परिंदों की सांसे थम गई,
पुष्प सभी मुरझा गये
पात सभी झर गये
शाखाएं सभी नग्न हो गई
बरगद ने दम तोड़ दिया
प्रकृति रो पड़ी!!!
और इनसान,
विकास की गाथा लिखता रहा!
विकास के इस पथरीले सफर की
मंजिल क्या है?
परिणति क्या है?
परिणाम क्या है?
क्या..!
पंछियों के गीतों पर विराम!
खिल-खिलाते पुष्पों का मौन!
लहलाते वृक्षों की हत्या!
प्रकृति का विनाश!
ओह!
कितना आत्मघाती है,
पथरीले विकास का यह सफर!
संपर्क ः 9868113044
जब तक इण्टर्नल विकास और एक्स्टर्नल विकास में पूरा तालमेल नहीं होता, जो आपने लिखा है, सच होता रहेगा।
ReplyDeleteपर इस तालमेल की संभावना नजर नहीं आती।
कभी प्रकृति तिरछी नज़र से देखेगी... पत्थरीले विकास को पत्थर के युग में बदल देगी.. यही चक्र चलता रहेगा... प्रकृति और मानव के विकास और विनाश का...
ReplyDeleteसच लिका है आपने। पर इतिहास साक्षी है कि प्रकृति भी बदला ले कर रहती है । इमारतें खंडहर बन जाती हैं । जहाँ तहाँ फिर वृक्ष उग आते हैं और शहर जंगल बन जाते हैं । निसर्ग चक्र चलता रहता है ।
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