Sunday, December 7, 2008



मुंबई बम हादसे में हुए शहीदों के नाम
एक ग़ज़ल -
ये सियासत का कैसा मंजर है।
चश्म-दर-चश्म इक समुंदर है।।
बात करते हैं' क्यों वो मजहब की?
उनके' हाथों में' जबकि ख़ंजर है।।
रोटियों के लिए, बमों की आग।
लकडि़यां, आदमी का पंजर है।।
फ़स्ल कैसे उगे, हि़फाजत की?
रहबरों के दिमाग़, बंजर हैं।।
मौत के मंजरों पे गुटबाजी।
इस वतन का अजब मु़कद्दर है।।
जा-ब-जा ढूँढ़ते हो तुम जिसको।
वो गुनहगार घर के' अन्दर है।।
सब्र का इम्तिहां न लो 'अंबर'।
सब्र का टूटना न बेहतर है
***

5 comments:

  1. फ़स्ल कैसे उगे, हि़फाजत की?
    रहबरों के दिमाग़, बंजर हैं।।
    बहुत सही कहा आपने इसे दिल को छूती गज़ल में।

    ReplyDelete
  2. अंबर साहब खूब कही। पर कुछ शेर बहर से खारिज हैं। बेहतर के साथ समंदर नहीं चल सकता है। बहादुर शाह जफर को मैंने सिखाया है। आप उनकी लाइब्रेरी से मेरी किताब रेफर कर सकते हैं।
    उस्ताद जौक

    ReplyDelete
  3. जा-ब-जा ढूँढ़ते हो तुम जिसको।
    वो गुनहगार घर के' अन्दर है।।
    khubsurat jazbat,saheedo ki yad-main

    ReplyDelete
  4. दुनिया बिना तुक की, तुर्की-ब-तुर्की आपने खासी तुक मिलाई. खंजर, बंजर, सब अच्छा है...वैसे, आगे नेताओं को बंदर भी कहिए।

    ReplyDelete
  5. आज के यथार्छ पर बहुत ही उम्दा गज़ल । आपको बहुत बधाई ।

    ReplyDelete