खोल दी। पोटली का खोलना था कि कुछ युवा व बाल बंदर उनकी और झपटे। तभी एक बुजुर्ग बंदर शायद उनकी जमात का मुखिया रहा होगा, ने किसी संगीत निर्देशक की तरह हाथ हवा में उठाए और साजिंदों की तरह बंदर शांत हो गए। हम यह देख कर हतप्रभ थे!
हमने बुजुर्ग को प्रणाम किया। बुजुर्ग ने अभिवादन स्वीकार हम से आने का कारण पूछा। हमने औपचारिकता का निर्वाह करते हुए कहा, 'यों ही दर्शन करने चला आया था!'
बुजुर्ग मुस्करा कर बोला, 'आदमी! ..और केवल दर्शनार्थ! ..कोरे दर्शन की इच्छा से तो वह बजरंगबली के मंदिर भी नहीं जाता! ..असंभव! ..नि:सकोच अपना मंतव्य व्यक्त करो, वत्स!'
बुजुर्ग का कटु सत्य सुनकर हमें अपने शुष्क चेहरे पर चंद जल की बूंदों का अहसास हुआ। इतने भर से ही लगा कि हम पानी-पानी हो रहे हैं!
हमें अपने पानी-पानी होने के अहसास पर भी आश्चर्य था, क्योंकि ऐसा होना जल-संकट के इस दौर में किसी भी लिहाज से व्यवहारिक नहीं कहा जा सकता!
हमने मुंह पर हाथ फेरा और बोले, 'मान्यवर! हमने प्रसाद आपकी सेवा में अर्पित किया था, अपने उसे ग्रहण करना उचित क्यों नहीं जाना?'
हमारा प्रश्न सुन कर बुजुर्ग गंभीर भाव से बोला, 'एक नहीं कई कारण हैं। प्रथम तो वर्तमान राजनीति में बंदरों के बीच भेली डालने का चलन बढ़ गया है।'
'..कैसे?' हमने प्रश्न किया।
'..भारतरत्न के नाम पर आडवाणी जी ने भेली डाली, वैसे! दूसरा कारण- हमारी ही संतान अब हमें बोझा समझने लगी है। चने-गुड़ दिखाकर हमें कैद कर रही है! अत: आदमियों से अब डर लगने लगा है, इसलिए सतर्कता आवश्यक है। सतर्कता हटी नहीं कि दुर्घटना घटी नहीं!' बुजुर्ग ने हमारी शंका का समाधान किया।
बुजुर्ग वास्तव में जहीन निकला और बातों-बातों में ही हमारी मूल शंका का संदर्भ भी छेड़ दिया। उसी संदर्भ की पूंछ पकड़ हमने प्रश्न किया, 'मान्यवर! तो क्या आप भी डार्विन के समान आदमी को अपनी ही औलाद मानते हैं?'
बुजुर्ग तपाक से बोला, '..इसमें न मानने की क्या बात है और डार्विन ने ही कौन नया सिद्धांत बघार दिया? ..यह तो हकीकत है!'
'मगर, अब..?' बुजुर्ग ने हमें प्रश्न पूरा नहीं करने दिया और हमारे प्रश्न का आशय समझ मध्य ही में बोला, 'हम ही ने आदमी बनने से तौबा कर ली है। हमारा प्रतिनिधि मंडल विधाता के पास गया था और अपनी व्यथा बता कर बंदर-आदमी विकास प्रक्रिया पर स्टे करा लाया!'
हमारा अगला प्रश्न था, 'ऐसा क्यों? यह तो प्रकृति के विकास में बाधा है!'
हमारा प्रश्न सुन बुजुर्ग के माथे पर बल पड़ गये, 'प्रकृति के विकास में बाधा और हम! प्रश्न करने से पूर्व अपने कर्मो की समीक्षा नहीं की शायद! करते, तो आरोप हम पर न लगाते, बरखुरदार!'
माहौल में आई गर्मी कम करने के लिहाज से मक्खनी अंदाज में हमने प्रश्न किया, '..किंतु आपकी व्यथा क्या थी?'
'हमारी व्यथा का कारण भी तुम आदमी-जाति ही थी!' बुजुर्ग ने अपने आवेग पर नियंत्रण किया और फिर अपनी व्यथा को विस्तार देते हुए बोला, ' लूट-खसोट करने में आदमी व्यस्त है और बदनाम हमें कर रहा है। गुड़ की भेली अपनों के ही बीच डाल कर तमाशा देखता है और अफवाह बंदरों के बीच भेली डालने की उड़ा दी जाती है!'
बुजुर्ग ने आसमान निहारा और फिर विचार की मुद्रा में बोला, 'आदमी की अति-बंदराना हरकत देख हम खुद ही भय खा गए और डार्विन के विकासवाद से तौबा कर ली! हम तो केवल खाली पेट ही लूट-खसोट करते हैं। हमारी औलाद पेट भरने के बाद भी लूट-खसोट जारी रखती है। अत: हमने सोच सुबह जो गलती हो गई सो हो गई, अब सांय काल तो घर लौट आना ही चाहिए!'
बुजुर्ग के चेहरे पर गंभीर भाव वृद्धि को प्राप्त होते जा रहे थे, 'लगता है, आदमी बंदर होता जा रहा है! विकास की प्रक्रिया उल्टी बहने लगी है! यही कारण है कि अब बंदर आदमी के रूप में विकसित होते नहीं दिखलाई पड़ रहे हैं!'
बात का उपसंहार करते हुए बुजुर्ग अंत में बोला, 'सुनों! दृष्टिं में थोड़ा परिवर्तन लाओ तो महसूस करोगे विकास की प्रक्रिया अभी भी चालू हैं, मगर बंदर से आदमी बनने की नहीं, अपितु आदमी से बंदर बनने की!'

2 comments:

  1. जीते जी आपने कपिराज के दर्शन कर लिये। आपके पिछले जन्म के पुण्य का प्रताप है।
    बाकी, लेख के शीर्षक में कहीं चूक हो गयी है क्या? "बन्दर आदमी की औलाद!" ज्यादा सटीक होता इस रिवर्स विकासवादी पोस्ट के लिये! :-)

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  2. our kya gadhe ki hota

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