भोर भई, जनता जागी।
काश, जनता जागी होती!
सांझ होगी, जनता फिर सो जाएगी। शहर का नजारा देख जनता आश्चर्यचकित। यह क्या! गली-गली, नुक्कड़-नुक्कड़, चौराहे, तिराहे, दोराहे और हर मोड़ पर काले-चमकीले पत्थर, चस्पा। जब सोए थे, तब तलक तो सब सामान्य था। रात भर में यह कैसा चमत्कार, सारे शहर में पत्थर ही पत्थर। लोगों की उत्सुकता जागी।
काश लोगों की उत्सुकता जागी होती!
उन्होंने पत्थर पर खुदी इबारत बांची। पता चला मंत्री जी सड़कों पर, चौराहों पर, गली-मुहल्लों का शिलान्यास कर गए। अर्थात अपने शुभ नाम के पत्थर जड़ गए।
चूंकि पत्थर जड़ होते है, अत: शिलान्यास भी, इसलिए शिलान्यास के पत्थर जड़ दिए जाते हैं।
जनता फिर भौचक्का, एक साथ इतने पत्थर! किसी को पता भी न चला, अकेले, रात के अंधेरे में। किसने फेंके, ये पत्थर!
मुन्नालाल बोला, 'हां काले पत्थर काली रात में अकेले ही जड़े जाते हैं। मंत्री जी मूर्ख नहीं हैं, जो सोती जनता को जगाते। जनता विप्लवकारी है, मंत्री जी शांताकारी हैं। नेतातंत्र के लिए जनता का सोते रहना ही हितकारी है!'
काश! जनता विप्लवकारी होती!
पता चला, मंत्री जी न दिन में आए और न ही रात में। राजधानी में ही पत्थर इकट्ठा किए उन पर गंगा जल छिड़का और श्रद्धा के साथ शहर भिजवा दिए गए। श्रद्धा और श्राद्ध की दूरियां अर्थहीन होती हैं!
दूर से गर्द का एक गुबार जनता की तरफ बढ़ रहा था। लोगों ने देखा वह निरंतर उनकी तरफ आ रहा है। लोगों के बीच खुसर-फुसर हुई गुबार ने लोगों को घेर लिए। पता चला, यह विकास यात्रा के कारण उठा गुबार था। विकास गुबार की तरह ही उठता है और गुबार की तरह ही लुप्त हो जाता है।
विकास एक रथ पर सवार था। उसके साथ भीड़ थी। जिसे जनता नाम दिया जा रहा था, नेता जी की जनता। रथ पर सवार विकास ने शहर के लोगों की तरफ आश्वासन के पत्थर फेंकने शुरू किए।
जनता ने कहा हमें विकास का विकास नहीं, शहर का विकास चाहिए, जनता का विकास चाहिए। विकास रथ की लकीर पर चलने वाले लकीर के फकीरों ने शहर के लोगों के मुंह पर हाथ रख दिया। जनता ने जनता का मुंह बंद कर दिया। शहर की जनता खामोश हो गई।
काश! जनता खामोश न होती!
कुछ देर बाद शहर की तमाम सड़कों पर पत्थर ही पत्थर पड़े थे। वे सभी विकास के नाम पर विकास ही पर पड़े पत्थर थे। विकास जिस गुबार के साथ शहर में आया था, उसी गुबार के साथ अंतर्धान हो गया। बस अपने पीछे छोड़ गया कुछ शिलान्यास के, तो कुछ राह के पत्थर।
एक रथ का गुबार अंतर्धान हुआ, तो फिजा में दूसरे रथ का गुबार छा गया। शहर के लोगों ने गुबार से पूछा, 'भाई तुम्हारा ताल्लुक किस रथ से है।' गुबार ने जवाब दिया, 'मैं परिवर्तन रथ का गुबार हूं।'
हां, परिवर्तन विकसित रथ पर सवार था। उसके साथ भी उसकी अपनी जनता थी, शहर की जनता से बिलकुल भिन्न। रथ पर सवार परिवर्तन ने दूसरे रथ पर सवार विकास की तरफ परिवर्तन के पत्थर उछाले- 'परिवर्तन आना चाहिए, हम परिवर्तन लाएंगे।'
मुन्नालाल ने पूछा, 'नेता परिवर्तन अथवा व्यवस्था परिवर्तन?'
इसके साथ ही शहर के लोगों ने नारा दिया, 'हमें शक्ल नहीं व्यवस्था परिवर्तन चाहिए।' परिवर्तन रथ की जनता सक्रिय हुई और शहर के लोगों के मुंह पर ताले जड़ दिए। जनता ने जनता की आवाज फिर बंद कर दी।
काश! जनता बोलना सीख लेती!
गली-गली, नुक्कड़-नुक्कड़, चौराहे-चौराहे, तिराहे-तिराहे, दोराहे-दोराहे, हर जोड़ पर हर मोड़ पर पत्थर ही पत्थर। कहीं आश्वासनों के पत्थर तो कहीं आरोप-प्रत्यारोप के पत्थर।
काश! विकास की राह पथरीली न होती!
मुन्नालाल सोचने लगा, 'जब-जब चुनाव आते हैं, आखिर क्यों हम पाषाण युग में प्रवेश कर जाते हैं?'
मुन्नालाल ने अपनी जिज्ञासा आचार्य श्री के सम्मुख प्रस्तुत की। आचार्य श्री ने शंका निवारण किया, 'सुनो, वत्स! नेतातंत्र का यही सिद्धांत है। चुनाव के समय पानी-पानी नेता का हृदय चुनाव परिणाम के साथ ही जम जाता है। वह पत्थर दिल हो जाता है। चार साल पूरे होते हैं, चुनाव नजदीक आता है। नेता दिल हलका करने के लिए पत्थर फेंकना शुरू कर देता है। पत्थर किसी भी तरफ उछाले जाएं, गिरते जनता के ऊपर ही हैं।
..और, जनता! ..सीने पर पत्थर रखे-रखे जनता अहिल्या की गति को प्राप्त हो गई है। उद्धार के लिए एक अदद राम चाहिए।
काश! राम पुनः अवतरित हुआ होता!
संपर्क- 9868113044
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