Sunday, September 9, 2007

राजनीति, इज्जत और कीचड़

राजनीति, इज्जत और कीचड़
राजेन्द्र त्यागी
राजनीति का अपना एक संसार है, जिसमें इज्जत होती है, कीचड़ होती है। कीचड़ और इज्जत जब उछलती हैं, तो राजनीति में गतिशीलता के दर्शन हाते हैं। वरन् राजनीति कीचड़ भरे नाले के समान प्रवाह हीन सी दिखलाई पड़ती है। नाले की कीचड़ उछल कर जब सड़क पर आती है, तब पूर्व में कीचड़ के नीचे जारी मंद-मंद प्रवाह गति पकड़ लेता है और उसकी गति व दिशा दोनों स्पष्ट होने लगती हैं। यही स्थिति राजनीति की। कीचड़ राजनीति का स्थाई भाव है। राजनीति है जहाँ, कीचड़ है वहाँ! इज्जत राजनीति का स्वभाविक अंग है, क्योंकि इज्जत मनुष्य के साथ सदैव से चिपकी है। मनुष्य है, तो इज्जत होगी ही। इज्जत, इज्जत है, भले ही वह किसी भी स्तर की क्यों न हो। इज्जत वेश्या के भी होती है, क्योंकि किसी क्षण वह भी बेइज्जती मसूस करती है! इसी प्रकार राजनीति और उसके मुख्य तत्व नेता भी इज्जतदार होते हैं। वेश्या के समान राजनीति भी कब किस के बिस्तर पर करवटे बदलने लगे, कोई भरोसा नहीं है। फिर भी दोनों की अपनी-अपनी इज्जत होती है। दोनों के मध्य बस एक अन्तर है, वेश्या का अपना एक चरित्र होता है, किन्तु नेता इस मामले में प्रगतिवादी है, इसलिए उसकी इज्जत बहुआयामी है! 'इज्जत पर कीचड़ उछाली जा रही है!' राजनीति में यह जुमला अक्सर सुनने को मिलता है, क्योंकि इज्जत और कीचड़ दोनों ही राजनीति के स्थाई भाव हैं। किन्तु मैं इस जुमले से इत्तिफाक नहीं रखता। दरअसल राजनीति में कीचड़ इज्जत पर उछाली ही नहीं जाती। जिस प्रकार नाले से कीचड़ उछाली जाती है, उसी प्रकार इज्जत से कीचड़ उछाली जाती है। यह प्रक्रिया जनहित में है। इसके विपरीत कहावत है कि इज्जत और कीचड़ जब तक दबी रहे तभी तक ठीक है, किन्तु मैं इससे भी इत्तिफाक नहीं रखता। मेरे विचार से इज्जत और कीचड़ दबी-ढकी रहे तो एक दिन बदबू का प्रसारण करने लगती हैं। वायुमण्डल को प्रदूषित करने लगती हैं। अत: दोनों का उछलना आवश्यक है। इज्जत जितनी उछलती है, उतनी ही चमकती है। दबी-ढकी इज्जत क्या खाक चमकेगी? उछलना इज्जत का स्वाभाविक गुण है! जो लोग कीचड़ और इज्जत को दबा कर रखना चाहते हैं, वे 'जमाखोर' प्रवृत्ति के होते हैं और जमाखोरी सर्वजन हित में नहीं है! इज्जत से कीचड़ का उछलना सर्वजन के हित में तो है ही, व्यक्तिगत हित में भी है। जब तक इज्जत कीचड़ में दबी रहेगी, तब तक इज्जतदार का यथार्थ स्वरूप प्रगट नहीं होगा। उसके सद्गुण सार्वजनिक नहीं हो पाते, अत: वह सार्वजनिक जीवन से वंचित रहता है। वह सर्व-जन के गौरव से वंचित रहता है। अत: सर्व-जन होने के लिए इज्जत से कीचड़ उछालना परमावश्यक है। आवरण से ढके व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास नहीं हो पाता है। व्यक्तित्व-विकास तभी होता है, जब वह आवरणहीन होता है, अर्थात नंगा हो जाता है। कीचड़ उछलने के बाद राजनीति में व्यक्ति नंगे से भी दो कदम आगे होता है, अर्थात वह नंग हो जाता है। कहावत है, ''नंग बड़ा बादशाह से'' इस आर्ष-वचन से मैं इत्तिफाक रखता हूँ। जिस किसी विद्वान ने हितकारी इस सूत्र की स्थापना की है, उसे किसी राष्ट्रीय सम्मान से नवाजा जाना चाहिए। नंगपने के इसी मुलमंत्र के सहारे कई महानुभाव बादशाहत तक पहुंच चुके हैं। कीचड़ उछलने के बाद इज्जत पर कुछ दाग चिपके रह जाते हैं। किन्तु वे दाग शत्रु नहीं मित्र प्रवृत्ति के होते हैं! ऐसे दाग इज्जत पर सलमा-सितारों की तरह चमकते हैं! जिसकी इज्जत दागदार नहीं, राजनीति में वह व्यक्ति दमदार नहीं! दाग किसी डिटर्जेट से धोने की धूर्तता मत करना! पक्षताना पड़ेगा! अत: कीचड़ उछल रही है, उछलने दो। इज्जत दागदार हो रही है होने दो! जन-नायक का यथार्थ स्वरूप जन-जन के समक्ष व्यक्त होने दो! नाक कट भी जाए तो क्या गम है! जितनी बार कटेगी, हर बार सवा हाथ बढ़ेगी! नाक कट रही है, जन-नायक का हो रहा है, होने दो! लोकतंत्र सुदृढ़ हो रहा है, होने दो! कीचड़ उछल रही है उछलने दो! -----------------

1 comment:

  1. स्वागत है हिन्दी चिट्ठाजगत में. निरन्तर लेखन के लिये शुभकामनायें.

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