Wednesday, April 23, 2008

बापू कैद में (व्यंग्य नाटक) - एक

दृश्य-एक
( दो अक्टूबर, प्रात: सात बजे, गांधी समाधि राजघाट। समाधि झाड़-पोंछ कर चमका दी गई है। समूचा राजघाट परिसर पुलिस कर्मियों से घिरा है। कुछ ही अंतराल के बाद लोगों का आना शुरू हो जाता है। प्रथम साजिंदों के साथ भजन गायकों की मंडली प्रार्थना सभा में प्रवेश करती है। बापू के प्रिय भजन ''वैष्णव जन तोरे कहिए..'' की स्वर लहरी हवा में गूंजने लगती है। पंक्तिबद्ध नेता समाधि की परिक्रमा करते हुए, गुलाब की पंखुड़ियां से बापू को पुष्पांजलि अर्पित कर रहे हैं। नेपथ्य से अट्टंहास के साथ आवाज गूंजती है)

आवाज : आहा हाऽऽऽ। देश के कर्णधारों, बापू के कथित भक्तों तुम किसे पुष्पांजलि अर्पित कर रहे हो? बापू तो यहां हैं ही नहीं, आहा ऽऽऽ..!
(चारों ओर भय का वातावरण उत्पन्न हो जाता है। नेताओं के चेहरों पर भय के चिह्न स्पष्ट नजर आने लगते हैं। सुरक्षा कर्मी घेरा और मजबूत करने में लग जाते हैं। रिवाल्वर ताने कुछ कमांडों आवाज की दिशा में बढ़ते हैं। आवाज अब पूर्व दिशा के स्थान पर उत्तर दिशा से आने लगती है)
आवाज :
...आहा हाऽऽऽ, मैं बिल्कुल ठीक कह रहा हूं। ..बापू यहां नहीं हैं। वह तो कैद हैं। ... तुम्हारी कैद में!
(फायर करने का आदेश हवा में गूंजता है और आवाज की दिशा में फायरिंग शुरू हो जाती है। चारों ओर अफरा-तफरी का माहौल उत्पन्न हो जाता है। फायर करते-करते सुरक्षाकर्मी उत्तर दिशा की ओर बढ़ते हैं और आवाज इस बार दक्षिण दिशा की ओर गूंजने लगती है)
आवाज : ...तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाओगे। व्यर्थ की कवायद बंद करो। ..तुम्हारा और तुम्हारे नेताओं का अहित करना मेरा उद्देश्य नहीं है। मैं तुम लोगों की तरह हिंसक प्रवृत्ति का नहीं हूं। ..मैं गांधी का सच्चा अनुयायी हूं। हिंसा मेरा धर्म नहीं है। अत: निश्चिंत हो जाओ और मेरी बात ध्यान से सुनो..।
(हाथ का संकेत कर गृहमंत्री गोली न चलाने के निर्देश देते हैं)
आवाज : ठीक बहुत ठीक वैसे भी तुम लोग अब मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाओगे, क्योंकि अब मैं आजाद हूं, देह-मुक्त हूं। (विराम) ..तुम्ही ने तो अपनी गोली से मुझे आजाद किया था। ..हां-हां, मुझे आजाद किया था और बापू को कैद!
(कुछ देर रुकने के बाद) हां मैं ठीक कह रहा हूं, बापू तुम्हारी ही कैद में हैं। ..तुम्ही ने उन्हें कैद कर रखा है और तुम्ही बापू की समाधि पर..! (बल देते हुए) हां-हां-हां! आत्मविहीन समाधि पर पुष्पांजलि अर्पित कर रहे हो। है, ना मजाक। .. तुम नेता ही नहीं अव्वल दर्जे के अभिनेता भी हो। जाओ पहले बापू को आजाद करो और फिर आना उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने।
(क्षण भर रुकने के बाद, अट्टहास का स्थान सिसकियां ले लेती हैं और रुंधे गले से वही आवाज पुन: आती है) ...नहीं-नहीं, तुम बापू को कभी आजाद नहीं करोगे, क्योंकि तुम में इतना साहस ही नहीं है। ..तुम डरपोक हो। तुम जानते हो, बापू यदि आजाद हो गए तो देश में क्रांति आ जाएगी और तुम्हारी दुकानदारी बंद हो जाएगी। (रुदन बंद और पुन: अट्टहास) जाओ ..अपने-अपने घर लौट जाओ, नाटक बंद करो। सिंहासन तुम्हारी प्रतीक्षा में है। बापू जब तक कैद हैं, तब तक तुम्हारा सिंहासन अटल है। ..क्यों गृहमंत्री जी ठीक कहा न मैने। मैं भी जा रहा हूं, तुम भी लौट जाओ।
(धीरे-धीरे राजघाट परिसर खाली हो जाता है)
दृश्य-दो
(करुणा और क्रोध की मिश्रित आवाज के साथ पर्दा उठता है और मंच के कोने में छाया प्रकट होती है। ऊपर से नीचे तक सफेद लबादे से ढकी है। फ्लैश लाइट उस पर केंद्रित हो जाती है)
छाया (करुण आवाज में रुक-रुक कर) : मैं मुन्नालाल हूं, मुन्नालाल की रूह! इस नाटक का सूत्रधार! पूज्य बापू की समाधि राजघाट पर मेरी ही आवाज गूंज रही थी। मेरा उद्देश्य आतंक फैलाना कतई नहीं था। ...मैं बापू का सच्चा अनुयायी हूं। हिंसा मेरा धर्म नहीं है। ..हां, मेरी आवाज के साथ राजघाट पर आतंक अवश्य व्याप्त हो गया था, मगर इसमें मेरा क्या दोष? (क्षणिक विराम, आंसू पोंछते हुए, दृढ़ता के साथ) ..हां-हां, आतंक फैलाना मेरा उद्देश्य नहीं था। राजघाट पर जमा कर्णधार मुझ से नहीं अपने कर्मो के कारण आतंकित थे। ..पोल खुल जाने के भय से भयभीत थे। मैं तो केवल हकीकत बयान कर रहा था। देश के कर्णधार और बापू के कथित भक्तों को उन्हीं की हकीकत से परिचित करा रहा था..।
(आवाज पुन: सिसकियों में बदल जाती है, गर्दन झुक जाती है। अपने आप को संयत कर पुन: दर्शकों की तरफ मुखातिब होते हुए)
...हां, मैं हकीकत बयान कर रहा था। जिन लोगों ने अपने स्वार्थ की खातिर बापू को कैद कर रखा है, वे ही समाधि पर बापू को पुष्पांजलि अर्पित करें! ...यह कोरा नाटक नहीं तो और क्या है? पुष्पांजलि अर्पित करने का उन्हें अधिकार क्या है, उसका औचित्य क्या है? ..उनके इसी कुकृत्य का पर्दाफाश करना मेरा उद्देश्य था। ...हां-हां, मेरा विश्वास करो बापू कैद में हैं, उन्हीं की कैद में। मेरी हत्या भी देश के इन्हीं कर्णधारों के आदेश पर की गई थी, क्योंकि मैं बापू के साथ था और उस पूरे कृत्य का चश्मदीद गवाह था।
(कुछ देर रुकने के बाद अपने आप को संयत कर पुन: धीरे-धीरे बोलना शुरू करता है) ...अब मैं आपकी अदालत में आया हूं। बापू को कैद करने की कहानी सुनाने और आपका फैसला सुनने, ..क्या उन्हें बापू की समाधि पर पुष्पांजलि अर्पित करने का अधिकार है?' ..फैसला आपके हाथ है। लो, सुनो कहानी।
(छाया अंतरध्यान हो जाती है और प्रकाश मंच के मध्य केंद्रित होने लगता है)
दृश्य तीन
(तीस जनवरी, प्रात: चार बजे, गांधी समाधि वातावारण शांत है, मगर रह-रह कर चिड़ियों का चह-चहाना और थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद पहरे पर तैनात सिपाही के बूटों की आवाज शांति भंग कर रही है। राजघाट के मुख्य द्वार पर ताला लगा है। उसके पास ही एक सिपाही कुर्सी पर बैठा ऊंघ रहा है और एक अन्य सिपाही उनींदी निगाहों के साथ पहरा दे रहा है। बापू का शिष्य मुन्नालाल साधारण कुर्ता-पायजामा पहने और ठंड से बचने के लिए ऊपर से शाल लपेटे हुए है। पहरेदारों की आंखों से बचता-बचाता दबे पांव राजघाट परिसर में घुसने की जगह तलाश रहा है। सिपाही की निगाह से बचने के लिए वह कभी झाड़ियों की ओट लेता है तो कभी आंखों ही आंखों में चारदीवारी की ऊंचाई नापता है। पहरे पर तैनात सिपाही गश्त लगाने के लिए दूसरी दिशा में कदम बढ़ाता है और मौका पाकर मुन्नालाल चार-दीवारी लांघ दबे पांव बापू समाधि के नजदीक पहुंच जाता है। भयभीत मुन्नालाल पुन: चारों तरफ निगाह दौड़ाता है और आश्वस्त हो कर घुटनों के बल उकडू बैठ कर, मुंह के दोनो तरफ हथेलियों की ओट कर धीरे-धीरे बापू को आवाज लगाता है।)
मुन्नालाल : बापू-ओ-बापू। ..अरे ओऽऽऽ बापू!
मुन्नालाल (पूर्व स्थिति में पुन: धीरे से मगर शब्दों को खींचकर) : बापू-ओ-बापू। ..कुछ बोलता क्यों नहीं, बापू। ..अरे, अभी तक सोया है, बापूऽऽऽ! भोर हो गई, जाग। (गुनगुनाते हुए) उठ जाग मुसाफिर भोर भई ..अब रैन कहां जो सोवत है
(समाधि के अंदर एक कोने में रखा दीपक धीमा-धीमा प्रकाश बिखेर रहा है। जमीन पर एक बिस्तर लगा है। जिस पर बापू लेटे हुए हैं। उनके सिरहाने एक लाठी, लाठी के पास ही पानी से भरा तांबे का एक लोटा और गोल तकिए के पास जेब घड़ी रखी है। शय्या के समीप ही बापू का चरखा रखा है। पास ही एक कोने में खड़ी बापू की बकरी चारा चबा रही है। मुन्नालाल की आवाज सुन बापू दांए-बांए करवट बदलते हैं। खकारते हैं, आंखों पर धीरे-धीरे हथेली रगड़ते हैं और उसके बाद अस्त-व्यस्त धोती संवारते हुए इधर-उधर देख लाठी पर हाथ रख कर खड़े होने का प्रयास करते हैं, मगर खड़े नहीं हो पाते)
बापू (कांपती आवाज में) : हे राम-हे राम-हे राम, ..रघुपति राघव राजा राम। ..पतित पावन ..कौन है, भाई! सुबह-सुबह क्यों आ जगाया..।
मुन्नालाल (पुराने अंदाज में) :। ...मैंऽऽऽ, मैं मुन्नालाल, बापू!
बापू (आश्चर्य से) : अरेऽऽऽ! तू! ॥सुबह ही सुबह?
मुन्नालाल (धीरे से) : हांऽऽऽ! बापू मैं ही।
बापू (जिज्ञासा भाव से) : ...खैरियत तो है ना?
मुन्नालाल : हां, सब कुशल है, बापू।
बापू (आश्चर्य से) : फिर...?
मुन्नालाल (सहज भाव से) : आज तीस जनवरी है न, बापू।
बापू (झुंझलाते हुए) : तीस जनवरी, तो फिर? ...यह तो हर वर्ष आती है?
मुन्नालाल (सहमी सी आवाज में) : तेरी पुण्य तिथि है न बापू।
बापू (आश्चर्य से) : पुण्य तिथि! ...कैसा पुण्य ...कौन सी तिथि?
मुन्नालाल (बापू के ही अंदाज में) : अरे, बापू! ..वही तीस जनवरी, गौड़से ने जिस दिन तेरी हत्या की थी!
बापू (मुसकराते हुए) : अवश्य, अवश्य! पुण्य कार्य तो था ही। ..पुण्य कार्य था, इसलिए पुण्य तिथि भी..। (विराम के उपरांत मुसकराते हुए) अच्छाऽऽऽ! .. अब समझा, मेरी मृत्यु-तिथि को मेरे देशवासी पुण्य मानते हैं, फिर मेरी जन्म तिथि ..पाप तिथि?
मुन्नालाल (व्यंग्य भाव से) : अभी से ऐसा क्यों सोचता है, रे बापू!
बापू (क्रोध के क्रत्रिम भाव से) : ...बे-मतलब की बात! .. जगा तो ऐसे दिया, मानों किसी दाण्डी यात्रा के लिए मेरी फिर आवश्यकता आन पड़ी हो!
मुन्नालाल (व्यंग्य भाव से) : दाण्डी यात्रा के लिए अब तेरी क्या आवश्यकता बापू। ऐसी-वैसी समस्या सुलझाने के लिए तो तेरी लाठी ही काफी है।
बापू (झुंझलाते हुए) : ...तो फिर..?
मुन्नालाल (खुशामदी लहजे में सिर में खुजलाते हुए) : बस, बापू इच्छा हुई।मैंने सोचा दिन निकलते-निकलते तो तुझे तेरे भक्त आ घेरेंगे। यही वक्त था, अकेले में तन-मन की दो बातें करने का, सो सुबह-सुबह चला आया।
बापू (दया भाव से) : आऽजा-आऽजा, अंदर आजा। लोकतंत्र के किसी पहरेदार ने देख लिया तो तुझे-मुझे दोनों को अंदर कर देगा। (मुसकराते हुए) कोई जमानती भी नहीं मिलेगा।
(जारी...)
संपर्क ः 9868113044

2 comments:

  1. काश! यह केवल नाटक होता। सत्य नही‍।

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  2. बापू तो यहां हैं ही नहीं, आहा ऽऽऽ..!
    ...तो क्या करिएगा, सब बापू का ही तो किया-धरा है!मर्सिया पढ़ि-पढ़ि जग मुआ...

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