Monday, October 22, 2007

विजयदशमी पर भी राम उदास !



लंकेश और उसके बंधु-बंधवों के पुतले धू-धू कर जल रहे हैं। असत्य पर सत्य की विजय, बुराइयों पर अच्छाई की विजय और राम-नाम के जयघोष से चारों दिशाएं गूंज रही हैं। मंच के एक कोने में लक्ष्मण के साथ राम उदास बैठे हैं। लक्ष्मण आश्चर्य व्यक्त करते हुए भ्राता राम से प्रश्न करते हैं, ''भ्राता! लंकेश पर विजय प्राप्त करने के उपरांत भी यह उदासी! उदासी का कारण, भगवन?'' राम ने हताश नजरों से लक्ष्मण को निहारा और बोले, ''कब तक जारी रहेगा यह नाटक? लंकेश को जितनी बार जलाया, वह उतनी ही बार वह अधिक शक्तिशाली रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत हुआ। कभी-कभी मुझे लगता है कि विजयी हम नहीं, लंकेश हुआ है और हमारे भक्त प्रति वर्ष उसकी विजय का ही पर्व मनाते हैं। भ्राता लक्ष्मण यही मेरी उदासी का कारण है।''
श्रीराम और भ्राता लक्ष्मण के मध्य वार्ता चल ही रही थी, तभी लंकेश के पुतले से निकलते धुएं से अट्टहास की गूंजा सुनाई दी। राम-लक्ष्मण सहित सभी के आंख-कान उस ओर केंद्रित हो गए। एक क्षण के उपरांत लंकेश की आत्मा श्रीराम के सम्मुख उपस्थित थी। लंकेश ने श्रीराम को प्रणाम किया, लक्ष्मण को आशीर्वाद दिया और तत्पश्चात बोला, ''हे, अयोध्या पति राम! आपकी पीड़ा सार्थक है, किंतु उसके कारण आप और आपके भक्त स्वयं ही तो हैं। ..हे,राम! आत्मा अमर है। यह आप ही के द्वारा स्थापित सिद्धांत है! ..राम, आत्मा अमर है तो फिर आप मेरा अस्तित्व कैसे समाप्त कर सकते हो?'' लंकेश मुस्करा कर बोला, ''भगवन! वर्तमान नेताओं के समान, क्या आप भी अपने सिद्धांत की हत्या स्वयं ही करने की इच्छा रखते हो।''
लंकेश ने दया-भाव के साथ श्रीराम की ओर निहारा और फिर उसी भाव के साथ बोला, ''श्रद्धेय, राम! मैं कंचन-लंका का सम्राट हूं। जितनी बार जलाओगे उतनी ही बार कंचन के समान निखर कर आपके समक्ष उपस्थित हो जाऊंगा। देख नहीं रहे हो, श्रद्धेय राम! मेरा साम्राज्य अब लंका तक ही सीमित नहीं है! आपके आर्यावृत्त में भी मेरी ही टकसाल की स्वर्ण-मुद्राएं चलती हैं। चारों ओर राक्षस-संस्कृति का ही तो आधिपत्य है। आपका साम्राज्य सत्य और ईमानदारी के समान सीमित होता जा रहा है। असत्य और बेईमानी के समान मेरे साम्राज्य का विस्तार हो रहा है! .. इसके लिए मैं लंकेश नहीं, आप और आपके भक्त उत्तरदायी हैं, राम!'' भाव विह्वल हो कर लंकेश ने कहा, ''श्रद्धेय! त्रेता में भी आप मेरे लिए श्रद्धा के पत्र थे और आज भी पूजनीय हैं। आपके द्वारा मृत्यु प्राप्त कर मैं मुक्ति की इच्छा रखता था और अपने उद्देश्य में सफल भी हो गया था! किंतु, श्रद्धेय! मैं बार-बार पुनर्जीवित होता रहूं, यही आपके भक्तों के हित में है, अत: वे मुझे मुक्त नहीं होने देना चाहते!''
राम ने प्रथम लक्ष्मण को निहारा। लक्ष्मण मौन थे। इसके उपरांत निरीह भाव से उन्होंने लंकेश की ओर निहारा। लंकेश का मुख-मण्डल तेज, गौरव और गरिमा सहित सभी अलंकारों से सुसज्जित पाया। राम ने गर्दन झुकाई और मौन रह गए।
श्रीराम की ऐसी स्थिति देख लंकेश की विह्वलता में वृद्धि हो गई। उसके नेत्रों में खारा पानी छलक आया। नम आंखें पोंछते हुए वह बोला, ''नहीं-नहीं, श्रद्धेय! ..नहीं! आपका यह स्वरूप मेरे लिए असहनीय है, वेदना कारक है, राम! मैं आपकी त्रेता-युगीन-छवि के ही दर्शन करने की इच्छा रखता हूं।'' लंकेश ने अपने संवेगों पर नियंत्रण किया और बोला, ''श्रद्धेय! मेरा अस्तित्व किसी जर्जर ढांचे से नहीं जुड़ा है। मेरेअस्तित्व पर कभी कल्पना अथवा यथार्थ का प्रश्न-चिहन् भी नहीं लगा और न ही मेरी गरिमा पत्थरों से निर्मित किसी सेतु के आश्रय है। यह लंकेश का अहम् नहीं यथार्थ है!''
इतना कहने के उपरांत लंकेश ने वाणी को क्षणिक विराम दिया और तत्पश्चात बोला, ''श्रद्धेय! आपके भक्तों ने आपके अस्तित्व आपकी गरिमा को कितना सीमित कर दिया है, कितना निर्बल कर दिया है, सुन कर दुख होता है! ..आपके सर्वव्यापी अस्तित्व को जर्जर एक ढांचे के साथ संयुक्त कर दिया है। आपके व्यक्तित्व को मृत्यु-लोक के एक निर्बल शहंशाह के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया है, आपके भक्तों ने। ..जो राम रोम-रोम में व्याप्त है, एक साधारण ढांचे से उसके अस्तित्व को संबद्ध करना कितना हास्यास्पद सा लगता है! .. किसी जीवित व्यक्ति को यदि कोई मृत घोषित कर दे, तो क्या वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा, नहीं ना श्रद्धेय! फिर त्रुटिवश भी यदि किसी ने काल्पनिक कह कर आपके अस्तित्व को चुनौती देने की चेष्टा की तो भक्तों ने हाहाकार मचा दिया! आपका अस्तित्व जल में उत्पन्न बुलबुला तो नहीं कि हवा के साथ समाप्त हो जाए। ..जो राम कल्पनातीत है, उसके संबंध में कल्पना और यथार्थ जैसे सांसारिक प्रश्नों का औचित्य क्या?'' वाणी को विराम देकर लंकेश पुन: पूर्व भाव से बोला, ''हे, मर्यादा पुरुषोत्तम राम! लंका और आर्यवृत्त के मध्य आदर्श और मर्यादा के जिस सेतु का आपने निर्माण किया था, उसे भुलाकर भक्तों ने तेरी गरिमा एक तुच्छ सेतु से संबद्ध कर दी। जिस मर्यादा पुरुषोत्तम की गरिमा के प्रकाश से यह सृष्टिं प्रकाशित है, उसकी गरिमा का किसी सेतु से संबद्ध करने का औचित्य क्या?''
अंत में लंकेश बोला, ''श्रद्धेय! आपकी पीड़ा आपके ही भक्तों द्वारा जनित है और मेरा चिर-अस्तित्व भी उन्हीं भक्तों द्वारा प्रदत्त वरदान है। अत: मुझसे नहीं कलियुग के इस प्रपंच और प्रपंचकारियों से मुक्ति प्राप्त करने का उपाय सोचो, भगवन! आप मुक्त हो जाओगे, तो मैं स्वमेव मुक्त हो जाऊंगा।'' इतना कह कर लंकेश आंसू पोंछता-पोंछता पुतलों से उठते धुएं में पुन: विलीन हो गया।

Friday, October 19, 2007

नेता का जमीन से जुड़ना


वर्षो बीत गए बुधवा को दरी बिछाते-बिछाते। कई नेताओं की दरी उसने सफलता पूर्वक बिछाई, मगर खुद की दरी बण्डल ही बनी रखी रही। जब कभी उसे अपनी बंडल-किस्मत का खयाल आता, चेहरा सड़ी तोरई की तरह लटका जाता। किसी के हाथ में चुनावी टिकट देखता तो स्वयं को बैरंग-लिफाफे की तरह महसूस करने लगता। बावजूद इसके फटे पोस्टर की तरह वह पार्टी कार्यालय की दीवार पर चिपका रहा। शायद इसी उम्मीद के साथ कि देर-सबेर किसी भले नेता की निगाह पोस्टर पर भी पड़ेगी और उस पर लिखी इबारत पढ़ी जाएगी। कभी-कभी वह सोचता, यदाकदा ही सही, जब अंधों के हाथ भी बटेर लग ही जाती है, अपन तो नैनसुख हैं। आज नहीं तो कल, कोई बटेर अवश्य ही मेरी हथेली पर मजमा लगाएगी।
जहन में नेताई कीड़ा कुलबुलाने का वाकया भी कम दिलचस्प नहीं है। पार्टी-कार्यकत्र्ताओं की बैठक में उसने एक बार सुन लिया था कि जमीन से जुड़ा व्यक्ति ही नेता बन पाता है और सफल भी वही होता है। नेताई इस फार्मूले ने एक दिन बुधवा की अक्ल की खिड़की पर दस्तक दी और दरी बिछाते-बिछाते बुधवा के ऊपर बुद्धिजीवी भूत हावी हो गया। उसने ठोढ़ी दाई हथेली पर टिकाई, मैल-संपन्न आंखें बंद की और अतीत खंगालने में मशगूल हो गया, ''मां कहती थी की तेरे होने के समय प्रसव-कर्म खेत के किनारे जमीन पर ही संपन्न हुआ था। पालना और पोटी-पॉट के लिए भी जमीन का ही सदुपयोग किया गया। कुछ बड़ा हुआ तो बिछावन भी जमीन पर ही बिछा। राजनीतिक की शुरुआत मैंने दरी बिछाने से की! अरे, वाह! मेरा तो अतीत, वर्तमान सभी जमीन से जुड़ा है। मैं तो पैदाइशी जमीन से चिपका हूं।'' इस प्रकार वह बुधवा से नेता बुद्धप्रकाश सिंह बनने के ख्वाब देखने लगा।
वह दरी बिछाता रहा, ख्वाब देखता रहा। बिहारी की विरहिणी नायिका के बसंत की तरह कई चुनाव आए और चले गए, मगर गले में पुष्प-हार पड़ने के आसार नहीं पैदा हुए। अलबत्ता एक दिन दरी झाड़ते-झाड़ते उसके हाथ कार्यकत्र्ता का बिल्ला अवश्य लग गया। बिल्ला पाकर वह कुछ इस अंदाज में प्रसन्न हुआ, जैसे साठ वर्षीय किसी जवान को चने के खेत में प्रेमवती प्राप्त गई हो। बुधवा ने बिल्ला अपने सीने पर जड़ लिया और वह स्वयं को पार्टी कार्यकर्ता मानने लगा। पर नेता न बन पाया। शहर में एक दिन स्वामी अवधूतानन्द का आगमन हुआ। उसके एक शुभचिंतक ने उसे स्वामीजी की शरण में जाने की सलाह दी। स्वामीजी और राजनीति के मध्य गोबर में गुबरीले वाले घनिष्ठ संबंध थे। बुधवा ने सलाह का अनुसरण किया और वह स्वामी शरणम् गच्छामि हो गया।

बुधवा स्वामीजी के समक्ष चारों-खाने ऐसे चित हुआ, मानों वह जमीन से चिपक कर जमीन से जुड़े होने का सबूत पेश करा रहा हो। दण्डवत् भक्ति से द्रवित स्वामीजी बोले - कहो भक्त क्या कष्ट है? बुधवा ने अपना कष्ट उनके सामने उड़ेल दिया। कष्ट सुनकर स्वामीजी बोले- पुत्र नेता बनना है, तो जमीन से जुड़ जाओ। बुधवा ने जन्मजात जुडे़ होने के सारे सबूत स्वामीजी के समक्ष प्रकट कर दिए। सबूत सुनकर स्वामीजी मुस्कराते हुए बोले- पुत्र! जमीन तुम्हारी हकीकत बन गई है, परंतु तुम जमीनी हकीकत के ज्ञान से वंचित हो। जमीन के साथ तुम्हारे वैसे ही संबंध है, जैसे लक्ष्मी के साथ उल्लू के। उल्लू दिन-रात लक्ष्मी ढोता है, पर उसका उपभोग नहीं करता। यही कारण है कि उल्लू आजतक उल्लू है, लक्ष्मीपति नहीं बन पाया। जमीनी हकीकत का भान करो, एक दिन अवश्य नेता बन जाओगे।
स्वामीजी से मंत्र प्राप्त कर बुधवा ने जमीन पर पकड़ और मजबूत कर ली, फिर भी बुधवा के सामने किसी ने घास नहीं डाली। गधों के आगे घास डालने के उदाहरण कम ही मिलते हैं। मिलते भी हैं तो सूखी घास डालने। निराश बुधवा पुन: स्वामीजी की शरण में गया, व्यथा सुनाई। व्यथा सुन स्वामीजी को उसकी बुद्धि पर तरस आया और गंभीर भाव से बोले- पुत्र! जमीनी हकीकत से तुम अभी भी अनभिज्ञ हो। ध्यान से सुनों- पुत्र! भगवान वामन अवतार ने ढाई पग में संपूर्ण पृथ्वी नाप ली थी। तुम एक इंच जमीन भी नहीं नाप पाए। अपने पग का विस्तार करो, पुत्र।
जमीनी हकीकत का रहस्य अब बुधवा के जहन में गीली मिट्टी में खूंटे की तरह धंस गया था। उसने ढाई पग से पहले ग्रामसभा की जमीन नापी। उसके बाद ढाई पग का विस्तार होता चला गया। वह सरकारी-गैरसरकारी जमीन नापता रहा। आज वह नेता बुधप्रकाश सिंह के नाम से प्रसिद्ध है। प्रदेश का शहरी विकास मंत्री है। अब वह नेता भी है, भूपति भी है और लक्ष्मी-पति भी।

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Thursday, October 18, 2007

डॉन संस्कृति- सार्वभौम संस्कृति!


मित्र मुन्नालाल के साथ सुबह सैर पर निकला था। तभी लंबी-लंबी गाड़ियों का लंबा काफिल धूल उड़ाता वहां से गुजरा। देख उसे हमारी बुद्धि करने लगी मुजरा। हमने जिज्ञासा व्यक्त की मित्र मुन्नालाल, यह कौन सज्जन हमारे मुंह पर खाक डाल गया। हमें सुपुर्दे खाक कर गया? मुन्नालाल बोला, डॉन।

मैने पूछा, बिग बी या किंग खान? मुन्नालाल बोला, डॉन, डॉन के मध्य अंतर कैसा? केवल डॉन, न बिग बी न किंग खान, बस रीयल डॉन।
इतना सुनते ही मेरी वेदना, संवेदना अर्थात संपूर्ण चेतना डॉन नामक जीव पर केंद्रित हो गई। डॉन के उद्भव, विकास और समाज के लिए उसकी उपयोगिता से संबद्ध प्रश्न मेरे जहन में न्यूज चैनल की हैड लाइन की तरह एक-एक कर टपकने लगे।
हमारी जिज्ञासा भांप मुन्नालाल बोला, मजबूरी का नाम महात्मा गांधी और ताकत का नाम डॉन। जिस प्रकर धातुओं के विकल्प के रूप में प्लास्टिक का उद्भव हुआ, उसी प्रकार नेताओं के विकल्प के रूप में डॉन का विकास हुआ। प्लास्टिक की तरह डॉन भी अग्नि, जल, पावक तीनों से अप्रभावित है। जल में वह गलता नहीं है, इसलिए चुल्लू भर पानी भी उसके लिए निरर्थक है। अग्नि में भस्म नहीं होता, इसलिए प्रत्येक ताप-संताप में वह समान भाव रखता है। वायु भी उसके रासायनिक गुणों में परिवर्तन करने में असमर्थ है, क्योंकि वह हमेशा ही अपनी हवा में रहता है। वह मृत्युंजय है। वह मरता नहीं, केवल रूप परिवर्तन करता है।
हमने पूछा, डॉन के उद्भव-विकास का इतिहास क्या है? मुन्नालाल बोला, प्लास्टिक पेट्रोलियम पदार्थ से प्राप्त अंतिम तत्व है और डॉन समाज का सार-तत्व। हमने पूछा, इसका मतलब समाज का प्रथम व्यक्ति? हमारी जिज्ञासा पर मुन्नालाल ने आश्चर्य व्यक्त किया, प्रथम व्यक्ति! बोला, न प्रथम, न द्वितीय, न तृतीय और न ही अंतिम व्यक्ति! डॉन व्यक्ति वाचक संज्ञा से परिभाषित नहीं होते हैं, व्यक्ति उनसे परिभाषित होते हैं, उनसे प्रभावित होते हैं। हमने जिज्ञासा व्यक्त की तो क्या यह कोई नया उत्पाद है? मुन्नालाल बोला, नहीं, परंपरागत वाद है। आदि काल में कबीले का मुखिया कहलाता था। राजशाही का जन्म हुआ तो राजा कहलाने लगा। लोकतंत्र आया तो नेता कहलाया जाने लगा। नेताओं का परिष्कृत स्वरूप है, डॉन।
प्लास्टिक की तरह डॉन की दखल भी हमारे जीवन में प्रसूति गृह से लेकर शमशान घाट तक समान है। राजनीति में डॉन, आर्थिक क्षेत्र में डॉन, शिक्षा के क्षेत्र में डॉन, धर्म के क्षेत्र में डॉन, समाज सेवा के क्षेत्र में डॉन, सर्वव्यापी है डॉन, न जाने किस भेष में बाबा मिल जाए डॉन रे। मैने कहा फिर तो लोकतंत्र का पाँचवां स्तंभ हुआ डॉन! मुन्नालाल बोला, नहीं! लोकतंत्र का ऊर्जा स्तंभ। उसने स्पष्ट किया, लोकतंत्र के स्तंभ निर्धारित क्षेत्र में ही लोकतंत्र को ऊर्जा प्रदान कर रहे हैं। डॉन समूचे लोकतंत्र को एक मुश्त ऊर्जा प्रदान कर रहा है। डॉन को राजनीति का प्रकाश पुंज भी कहा जा सकता है, क्योंकि उसके प्रकाश में ही राजनीति अपनी मंजिल तलाश रही है, दिशा निर्धारित कर रही है। दशा का आकलन कर रही है।
सभी क्षेत्रों के अलग-अलग डॉन, फिर भी॥? मुन्नालाल बोला, कहा न डॉन व्यक्ति नहीं समष्टिं है, विविधता में एकता की संस्कृति है। न पूरब, न पश्चिम का भेद, न वामपंथी न दक्षिण पंथी, सार्वभौमिक संस्कृति है, डॉन। अरे रे रे, समझ गया, माफिया का दूसरा नाम है, डॉन! मुन्नालाल ने भूल सुधार की, नहीं-नहीं, माफिया संस्कृति का परिष्कृत स्वरूप है, डॉन। इस प्रकार मित्र मुन्नालाल ने हमें डॉन के विराट स्वरूप के दर्शन कराए। हमने मन ही मन डॉन को प्रणाम किया और सुरक्षित घर लौट आए।
संपर्क : 9868113044

Wednesday, October 17, 2007

केकड़ा संस्कृति



आज आपको एक कहानी सुनाता हूं। कहानी गूढ़ है, मगर नेताई चरित्र की तरह उलझी हुई नहीं। कहानी को हम रहस्यवादी भी कह सकते हैं, मगर उसका रहस्य राजनीति की तरह अगम-अगोचर नहीं है, क्योंकि यह आपके चारों तरफ की कहानी है, परीलोक या परलोक की नहीं इसी मिथ्या संसार की कहानी है। इसी समाज से जुड़ी कहानी है, लोकतंत्र की कहानी है। वैयक्तिक स्वतंत्रता की कहानी है। घर-घर की कहानी है, सास-बहू की कहानी है, आपकी अपनी कहानी है। हम सभी इस कहानी के पात्र हैं। कुछ पीड़ित पात्र हैं, कुछ पीड़ादायक अर्थात पीड़ा-कारक पात्र हैं।
लो सुनो कहानी- चीन ने भारत से केकड़े आयात किए। केकड़े कंटेनर में भर जहाज में लाद दिए गए। मंजिल की और रवाना होने से पूर्व चीनी-कप्तान ने जहाज का निरीक्षण किया और फिर जोर से चिल्लाया, 'अरे, मूर्खो! जहाज रवाना होने वाला है और केकड़ों से भरे सभी कंटेनरों के ढक्कन खुले पड़े हैं। क्या मूर्खता है, बंद करों इन्हें। ढक्कन खुले रहे तो सभी केकड़े कंटेनरों से बाहर निकल कर समुद्र में चले जाएंगे।'
कप्तान की बात सुन उसका सहायक मुस्कराया और फिर विनम्र भाव से बोला, 'हुजूर यह चिंता का विषय नहीं है, ढक्कन बंद करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। भारतीय केकडे़ हैं, कहीं नहीं जाएंगे।'
सहायक का रहस्यमय कथन कप्तान को मूर्खतापूर्ण लगा। परंपरा भी है, जब कभी कोई रहस्य अनसुलझा रह जाता है, तो उसे मूर्खता के खाते में डाल कर खाता बंद कर दिया जाता है। कप्तान पुन: चिल्लाया, 'मूर्खतापूर्ण बातें बंद कर, आदेश का पालन करो।'
सहायक फिर मुस्कराया और कप्तान से कंटेनरों के अंदर झांकने के लिए प्रार्थना की। कप्तान ने एक-एक कंटेनर में झांकना शुरू किया और अंदर का दृश्य देख आश्चर्यचकित रह गया। सभी केकड़े एक दूसरे के साथ उलझे हुए थे। जो भी केकड़ा कंटेनर से बाहर निकलने का प्रयास करता दूसरा केकड़ा टांग खींच उसे नीचे गिरा देता। रहस्य-रोमांच से भरपूर उस दृश्य को देख कप्तान ने आश्चर्य-भाव के साथ सहायक से पूछा, 'यह सब क्या है?'
रहस्यमयी पहली सुलझाते हुए सहायक बोला, 'हुजूर इसे केकड़ा संस्कृति कहते हैं। मैने कहा था ना, ये भारतीय केकड़े हैं, एक दूसरे को बाहर नहीं निकलने देंगे। भारतीयों को अपनी सांस्कृतिक परंपराओं से बहुत लगाव होता है, उसका सहज त्याग नहीं करते।'
कहानी समझ आई, ना। यह कहानी न केवल एटमी-डील के हश्र की है! अपितु समूची भारतीय राजनीति की है। आपके चारो-तरफ की आपकी अपनी कहानी। महसूस कर रहे हो ना, किसी न किसी रूप में हम सभी इस कहानी के एक पात्र हैं। कंटेनर से बाहर निकल मैं खुली हवा में सांस ले सकूं अथवा नहीं, पड़ोसी कंटेनर से बाहर नहीं जाना चाहिए। मेरे सपने साकार हों न हों, लेकिन दूसरों के सपनों में पलीता लगना जरूरी है। संपर्क : 9868113044---

Tuesday, October 16, 2007

गधे को बाप बनाना



रबुपुरा गांव की पैंठ में रह-रह कर यह आवाज आज भी सुनाई पड़ती है, 'रबुपुरा की पैंठ में मैं किसका फूफा री, रबुपुरा की पैंठ में मैं किसका फूफा री।' आवाज उस वृद्ध की है, फूफा-फूफा कहकर एक युवती जिसका शिकार कर फरार हो गई थी। हाथ में हांड़ी लेकर युवती उसके पास आई और बोली फूफा सौ रुपए उधार दे दे बदले में घी से भरी यह हांड़ी अपने पास रख ले। मैं अभी आई दूसरे दुकानदार का हिसाब चुकता कर आऊं। तेरे रुपये दे जाऊंगी, अपनी हांड़ी ले जाऊंगी। हांड़ी के मुंह पर जमी घी की पर्त धीरे-धीरे पिघलती गई और उसी रफ्तार से उसके नीचे जमा विशुद्ध गोबर प्रकट होता गया, मगर युवती अभी तक लौट कर नहीं आई। तब से आज तक वह कथित फूफा रबुपुरा की पैंठ में फूं-फा-फूं-फा करता विचरण कर रहा है।
बेचारे मुसद्दीलाल अपने दत्तक पुत्र की खोज में वात्सल्य और विरह के रिमिक्स अलापता घूम रहा है। आज सुबह ही सुबह उन्होंने हमारे दर पर दस्तक दी और बोले, 'भइया हम लुट गए। रामलाल चुना लगा गया। हम देखते रह गए और वह फरार हो गया।'
हम बोले, 'कौन रामलाल?' वे बोले, 'अरे वही, जो हमें पिता तुल्य मानता था। जिसे हमने पुत्र का स्नेह दिया था। जिसे हमने अपने घर आश्रय दिया, क्या-क्या नहीं किया हमने उसके लिए! आज हमें घर से बाहर गली में खड़ा कर गया, दगाबाज निकला कमबख्त।'
हम समझ गए कथित पिता व कथित पुत्र के रिश्तों के मध्य जमी घी की चिकनी पर्त पिघल गई। हम बोले, 'अच्छा-अच्छा वह तुम्हारा दत्तक पुत्र, रामलाल!' नम आंखें शुष्क करते हुए भाई मुसद्दीलाल बोले, 'ना-ना-ना, उस दगाबाज को पुत्र न कहो, पुत्र के नाम पर कलंक है।'
युवती ने वृद्ध को फूफा बना कर और रामलाल ने मुसद्दीलाल को बाप बना कर अपना उल्लू सीधा कर लिया। दुनिया का व्यापार ऐसे ही चल रहा है। उल्लू सीधा हो गया तो सारे जहां की नियामतें अपने कदमों तले समझो। सवाल बस उल्लू सीधा करने का है। सब अपने-अपने तरीके से उल्लू सीधा करने में जुटे हैं, कोई फूफा बना कर तो कोई बाप बना कर। बाप बना कर उल्लू सीधा करना अपेक्षाकृत सहज है, क्योंकि बाप बनाने में रिश्तों का समीकरण नहीं समझाना पड़ता। वैसे भी इंसान में बाप बनने की इच्छा प्रबल है अत: गधत्व भाव से बापत्व सहज स्वीकार कर लिया जाता है।
गधे को बाप बनाने की कहावत हालांकि सदियों पुरानी है और कहावत की पीछे छिपा रहस्य भी सर्वविदित है। फिर भी बनाने वाले गधों को बाप बना कर उल्लू सीधा कर रहें हैं और बनने वाले बन रहे हैं, देखती आंख मक्खी निगल रहे हैं, कथित पुत्र का भार ढो रहे हैं।
सभी मूल बाप गधे नहीं होते। चूंकि सभी मूल बाप गधे नहीं होते, इसलिए उल्लू सीधा करने के लिए गधे-बाप तलाशने पड़ते हैं, अर्थात गधों को बाप बनाना पड़ता है। प्रतिस्पर्धा का युग है, दुनिया तेजी से दौड़ रही है, अत: एक बाप के सहारे जीवन की दौड़ में बने रहना संभव नहीं है, इसलिए मूल बाप के अलावा एक और बाप चाहिए, 'गॉड फादर' चाहिए। एक घर का और एक बाहर का होना चाहिए।
बनने वाले जानते हैं कि बनाने वाला तुम्हें नहीं तुम्हारे गधत्व को बाप बना रहा है, अर्थात बाप, बाप कह कर तुम्हें गधा बना रहा है। बनने वाले फिर भी बन रहे हैं। एक ढूंढों हजार मिलते हैं कि कहावत चरितार्थ कर रहे हैं। गधे को बाप बनाना बनाने वाले का स्वभाव है और बाप बनना गधों का स्वभाव है। दोनों का अपना-अपना स्वभाव है। बनाने वाले बनाते रहेंगे और बनने वाले बनते रहेंगे। दुनिया का व्यापार ऐसे ही चलता है, ऐसे ही चलता रहेगा। रबुपुरा की पैंठ में वृद्ध अपने कथित साले की कथित पुत्री को खोजता रहेगा और मुसद्दीलाल अपने कथित पुत्र के कारनामों को यूं ही रोता रहेगा। रिश्तों की चिकनाई पिघलेगी, शुद्ध घी के नीचे छिपे विशुद्ध गोबर की सच्चाई भी उजागर होती रहेगी बावजूद इसके गधों को बाप बनाने का सिलसिला निर्बाध जारी रहेगा, क्योंकि यह स्वभाव है।
राजेंद्र त्यागी
संपर्क : 9868113044

Monday, October 15, 2007

दशानन की लोकतांत्रिक शक्ति




शानन का जनता दरबार लगा था। द्वार पर तैनात प्रहरी एक-एक व्यक्ति की जमा-तलाशी लेकर उन्हें दरबार में प्रवेश करा रहे थे। दरबार में प्रवेश कर वे महाराज का अभिवादन करते और उनका सचिव भ्राता खरदूषण छीनने की तर्ज पर उनके हाथ से ज्ञापन ले लेता। कोई व्यक्ति कुछ बोलने की हिम्मत करता कि उससे पूर्व ही सुरक्षा कर्मी उसे बाहर का रास्ता दिखला देते। जन-नायक दशानन के साथ जनता की भेंट का सिलसिला जारी था कि तभी दूत ने अभिवादन करते हुए दशानन को सूचना दी, 'महाराज! मलेच्छ प्रदेश की मुख्यमंत्री आदरणीय मंदोदरी पधारी हैं।' मंदोदरी ने दरबार में प्रवेश किया। उसके खुले केश हवा में ध्वज की समान लहरा रहे थे। कमल पात के समान विस्तृत नयन में अश्रु कण सुशोभित थे और चेहरा क्लांत था। महारानी मंदोदरी का ऐसा रूप देख दशानन का दरबार इस प्रकार सहम गया, मानो कोई वामपंथी दरबार में बलात प्रवेश कर गया हो। गरीबी रेखा के नीचे खिंची रेखा पर लटकी जनता के समान दशानन को प्रणाम कर मंदोदरी बोली, 'हे, नाथ! पीड़ा अब असहनीय हो गई है। मैं बार-बार विधवा होती रहूं, अब और सहन नहीं होता। बार-बार आपके दिवंगत होने और मेरे विधवा होने का यह सिलसिला आखिर कब तक चलता रहेगा। हे, प्राणनाथ! आपको तो भगवान शिव का वरदान प्राप्त है, जितनी बार दिवंगत होंगे, आप तो उतने ही नए शीश लेकर पुनर्जन्म को प्राप्त होंगे। आप तो जीवन-मरण की इस राजनीति में दशानन से शतानन् हो गए हो, मगर मैं? मैं तो निरीह जनता की तरह लोकतंत्र की इस चक्की में उसी तरह पिसे रहीं हूं, जिस तरह गेहूं के साथ घुन!'प्रिय मंदोदरी के ऐसे वचन सुन दशानन मुस्करा कर बोला, 'प्रिय तुम एक विशाल प्रदेश की मुख्यमंत्री हो और क्या चाहिए, तुम्हें? विधवा होने का नाटक भी नहीं कर सकती? प्रिय, राजतंत्र नहीं अब लोकतंत्र है और लोकतंत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए नाटक परम् आवश्यक है। कौन कहता है, तुम बार-बार विधवा हो रही हो! त्रेता से लेकर आज तक तुम अक्षुण्ण सुहागिन हो और सदैव सुहागिन ही रहोगी। चिंता का त्याग करो, प्रिये और निश्चिंत हो कर सत्ता का सुखोपभोग करो।'
पलकों से टपके आंसू पोंछ मंदोदरी बोली, 'निश्चिंत हो कर सत्ता का सुखोपभोग करूं! ..कैसे? अपने सुहाग को रोज-रोज मरते देखती रहूं! ..कैसे? हे, नाथ! प्रतिदिन मृत्यु को प्राप्त होने की अपेक्षा एक बार ही मृत्यु का पूर्ण-वरण कर लेना श्रेयष्कर होगा और मैं भी निरंतर विधवा होने की पीड़ा से मुक्त हो जाऊंगी।''
प्रिय, मंदोदरी! तुम लोकतांत्रिक राजनीति के नैतिक मूल्यों से अनभिज्ञ हो। तुम नहीं जानती कि अब पूर्ण मृत्यु का वरण करने की अपेक्षा प्रतिक्षण मृत्यु को प्राप्त करने वाले ही चिरजीवी होते हैं। वही नेता सत्ता का परम् पद प्राप्त करने में सफल होता है, जो प्रतिक्षण मृत्यु का वरण करते हैं। प्रिये! जिसे तुम मृत्यु कह रही हो, वह मृत्यु नहीं, नव-जीवन है। लोकतंत्र में यही श्रेयष्कर है।' वक्ष-स्थल से खिसक आए साड़ी के पल्लू को पुन: यथास्थान जमाया, खुले केश संवारे और बूचड़खाने में बंधी बकरी के समान मिमियाते हुए बोली, 'नहीं-नहीं-नहीं, प्राणनाथ नहीं! विजयदशमी पुन: नजदीक है। आपका वध किया जाएगा और सार्वजनिक रूप से पुन: बंधु-बांधवों सहित आपका अंतिम संस्कार कर दिया जाएगा। मुझे इस पीड़ा से बचालो नाथ, इस पीड़ा से बचालो। भगवान राम के समक्ष आत्मसमर्पण कर दो नाथ और युगों से चली आ रही इस वैर पर सदैव के लिए विराम लगा दो, नाथ।'

अट्टहास करते हुए दशानन बोला, 'अंतिम संस्कार! नहीं, प्रिये मेरा अंतिम संस्कार करने के लिए, राम के पास अब पर्याप्त शक्ति कहां! मेरा अंतिम संस्कार नहीं, पुतले दहन कर कुण्ठा का निष्कासन है, यह। लोकतंत्र में पुतले दहन के अतिरिक्त विपक्ष के पास अन्य कोई विकल्प भी तो शेष नहीं है। सुनो, प्रिये! पुतले दहन कर राम मुझे महिमामंडित कर रहा है। ऐसा कर तुम्हारा राम बता रहा है कि सत्ता पर आज भी मेरा ही अधिकार है और मैं ही लंकेश हूं।''

क्या कहा तुमने, राम के समक्ष आत्मसमर्पण कर दूं! उसके समक्ष जो स्वयं शक्ति विहीन है। प्रिय तुम्हारा राम राजनीति के दुष्चक्र में फंस चुका है और उसकी तमाम शक्तियां आज मेरे साथ हैं। प्रिय भ्राता विभीषण का राम दरबार से मोह भंग हो चुका है। उसे लंका का राज्य तो क्या विधायक का भी टिकट नहीं दिला पाए राम। विभीषण आज लंका के गृहमंत्री पद पर सुशोभित हैं। प्रिय सुग्रीव खाद्य मंत्री हैं और मस्त हो कर चारा चर रहें हैं। बाली पुत्र प्रिय अंगद के हाथों में लंका का प्रतिरक्षा विभाग है और समुद्र वित्तमंत्री। प्रिय तुम्ही बताओ तुम्हारे राम के पास अब बचा ही क्या है।''

मगर, महाराज! यह तो आपके आदर्श व मर्यादा के विपरीत है।' मंदोदरी बोली।दशानन के अट्टहास से पुन: दरबार गूंज गया। अट्टंहास करते-करते वह बोला, 'आदर्श-गरिमा! राजनीति में आदर्श, दोस्ती और दुशमनी कभी स्थायी नहीं होती। मार्ग वही आदर्श कहलाता है, जो सत्ता तक पहुंचाए और सत्ता को अक्षुण्ण रखे। ऐसी गरिमा का क्या लाभ प्रिय, जो व्यक्ति को भटकने की राह पर ला खड़ा करे। गरिमा तो क्रय-विक्रय की वस्तु है। सत्ता यदि हाथ में हो तो गरिमा स्वयं वरण कर लेती है।''

प्रिय मंदोदरी! जाओ भयमुक्त हो कर राज करो। त्रेता से आज तक तुम्हारा पति लंकेश प्रति क्षण मृत्यु का वरण कर दशानन से सहस्त्र-सहस्त्र शतानन हो गया है और राम बेचारा तब भी वन-वन भटक रहा था और आज भी। जाओ सत्ता सुखोपभोग करो मंदोदरी, सत्ता सुखोपभोग करो।'
राजेंद्र त्यागी-9868113044

Saturday, October 13, 2007

गंजों के सिर पर बाल



जॉन हाकिंस यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर कैथरीन सी थामसन व उनके सहयोगियों ने जीन पर शोध कर गंजों की चांद पर बाल उगाने का आविष्कार किया है। अब सिंगल प्रोटीन के जरिए बंजर चांद पर भी फसल लहराने लगेगी। समाचार पढ़कर मेरी चांद के बाल इस तरह खड़े हो गए, लादेन का नाम सुनकर जिस तरह अमेरिका की एंटी एयर क्राफ्ट गन आसमान की तरफ मुंह उठा लेती हैं। मानव बम का नाम सुन पुलिस जिस प्रकार कथक करने लगती है, उसी प्रकार मेरा तन कांपने लगा। जमीन भी पैरों तले से खिसक गई। वैसे, नेताओं ने जब से जमीन से जुड़े होने के महत्व को समझा है, तब से नेता के पास कुछ हो या न हो, जमीन जरूर होती है। हकीकत तो यह है कि वामन अवतार की तरह नेताओं ने पूरी पृथ्वी ढाई पग में नापने का 'सर्वजन हिताय' अभियान शुरू कर रखा है, ताकि आम-जन के पैरों तले जमीन न रहे। न जमीन होगी, न खिसकने का डर रहेगा। फिर भी मामला यदि संवेदनशील हो तो जमीन हुए बिना भी पांव तले से जमीन खिसकने लगती है।मेरा भयभीत होना फिजूल नहीं है, उसके पीछे जायज कारण है।

मेरे मानना है कि गंजों के सिर पर बाल उगाना आतंकवाद को बढ़ावा देना है। सीधी सी बात है, 'भगवान गंजों को नाखून नहीं देता'। अब यदि गंजों की चांद भी हरी-भरी होने लगेगी तो पूर्व गंजों की उंगलियों में नाखून उगाना ऊपर वाले की मजबूरी हो जाएगी। जब नख संपन्न लोगों की तादाद में इजाफा हो जाएगा तो स्थिति क्या होगी, इसका अंदाज सहज ही लगाया जा सकता है। गंजापन दिखाने से हालांकि गंजे अभी भी बाज नहीं आते, मगर गनीमत यह है कि इसके लिए उन्हें दूसरों के नाखून तलाशने पड़ते हैं। जैसे भाई टोनी ब्लेयर को दूसरों की चांद लहूलुहान करने के लिए चचा जॉर्ज बुश के नाखूनों का सहारा लेना पड़ा।
चचा लादेन हालांकि सिर पर पगड़ी बांधे रहते हैं, उनके सिर का भूगोल दिखलाई नहीं पड़ता, फिर भी मैं दावे के साथ कह सकता हूं, वे गंजे नहीं हैं, क्योंकि उनके नाखून लंबे भी हैं और घातक भी। लोग कहते हैं कि झगड़ा नाक के कारण होता है, मगर मेरा मानना है कि नाक तो एक बहाना है। झगड़े की जड़ नाखून है, नाक नहीं। नाक तो फिजूल में बदनाम है, बेमतलब पानी-पानी हो रही है। नाक कितनी भी फूं-फां कर ले, यदि नाखून ही न होंगे तो नाक का सवाल हल करने के लिए, कोई भी किसी की चांद नाक से जख्मी नहीं कर पाएगा। खतरा बस नाखूनों से है।दिल्ली के एक स्वास्थ्य मंत्री ने अपने कार्यकाल में होटल-रेस्टोरेंट के बावरचियों के नाखून काटने का अभियान चलाया था। महाशय गंजे हैं, इसलिए नख विहीन थे। संभवतया कुंठावश उन्होंने यह अभियान छेड़ा हो। हमने तब उन्हें नेक सलाह दी, 'अरे भाई! सत्ता का नेलकटर बावरचियों पर चलाने का क्या लाभ! नाखून काटने हैं तो नेताओं के काटो। बावरचियों के नाखून तो घर की महिलाओं की तरह काम-काज में खुद ही घिस जाते हैं। नाखून तो नेताओं के घातक हैं।'
उन्होंने उस समय हमारी सलाह पर गौर नहीं फरमाया था, शायद यह उनकी राजनैतिक मजबूरी रही होगी। हालांकि उनके साथी नेताओं ने उन्हें भी नहीं बख्श था। अपने विषाक्त नाखूनों से उनकी बंजर चांद भी लहूलुहान कर दी। हमारी सलाह मान लेते तो शायद बच जाते।
खैर, उनकी वे जाने, हमारा मानना है कि हरी-भरी चांद वाले नेताओं को सत्ता से दूर रखना चाहिए, क्योंकि सत्ता और नाखून, दोनों का साथ रहना उतना ही खतरनाक है, जितना पाकिस्तान में आतंकवादी प्रशिक्षण कैंपों का होना। सत्ता और नाखून, मानों करेला नीम चढ़ा। सत्ता नाखूनों की धार तेज कर देती है। नाखून और सत्ता के घातक गठबंधन का उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं है, देश से परदेस तक अनेक उदाहरण आपकी उंगलियों पर हैं।
विश्व के वैज्ञानिकों से हमारा तो बस यही अनुरोध है कि अनुसंधान आम आदमी के लिए हितकर होने चाहिए। अपने अनुसंधानों की दिशा में परिवर्तन करो। बंजर चांद को उपजाऊ बना कर नाखून वालों की तादाद में वृद्धि का इरादा त्याग दो। यही आम-जन के हित में होगा। कुछ ऐसी खोज करो कि विश्व के सभी नेता गंजे हो जाएं, नख विहीन हो जाएं। तृतीय विश्व युद्ध का खतरा टल जाए, विश्व में शांति स्थापित हो जाए।
राजेंद्र त्यागी- फोन 9868113044

Friday, October 12, 2007

आदमी से डर लगता है

राजेंद्र त्यागी

पिल्लू हमारा पालतू कुत्ता था। कुत्ता कहने में हम उसका अपमान और अपनी हिमाकत समझते थे। इसके विपरीत उसे पिल्लू कहलाना पसंद नहीं था, इसे वह अपना अपमान मानता था और कुत्ता कहलाने में गर्व। आजकल कुछ लोग भी आदमी बने रहने व कहलाने में शर्मिदगी महसूस करते हैं। जब उसका नामकरण पिल्लू किया गया, तो कमजोर देश की कमजोर सरकार की तरह उसने दांत निकाल कर विरोध दर्ज किया था। फिर भी अपने सुपीरियॉरिटी कॉम्पलेक्स के कारण हम उसे पिल्लू ही कहकर पुकारते रहे और अंतत: कमजोर देश की समझौतावादी सरकार की तरह उसने भी हालात से समझौता कर लिया और पिल्लू नाम स्वीकार कर लिया। इसके अलावा, उसके पास और कोई रास्ता भी नहीं था, किंतु जीवन भर वह इस नाम को लेकर त्रस्त रहा। एक बार प्यार में हम उसे झिड़ककर बोले, 'अबे, आदमी हो जा आदमी!' इतना सुनकर वह हम पर गुर्राया, 'मेरी भी अपनी इज्जत है। आदमी कहकर मुझे अपमानित क्यों करते हो?' फिर उसने आदमी केंद्रित दर्शन झाड़ा, 'आदमी अब खुद ही आदमी नहीं रहा है। जब से आदमी के अंदर से आदमियत का लोप हुआ है, वह 'आदिम' से भी ज्यादा हिंसक हो गया है। पता नहीं क्यों आप मेरा आदमीकरण करने पर तुले हैं। हम आदमी से बेहतर हैं, इसलिए मैं जैसा भी हूं, वैसा ही ठीक हूं।' इतना कहकर वह शांत हो गया।

उसका दर्द मुझे जायज लगा। अलबत्ता आदमियों के कुछ गुण उसने अपने अंदर विकसित कर लिए थे। मसलन उसका पीआर व मार्केटिंग बहुत जबरदस्त था। हालांकि वह ऐसे आदमीय सद्गुणों को भी अपनी प्रजाति की ही देन मानता था। उसके पीआर व मार्केटिंग का ही परिणाम था कि हमारे घर जो भी आता, हमें छोड़ उसके प्रति स्नेह भाव प्रदर्शित करने लग जाता। जिस तरह के ऑफर के लिए हम आज तक तरस रहे हैं, ऐसे अनेक ऑफर उसे मिलते रहे। उनमें एक लाख रुपये के पैकेज वाले ऑफर भी थे और इससे ऊपर वाले भी।
यह उसकी मार्केटिंग का ही असर है कि स्वर्गवास के एक वर्ष बाद भी, हमारे घर आने वालों के मुंह से एक ही वाक्य प्राथमिकता के आधार पर निकलता है, 'पिल्लू के बिना घर सूना लगता है जी।' लोग हमारा हाल बाद में पूछते हैं, पहले पिल्लू को श्रद्धांजलि पेश करते हैं। हमारा व्यक्तित्व उसके सामने लोवोल्टेज हो गया है। उसके व्यक्तित्व के कायल लोग आज भी कहना नहीं भूलते, 'जनाब, पिल्लू का व्यक्तित्व बड़ा रोबदार था'। मानो पिल्लू न हुआ, मुगले आजम का शहंशाह हो गया।
पीआर और मार्केटिंग के विवादास्पद सद्गुणों को यदि दरकिनार कर दिया जाए तो बहुत सारे ऐसे आदमीय गुण हैं, जिन्हें उसने नहीं अपनाए। मसलन तलवे चाटना उसका जातीय गुण था, किंतु तलवे चाटते-चाटते काटना नहीं सीख पाया। आदमी ने यह कला विकसित कर ली है। 'भौंकने वाले काटते नहीं हैं', पिल्लू चाहकर भी अपने इस जातीय संस्कार से मुक्त नहीं हो पाया। वह भौंकता बहुत था, किंतु काटता किसी को नहीं था। आदमी के बारे में ऐसा कुछ भी नहीं कहा जा सकता कि भौंकने वाला कटखना होता है अथवा मौन रहने वाला।
पिल्लू के चेहरे पर जो था, उसके दिल में भी वही था। यहां भी वह मार खा गया। जिस थाली में हम उसे भोजन परोसते थे, आज भी सुरक्षित है। कई बार उलट-पलट कर देखा, उसमें एक भी छेद नहीं दिखलाई पड़ा। पिल्लू जिसके टुकड़े तोड़ता रहा, उसके प्रति ही निष्ठावान बना रहा। टुकड़ों के साथ टुकड़ों-टुकड़ों में उसकी निष्ठा तो अवश्य तब्दील होती रही, किंतु टुकड़े किसी के निष्ठा किसी के प्रति, यह आदमीय सद्गुण भी उसने अपने अंदर विकसित नहीं किया। शायद ऐसे सभी सद्गुण उसे पसंद नहीं थे और संभवत: इसीलिए आदमी कहना उसे भद्दी गाली लगती थी।
उसके जीवनकाल में मैं उसे रूढि़वादी मानता रहा। मेरा मानना था कि आदमी की तरह प्रगतिशील रास्ता अपनाकर उसे अन्य आदमीय सद्गुणों के साथ आदमी बनना चाहिए था किंतु उसकी मृत्यु के उपरांत आज मुझे लगा कि पिल्लू ठीक था। हम ही गलत थे, क्योंकि अब मुझे भी आदमी से डर लगता है।

Thursday, October 11, 2007

नेकी तज अनेकी कर


नेकी तज अनेकी कर

राजेंद्र त्यागी
असामाजिक कृत्य नेकी करने वालों के प्रति भले लोगों की हमेशा से ही हमदर्दी रही है। यही कारण है कि नेकी करने के बाद जब-जब भी नेक इंसान पीड़ित हुए, भले मानुषों ने उन्हें दिलासा और सुझाव देने में तनिक भी कोताही नहीं बरती। नेकीकृत पीड़ा के ऐसे ही आड़े वक्त किसी भले मानुष ने सुझाव दिया होगा, 'नेकी कर दरिया में डाल।' नेकी के इतिहास में इसी का क्षेत्रीय संस्करण भी मिलता है, 'नेकी कर कुएं में डाल'। जिन क्षेत्रों में दरिया नहीं बहते होंगे या होते भी होंगे तो जमाने की दुश्वारियों से तंग आकर 'सरस्वती' की गति को प्राप्त हो गए होंगे, ऐसे ही क्षेत्रों के लोग नेकी डालने के लिए कुओं का इस्तेमाल करते होंगे और वहीं से सुझाव का यह क्षेत्री संस्करण उत्पन्न हुआ होगा। आधुनिक युग में परिदृश्य बिलकुल बदल गये हैं। दरिया व कुएं नेकियों के कारण पट गए हैं। दुर्भाग्यवश, अभी तक जो इस सदगति से वंचित हैं, ऐसे दरिया विकास की लाईन में लगे हैं। नेकी से अटे कुओं को समतल कर उन पर जन-सुविधा परिसर निर्मित कर दिये गये हैं। पानी के लिए लोग म्यूनिसपैल्टी के 'मिक्सचर' पर आश्रित हैं। फलस्वरूप नेकी करने वाले बेचारे बड़ी मुसीबत में हैं। जाने-अनजाने किसी से नेकी जैसे पाप कर्म हो जाए तो उसे छुपाने कहां जाए? बदलते इस परिवेश से पीड़ित हमारे मखौलकार मित्र आलोक पुराणिक ने मुसीबत से निजात दिलाने का नायाब हल प्रस्तुत किया है। नेकी करने वालों के लिए उनकी सलाह है,'न सही दरिया और कुएं, नेकी कर ही डाली है तो उसे अखबार में लपेट, यानी, 'नेकी कर अखबार में डाल।' हम प्रैक्टिकल अप्रोची हैं, प्रगतिवादी हैं, परिवर्तनवादी हैं। इसलिए हमारा मत इन से बिलकुल भिन्न है। नेकी करने का मूल सिद्धांत ही हमें फंडामेंटल लगता है, दकियानूसी लगता है। हमारा कहना है कि नेकी करे ही क्यों? पहले नेकी कर और फिर नाजायज औलाद की तरह अखबार में लपेट, दरिया-कुएं में दफनाता फिर। जरा से मजे के लिए जिंदगी भर की तोहमत, पागल कुत्ते ने काटा है? ऐसी नेकी से तो तोबा भली।ेनेकी के विरोध और अनेकी के पक्ष में हमारे पास सोलिड तर्क हैं, जैनविन कारण हैं।े हमारा कहना है, भाई! ऐसा कृत्य करते ही क्यों हो, जो समाज को स्वीकार्य न हो। स्वीकार होता तो दरियर या कुएं का मसला ही न उठता। हमारी मान! नेकी कर अपना नाम असामाजिक लोगों की सूचि में दर्ज न करा।
नेकी करेगा, भईया! फल अगले जन्म में मिलेगा, मरने के बाद स्वर्ग मिलेगा। पूरे एक जन्म का इंतजार!आंख बंद हो गई फिर किसने देखा।आज का भरोसा नहीं, कल किस ने देखा।अनेकी करेगा, हाथ के हाथ फल मिलेगा।जिंदगी भर मजा लूटेगा, इसी जन्म में स्वर्ग मिलेगा।नेकी करेगा! मूर्ख कह लाएगा।अनएफिसिऐंट का लेवल चस्पा हो जाएगा।मरने के बाद भले ही स्वर्ग मिल जाए।जीते जी तो नरक का हीभागी रहेगा।औलाद को भी गर्त में ढकेल जाएगा।अनेकी करेगा! बहुमुखी प्रतिभा के धनी कह लाएगा।देर-सबेर नेता भी बन जाएगा।जीवन भर सत्ता सुख भोगेगा।मरते-मरते, औलाद के लिए मार्ग प्रशस्त कर जाएगा।हमारी सलाह है, व्यवहारिक सलाह है।नेकी मत कर, अनेकी कर अनेक बार कर, बार-बार कर। सुखी रहेगा। नेकी फेयर है, अनेकी अफेयर। जमाना फेयर का नहीं अफेयर का है।फेयर करना गले में हड्डंी डालना है।हड्डंी चूस! कौन मना करता है?फेयर के चक्कर में गले न फंसा।फेयर करेगा जूते खाएगा।एक से भी हाथ धो जाएगा।फेयर नहीं 'अफेयर' कर। ढोल अपने नहीं दूसरे के गले पड़ा रहने दे। जब मन आए बजा लेना, मन न करे तो कान दबा कर खिसक जाना। 'अफेयर' कर खुल्लम-खुाल्ला कर, मन भर कर। 'अफेयर' करेगा तो नाजायज औलाद भी जायज होने का एडवांस प्रमाणपत्र लेकर पैदा होगी।खुद के साथ-साथ तेरा नाम भी रोशन कर जाएगी।
समाज में जिसने भी फेयर तज अफेयर किया वही अमर हो गया। लैला-मंजनू, हीर-रांझा, सोनी-महिवाल, सीरी-फरहाद बन गया। प्रेमियों के इतिहास में नाम अमर कर गया। फेयर जिसने किया घृणा का पात्र बन गया। हमारे एक मित्र हैं, नेकीराम जी! बेचारे नेकी मार्गी है। कहने को एम.ए.पीएचडी हैं, मगर मेरठ के लालकुर्ती चौराहे पर गोलगप्पे बेच कर नेक-नीयत के साथ भरण-पोषण करने की चेष्टा में रत्ं हैं। हमने लाख बार समझाया, बड़े भाई! व्यावहारिक बनो। नेकी-वेकी की राह छोड़ो अनेकी का मार्ग अपनाओ। नेकी करोगे तो दरिया या कुएं में कहीं न कहीं दफनानी पड़ेगी। उसके बाद भी समाज से लताड़ ही मिलेगी। मजाल जो उनके कान पर जूं भी रेंगी हो। उल्टे, आंखों से गंगा-यमुना की प्रदूषित धारा बहाते हुए बोले, 'क्या जमाना आ गया है, नेकी के पीछे लोग ऐसे पड़े हैं जैसे कश्मीर के लिए पाकिस्तान अड़ा है। ठीक है! जब नैतिक मूल्यों का ही पतन हो रहा है तो नेकी ही बेचारी कहां बच पाएगी।' उनके दिमाग का प्रदूषण दूर करने का असफल प्रयास करते हुए हमने कहा, 'भई जान! कौन से मूल्यों की बात करते हो? मंदी का दौर है, मुद्रास्फीति का भटकाव बराबर जारी है। ऐसे में तुम्हारे नैतिक मूल्यों का भव कोई क्या लगाएगा? गोलगप्पों के भाव बिक रहे हैं, तुम्हारे नैतिक मूल्य। इस भाव में भी उनका कोई खरीददार नहीं। ऐसे में नैतिक मूल्य अच्छे भाव दे जाएंगे, यह सोचना भी व्यर्थ की कवायद है। कभी-कभार अखबार का अर्थ पृष्ठं भी पलट कर देख लिया करो। तुम्हारी नेकी, बाजार में कभी भाव नहीं बना पाई। नेकी की राह पर चला तो था तुम्हारा राजा हरीशचंद्र, नेकी करने की हिमाकत की थी। क्या हाल हुआ उसका, जगजाहिर है। पीछा तब तक नहीं छूटा जब तक शमशान घाट जा कर नेकी का अंतिम संस्कार नहीं कर दिया। महात्मा गांधी भी नेकी मार्गी थे, एक लंगोटी, एक लाठी के सहारे तमाम जिंदगी काट दी। अनेकी की राह पर चलने वाले उनके चेले-चपाटे! खीमखाफ पहन सत्ता का सुख भोगते रहे। अनेकी की राह पकड़ एक शिष्य पाकिस्तान ले बैठा, पूरी जिंदगी राज करा। बाकी हिंदुस्तान पर काबिज हो गये। जब तक जिंदा रहे खुद राज करा, अब औलाद गुलछर्रे उड़ा रही है। जाने-अनजाने नेकी हो भी जाए तो हमारे मित्र पुराणिक की सलाह पर अखबार वालों के आसपास भी मत फटकना। अखबार और अखबार वालों से किनारा ही करना। नेकी जैसा कुकृत्य अखबार वालों के लिए कोई खबर नहीं है। खबर बन भी जाए तो उसे प्रकाशित करना जनर्लिस्टिक एथिक्स के विपरीत है। अनेकी करोगे तो 'भाई लोगों' की तरह खुद-ब-खुद हाईलाइट हो जाओगे।मगर, क्या कहा जाए? सभी की अपनी-अपनी समझ है, अपनी-अपनी सोच। दरअसल हर आदमी की बुद्धि किसी न किसी लक्ष्मण रेखा के दायरे में कैद है। उससे बाहर न सोचने के लिए बेचारा मजबूर है। फिर भी मेरी सलाह, व्यावहारिक सलाह! नेकी तज, अनेकी कर, एक नहीं अनेक बार कर, बार-बार कर।

संपर्क :-9868113044

Wednesday, October 10, 2007

राजनीति के ब्लैक होल




राजनीति विज्ञानी मुन्नालाल आजकल दिल्ली में हैं। उनके प्रेमियों ने उन्हें राजनीति विज्ञान के स्टीफन हाकिंग के नाम से नवाजा है। अधिसंख्य जनता उनके सिद्धांत आज भले ही न समझ पाती हो, मगर सभी उनका एक झलक पाने के लिए आतुर रहते हैं। उन्हें सुनना चाहते हैं। उनके सारगर्भित लेख पढ़ना चाहते हैं। वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर राजनीति के रहस्य सुलझाना उनकी महान उपलब्धि है। उन्होंने सिद्ध किया है कि छुट-भइया नेता और भ्रष्टाचार की शुरूआत वोट बैंक राजनीति से हुई। राजनीति के वायुमंडल में जिसकी परिणति ब्लैक होल के रूप में हुई। यह उन्होंने आइंस्‍टीन के सापेक्षवाद के सिद्धांत के आधार पर सिद्ध किया है।
विज्ञानी मुन्नालाल दिल्ली से पूर्व मुंबई में व्याख्यान दे चुके हैं। वहां उनके एक व्याख्यान का विषय था, 'संक्षेप में हमारा राजनैतिक ब्रह्माण्ड' और दूसरा विषय था, 'भविष्य में भ्रष्टाचार।' इन व्याख्यानों में मुन्नालाल ने 'लीडर ट्रैक' से शुरू कर 'सत्ता' के चारो तरफ विभिन्न ग्रहों की परिक्रमा व अन्य ग्रहों के निवासियों का राजनीति की भूमि पर आक्रमण विषयों पर चर्चा की थी। गांधी युग के बाद से राजनैतिक आकाश में कितने परिवर्तन आए, उन्होंने इस विषय पर भी प्रकाश डाला है। दिल्ली में उनके व्याख्यान का विषय होगा, 'राजनैतिक आकाश' में ब्लैक होल।
गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या थी। विज्ञानी मुन्नालाल का व्याख्यान सुनने के लिए जनमानस मनमोहन हॉल में घुसने के लिए इस तरह धक्का-मुक्की कर रहा था, हाल के भीतर सरकार जैसे बाढ़ पीड़ितों के लिए गुड़-चने बांट रहा हो। धीरे-धीरे मनमोहन  हॉल खचाखच भर गया। कुछ देर इंतजार के बाद उदघोषक ने मुन्नालाल के पधारने की घोषणा की। लोगों की निगाहें मंच के बैक डोर की तरफ उठी। दरअसल आजकल के महान नेता ऐसे ही बैक डोर के माध्यम से राजनैतिक मंच पर प्रवेश करते हैं।
हाकिंग की मुख मुद्रा का मास्क ओढ़े मुन्नालाल मंच पर पधारे। हॉल में एकत्रित संपूर्ण जनमानस ने घुटनों के बल झुक कर मुन्नालाल के शान में सजदा किया। हाकिंस की तर्ज पर मुन्नालाल ने धीरे से अपनी गर्दन बाई तरफ लुढ़काई और मुस्करा कर जनमानस का अभिवादन स्वीकार किया।
मुन्नालाल ने रडार के एंटीना की तरह हॉल की चारो दिशाओं में निगाह घुमाई और फिर बोले-'वर्तमान राजनीति से शोषित मेरे भाइयों और बहनों! नेताओं के सम्मान में कब तक घुटनों के बल झुके रहोगे। राजनैतिक ब्रह्माण्ड के रहस्य समझने का प्रयास करो, वरना तुम्हें एक दिन घुटने के बल रेंगना पड़ेगा।'
लानत-मनानत देने के बाद विज्ञानी आगे बोला, 'इस ब्रह्माण्ड के जटिल रहस्य समझाने के लिए आज फिर मैं आपके सामने उपस्थित हूं। शोषित भाइयों और बहनों राजनैतिक -ब्रह्माण्ड   दरअसल इतना प्रदूषित हो चुका है कि उसे एनेलाइज करने में मुझे भी एड़ी से चोटी तक पसीना बहाना पड़ा।'
वास्तव में राजनैतिक सृष्टिं अनिश्चितता (अनसर्टेटी) के सिद्धांत से बंधी है। इसलिए राजनीति और लोकतंत्र के भविष्य के बारे में जानना फिलहाल मुमकिन नहीं है। निश्चिततावाद (डिटर्मिनिजम) और अनिश्चिततावाद (अनसर्टेटी) विषय पर आजादी के बाद से ही बहस चल रही है। फिर भी अभी तक किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सका है। लेकिन आईंस्‍टीन के सापेक्षवाद और उसके उसके बाद क्वांटम सिद्धांत के आधार पर हम कुछ निष्कर्षो पर पहुंचे हैं।
प्राप्त निष्कर्षो के आधार पर कहा जा सकता है कि ब्रह्माण्ड के किसी कण की तरह नेता के भी दो प्रमुख गुण होते हैं-उसकी स्थिति (पोजीशन)और गति (मूवमेंट)। नेता की गति भ्रष्टाचार से संचालित है। इसलिए गति मापना नामुमकिन है। गति मापने चलेंगे तो उसकी स्थिति नहीं माप पाएंगे, क्योंकि नेता हमेशा गतिशील रहता है। मेरा दावा है कि नेता की गति ईश्वर भी नहीं माप पाया है। इसलिए नेता की गति का अनुमान उसके तरंग गुणों (वेव/मूड) से ही लगाया जा सकता है। जब तक नेता की गति व स्थिति का पता नहीं चलेगा तब तक राजनीति और लोकतंत्र के भविष्य के बारे में विज्ञान तो क्या ईश्वर भी कुछ कहने की स्थिति में नहीं है।
गर्दन इधर उधर ढलकाते हुए मोहक अंदाज में मुन्नालाल आगे बोले- दया के पात्र मेरे भाइयों-बहनों! वर्तमान राजनीति के आधार लोकतंत्र का विखंडन किया जाए तो परमाणु के रूप में सत्ता दृष्टिंगोचर होती है। उसका पुन: विखंडन करने पर नाभिक (न्यूक्लिअर) के रूप में कुर्सी के दर्शन होते हैं।
नाभिक (कुर्सी) के चारों तरफ नेता व अपराधी नाम के दो तत्व लगातार परिक्रमा कर रहे हैं। परमाणु विखंडन में एक तीसरा तत्व भी हाथ लगता है और वह है मतदाता। विज्ञान की भाषा में सूक्ष्म इन तत्वों को क्रमश: प्रोटोन, इलेक्ट्रोन और न्यूट्रोन कहते हैं। प्रोटोन की तरह नेता की प्रकृति धनात्मक, इलेक्ट्रोन की तरह अपराधी की प्रकृति ऋणात्मक होती है और न्यूट्रोन की तरह मतदाता निष्क्रिय होता है। नेता व अपराधी नाम के ये दोनो तत्व अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार एक दूसरे को आकर्षित करते हैं। वास्तव में इस प्रकृति के कारण इन दोनों का गठजोड़ बन जाता है। विज्ञान की भाषा में जिसे नैक्सस कहते हैं। क्योंकि मतदाता नामक तत्व अपनी प्रकृति के अनुरूप निष्क्रिय है, इसलिए राजनीति की न्यूक्लियर (कुर्सी) पर शेष दोनों ही तत्वों का नैक्सस हावी रहता है।
राजनैतिक वायुमंडल में 'ब्लैक होल' उत्पन्न होने के भी यही कारण हैं। नेता व अपराधी नामक दोनों ही तत्व एक कृत्रिम पदार्थ 'भ्रष्टाचार' से ऊर्जा प्राप्त करते हैं। भ्रष्टाचार की तुलना हम प्रकृति के कृत्रिम पदार्थ प्लास्टिक से कर सकते हैं। प्लास्टिक की तरह भ्रष्टाचार नामक यह तत्व भी कभी नष्ट न होने वाला है।
भ्रष्टाचार से नेता-अपराधी नैक्सस जब ऊर्जा प्राप्त करते हैं तो उस समय होने वाली रासायनिक प्रक्रिया से खतरनाक गैसें निकलती हैं। जिस तरह प्लास्टिक से निकलने वाली खतरनाक गैसें वायुमंडल के सुरक्षा कवच ओजोन पर्तो में छिद्र कर ब्लैक होल का निर्माण करती हैं। उसी प्रकार भ्रष्टाचार से निकलने वाली खतरनाक गैस भी राजनैतिक वायुमंडल के सुरक्षा कवच 'शुचिता, नैतिकता और राष्ट्रवाद' में छिद्र कर ब्लैक होल का निर्माण करती हैं। ये ब्लैक होल आकार में इतने विशाल होते हैं कि अनेकों सत्ताएं इनमें समा सकती हैं।
विज्ञानी मुन्नालाल ने अपने भाषण में आगे कहा भाइयों और बहनों ये ब्लैक होल दिखने में इतने श्वेत होते हैं कि राजनीतिक क्षितिज में दैदीप्त सितारों की चमक भी इनके कृत्रिम प्रकाश के सामने धूमिल पड़ जाती है और ये ब्लैक होल सितारों का भ्रम पैदा करने लगते है। इसलिए राजनीति के हे, शोषित भाइयों बहनों! राजनैतिक  ब्रह्माण्ड   के रहस्य को जानों और कृत्रिम ब्लैक होल के भ्रम से दूर रह कर राजनीति के वास्तविक सितारों को पहचानो।
विज्ञानी मुन्नालाल ने अपना व्याख्यान समाप्त किया और सजल नेत्रों के साथ फिर उसी बैक डोर से वापस लौट गया।
संपर्क - 9717095225

Tuesday, October 9, 2007

हाए! भ्रष्टाचार के खेल में पिट गए!





हाए! भ्रष्टाचार के खेल में पिट गए!


राजेंद्र त्यागी
मन खिन्न है। भविष्य के प्रति चिंतित है। पानी उतरा हमारा चेहरा शर्म से पानी-पानी है। उम्मीद थी कि भ्रष्टाचार के क्षेत्र में एक दिन हम विश्व के सिरमौर हो जाएंगे। अब उसमें भी हम पिछड़ते जा रहे हैं, सत्तर वे पायदान से खिसक कर बहत्तर वे पायदान पर आ गए हैं। इस खेल में हम म्यानमार और सोमालिया जैसे टटपूंजिए देशों के हाथ पिट गए, इसलिए मेरा मन शर्मसार है। इतना भी होता तो गनीमत थी। ट्वेंटी-ट्वेंटी में मात खाए पाकिस्तान और बांग्लादेश से फिफटी- फिफिटी के गेम में पिछड़ गए, इसी वजह से मेरा मन उदास है। रफ्तार यदि यही रही तो सौवें पायदान की गति को भी शीघ्र ही प्राप्त हो जाएंगे, विश्व में फिसड्डी कह लाएंगे!
अफसोस यह नहीं है कि भ्रष्टाचार उतार पर है। जिंदगी में उतार-चढ़ाव तो चलते ही रहते हैं। अफसोस तो यह है कि अब हम गर्व से कैसे कह पाएंगे कि हमारे हुक्मरानों के स्नानागारों में स्वर्ण-जड़ित नल की टोंटियां हैं। भ्रष्टाचार यदि पूर्णरूपेण समाप्त हो गया तो फिर राष्ट्रीय शिष्टाचार का क्या होगा? याद रखो जिस राष्ट्र का अपना का कोई शिष्टाचार नहीं है, जिस राष्ट्र का कई राष्ट्रीय-चरित्र नहीं है, वह राष्ट्र कहलाने के काबिल नहीं है।
जब मुझे कोई उलाहना देता था कि तुम्हारे देश का कोई राष्ट्रीय-चरित्र नहीं है, तब मेरा राष्ट्रवादी मन गर्व से कह उठता था, ''मूर्ख हो तुम! भ्रष्टाचार मेरे भारत-महान का राष्ट्रीय-चरित्र है!'' अब राष्ट्र-संस्‍कृतिवाद का यह सुनहरा पन्ना फटता नजर आ रहा है। यही कारण है कि मेरा राष्ट्रवादी मन आज खिन्न है। शुष्क चेहरा भी शर्म से पानी-पानी है।
भ्रष्टाचार का शिष्टाचार समाप्ति की और है, कोई बात नहीं। सांसकृतिक-मूल्य समय के अनुरूप बदलते रहते हैं। नए मूल्य पुराने मूल्यों का स्थान ले लेते हैं। वैकल्पिक मूल्य रिक्त-स्थान की पूर्ति कर देगें। मगर अफसोस तो यह है कि मेरा भारत-महान ईमानदारी के सैकड़े की ओर कदमताल कर रहा है। मैं इसे आत्मघाती कदम मानता हूं।
क्‍योंकि 'ऊपर-वाला' और 'बेईमानी' मनुष्य की जिंदगी में ये ही तो दो दैविक आसरे हैं। मगर ऊपर-वाले की कृपा से केवल परलोक सुधारता होगा, पता नहीं। किंतु सर्वविदित है, इहलोक तो बेईमानी के आशीर्वाद से ही फलता-फूलता है। ऊपर-वाला ऊपर की कमाई में रत्ती भर भी सहायक नहीं है। ऊपर की कमाई बेईमानी-देवी के ही आशीर्वाद से प्राप्त होती है। ऊपर की कमाई ही आर्थिक स्थिति को मजबूती प्रदान करती है। मनुष्य ऊपर-वाले का स्मरण केवल कष्ट में करता है और मनुष्य कष्ट में तब होता है, जब वह ईमानदार हो जाता है। अत: दोनों में से बेईमानी ही मनुष्य के सुखद जीवन के लिए महत्वपूर्ण दैविक आसरा है। बड़े-बुजुर्गो ने भी कहा है, ''बेईमानी तेरा ही आसरा''! मेरा भारत-महान प्रगतिशील मार्ग का त्याग कर ईमानदारी के आत्मघाती मार्ग का अनुसरण कर रहा है, मेरा पवित्र मन इसीलिए उदास है।
हे, भारत-महान के कर्णधारों! भ्रष्टाचार प्रगति मार्ग है, बेईमानी उसका आधार है। इस देश का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है, राष्ट्र की आर्थिक प्रगति का प्रतीक है, सुदृढ़ अर्थव्यवस्था का आधार है। देश में समाजवाद लाना है तो ईमानदारी जैसे घातक मार्ग का त्याग कर, बेईमानी की पूजा-अर्चाना करो। भ्रष्टाचार को सींचों, देश को आगे बढ़ाओ।
संपर्क – 9868113044

Monday, October 8, 2007

शिक्षा के क्षेत्र में हरित क्रांति


शिक्षा के क्षेत्र में हरित क्रांति
राजेंद्र त्यागी
कल एक समारोह में गया था। समारोह में शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए शिक्षाशास्त्री सम्मान प्रदान किया जाना था। सम्मान के लिए आदर के साथ नाम की घोषणा की गई। माननीय मुन्नालाल मंच पर पधारे। शक्ल-सूरत देख कर हम हतप्रभ रह गए। हमारे अन्त: करण से आवाज आई, ''अरे! ये तो अपना मुन्नाभाई पानवाला है। पानवाले से शिक्षाशास्त्री हो गया!'' मैं उसकी ऊंगलियों में पैन की स्याही के दाग खोजने की चेष्टा करने लगा। प्रत्येक चेष्टा में मुझे उसके हाथों में कत्थे-चूने के दाग पाए। हमने अपने मित्र को पीड़ा से अवगत कराया, ''भइया! मुन्नाभाई और शिक्षाशास्त्री! इसके लिए तो काला अक्षर और भैंस दोनों एक समान हैं।'' मित्र ने व्यंग्य किया है, ''मुन्नाभाई समाजवादी हैं, अत: भेदभाव उनकी प्रकृति में नहीं हैं।''
हम गंभीर थे, हमारे मित्र के मन में व्यंग्य-पुष्प खिल रहे थे। हमने अपनी गंभीरता का अर्थात दोहराया, ''ये जनाब तो पान, बीड़ी-सिगरट का हिसाब भी नहीं लिख पाते। जब पान खाने जाता था, तब मैं ही लिख कर आता था। अनपढ़ व्यक्ति और शिक्षाशास्त्री!'' हमने आश्चर्य भाव से पुन: प्रश्न किया। हमारे प्रश्न का उत्तर मित्र ने प्रश्नवाचक भाव में दिया, ''अक्ल बड़ी या भैंस?'' हम बोले, ''अक्ल!'' मित्र बोला, ''फिर काले अक्षर और भैंस के बीच समानता क्यों खोजते हो? दोनों के मध्य समानता का अख्यान देते समय अक्ल के तथ्य को क्यों भूल जाते हो? काला अक्षर और भैंस के मध्य समानता का आकलन अतीत का आख्यान हो गया है। अब अक्ल और भैंस के मध्य अनुपातिक समीकरण का जमाना है, अत: बिना भाव भावना को नीलाम कर दो और अक्ल से काम लो।''
मुन्नालाल को शिक्षाशास्त्री का तमगा मिलता देख हमारी अक्ल हमारा दामन छोड़ कर कहीं चली गई। भूखी भैंस की तरह शायद कहीं घास चरने गई होगी, यह सोच कर हमने संतोष किया। किंतु मित्र हमारी अक्ल को वापस हांक कर लाने के प्रयास में जुट गया। वह बोले, ''सुनो भाई! यह शिक्षा के क्षेत्र में हरित क्रांति का जमाना है।'' हमने पुन: आश्चर्य उडेला, ''शिक्षा के क्षेत्र में हरित क्रांति! हरित क्रांति का संबंध तो कृषि क्षेत्र से है? रास्ता भटकी भैंस की तरह हरित क्रांति शिक्षा के क्षेत्र में कहां से घुस आई़?''
मित्र ने माथा ठोका और फिर बोला, ''लगता है, तुम्हारी अक्ल अभी तक किसी घूरे पर घास चर रही है, लौट कर नहीं आई है।'' हमें सांत्वना देने के लहजे में वह फिर बोला, ''कोई बात नहीं, ध्यान से सुना, एकाग्रचित्त हो कर सुनों, लौट आएगी। श्कि्षा के क्षेत्र में हरित क्रांति सावन के अंधे की तरह नहीं आई है। वास्तव में आई है। शिक्षा के क्षेत्र में घुस कर तो देखो चारों तरफ हरा ही हरा नजर आएगा।''
हमने पुन: जिज्ञासा व्यक्त की, ''कैसे?'' वह बोला, ''हरा रंग खुशहाली का प्रतीक है, हरित क्रांति माल पैदा करने का प्रतीक है। शिक्षा के क्षेत्र में चारों तरफ माल ही माल है। जो भी इस क्षेत्र में घुस गया मालामाल हो गया। अपने मुन्नालाल का भी यही हाल है।'' हमने अगला प्रश्न किया, '' कैसे?'' वह बोला, ''अपने मुन्नलाल भाई पानवाले के चार इंजीनियरिंग कालेज हैं, दो मेडीकल कालेज हैं और पांच बिजनेस मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट हैं। भाई अब पानवाले नहीं इंस्टीट्यूट वाले हैं। भई अब मालामाल हैं, शिक्षाशास्त्री हैं।'' ''..किंतु यह हुआ कैसे?'' हमने पूछा। मित्र ने बताया, ''हमारी सलाह पर। मुन्नालाल एक दिन बोले, पान के काम में ससुर पैसा तो है, पर इज्जत ना है। कछु ऐसा काम बताओ जिसमें पैसा भी हो और ससुर इज्जत भी। हम बोले, भाई इंस्टीटंयूट खोल लो। मुन्नालाल बोले, मगर हम तो ससुर काला अक्षर भैंस बराबर है। पढ़ाई-लिखाई से तो हमारा जन्म-जन्म का बैर है। हम बोले बैर का त्याग करो, दोस्ती कर लो। अक्ल से काम लो अकबर बन जाओ, बीरबलों की कमी नहीं है। एक ढूंढों के हजार मिल जाएंगे। बस मुन्नालाल की अक्ल में हमारी बात धंस गई और शिक्षाशास्त्री हो गए। अगली सरकार में शिक्षामंत्री भी हो जाएंगे।'' मुन्नलाल पानवाला शिक्षाशास्त्री हो गया। हम बीरबल बने शिक्षा के क्षेत्र में हल चलाने में व्यस्त हैं। मुन्नालाल अकबर बन हरित क्रांति का माल लूटने में व्यस्त है।

Saturday, October 6, 2007

एक अदद जटायु की खोज



एक अदद जटायु की खोज

राजेन्द्र त्यागी

जी विज्ञानी गिद्धों की घटती पैदावार को लेकर चिंतित हैं। अब अपनी ऊर्जा वे गिद्धों की पैदावार बढ़ाने में लगाएंगे। सुना है, सरकार भी इस विषय को लेकर काफी चिंतित है। सरकार की चिंता को लेकर हमें कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि सजातीय के प्रति चिंतित होना जीवों का स्वभाव है। सरकार नामक गठबंधन में शामिल तत्वों कुछ हों या न हों, किंतु उनके जीव होने से इनकार नहीं किया जा सकता। वैसे भी, सरकारों का सरोकार मुख्य रूप में चिंता और चिंतन से ही है, अत: गिद्धों के प्रति उनका मोह आश्चर्य का विषय नहीं है। आश्चर्य हमें विज्ञानियों की सोच को लेकर हुआ, क्योंकि हम उन्हें न बुद्धूजीवी मानते हैं और न ही गिद्धों का सजातीय। फिर न जाने क्यों, अचानक उन्हें गिद्ध मोह कैसे हो गया? क्यों उनकी पैदावार बढ़ाने के लिए अभियान चला रहे हैं? इसे सोहबत का असर भी कहा जा सकता है और परिस्थितिजन्य अन्य कारण भी। अभियान केवल गिद्धों की पैदावार को लेकर ही चलाया जाता तो भी हमारी चिंता का वजन वजनदार न होता, हमारे लिए भी चिंता सरकारी स्तर की होती। चिंता का वजन वजनी होने का कारण गिद्धों की पैदावार बढ़ाने और इंसानों की पैदावार घटाने के लिए चलाए जा रहे अभियान हैं। कभी-कभी लगता है कि सरकार और विज्ञानियों को अब इंसानों की अपेक्षा गिद्धों की कहीं अधिक आवश्यकता है। गिद्धों की पैदावार घट रही है, यह सुनकर भी आश्चर्य होता है और इंसानियत विरोधी ऐसे लोगों की बुद्धि पर तरस भी आता है। वास्तविकता तो यह है कि पैदावार गिद्धों की नहीं, इंसानों की घट रही है। गिद्ध तो एक ढूंढों, हजार मिलते हैं और इंसान हजार के बीच एक भी मुश्किल से! हम इतना अवश्य स्वीकारते हैं कि मरे जानवरों को आहार बनाने वाले गिद्धनुमा विशाल परिंदे आसमान में अब नहीं दिखाई पड़ते, लेकिन उनकी न संख्या में कमी आई और न ही उनकी पैदावार घटी है, केवल स्वरूप बदला है। गिद्धों के परिवर्तित रूप को पहचानो और दृष्टिं बदलो, चारो ओर गिद्ध ही गिद्ध नजर आएंगे। उनके स्वरूप में ही नहीं, स्वभाव में भी परिवर्तन आया है। परिंदे मृत देह का भक्षण करते थे, परिवर्तित गिद्ध जीवित को अपना आहार बना रहे हैं। परिंदे पर्यावरण के लिए लाभदायक होते होंगे, हम इनकार नहीं करते, मगर परिवर्तित गिद्ध समाज के पर्यावरण को प्रदूषित कर रहे हैं। रूप परिवर्तन का यह सिद्धांत मनगढ़ंत नहीं, इसके पीछे ऐतिहासिक आधार है। कलियुग के साथ यह विडंबना रही है कि सतयुग, त्रेता अथवा द्वापरयुग में जब कभी किसी देवता ने रुष्ट-तुष्ट अवस्था में किसी को शाप या वरदान दिया तो कलियुग में मानव योनि प्राप्त होने का ही दिया। भगवान राम भी इससे अछूते नहीं रहे। वन से लौटने के समय भक्ति-भाव से प्रसन्न होकर उन्होंने किन्नरों को कलियुग में राज करने का वरदान दिया था। भगवान राम के उस वरदान का परिणाम सबके सामने है। हमारा अनुमान है कि जटायु की भक्ति से भी प्रसन्न होकर भगवान ने अवश्य उसे भी ऐसा ही कुछ वरदान दिया होगा, 'हम तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हुए वत्स। कलियुग में तुम्हें मनुष्य योनि प्राप्त होगी।'भगवान राम के वरदान का सहारा लेकर त्रेतायुग के सारे गिद्ध कलियुग में मनुष्य योनि को प्राप्त हो गए। जो चतुर सुजान थे, उन्होंने सत्ता का भी दरवाजा जा खटखटाया। इसमें भगवान राम की भी कोई गलती नहीं है। उन्होंने तो केवल जटायु को वरदान दिया था। उसका लाभ समूची प्रजाति ने उठा लिया। यह कलियुग की परंपरा है, क्योंकि इस युग के देवता स्वभावत: काफी उदार हैं। खैर, जो हुआ, विधि का विधान है, इस पर किसी का वश नहीं है, किंतु भूल सुधार की जा सकती है, की जानी चाहिए। खोज गिद्धों की नहीं, जटायु की होनी चाहिए। उन्हीं की घटती पैदावार चिंता का विषय होनी चाहिए।
संपर्क : 9868113044

Thursday, October 4, 2007

जमाना कुत्तों का


जमाना कुत्तों का
राजेद्र त्यागी
न्यूयार्क की बुढिया लियोन हेल्मले अपनी वसीयत में लाखों डालर अपने प्रिय कुत्ते ट्रबल के नाम कर गई। खबर पढ़ कर हमारा चेहरा सड़े कद्दू सा लटक गया। इनसान होने के अहसास को मन ही मन लानत दी, ''कितना अच्छा होता यदि हम भी किसी लियोना के प्रिय ट्रबल होते। दिन फाकों में तो न गुजरते। तलवे चाटते और बुढिया के मरने की खुदा से दुआ करते। भौंकने और तलुवे चाटने में हर्ज भी क्या है, यदि अरबपति बनने का सुनहरी अवसर प्राप्त होता हो जाए। अब कौन उसे कुत्ता कहने की हिमाकत करेगा। अब तक तलवे चाटे थे, अब वह अपने तलवे चटवाएगा।''
कुत्ते की किस्मत से रश्क करते-करते हम जमाने को गरियाने लगे, ''हाय! कैसा जमाना आ गया है, गधे कमाए, कुत्ते खाएं! बुढि़या ने एक बार भी गधों के बारे में नहीं सोचा, जिनकी मेहनत के बल पर वह अरबपति बनी। कोई बात नहीं, वही खाएगा जिसकी किस्मत में लिखा होगा, लेकिन जलालत तो यह है कि पंजीरी कुत्ते खाएं और बदनाम गधों को किया जाए। जहान का बोझा भी ढोएं और बदनाम भी हों। सरासर ज्यादती! हमने अपने मित्र से इस दुखद पहलू का कारण पूछा, तो वह तपाक से बोला, ''ढोने का काम जब है ही गधों का तो बदनामी ही कोई और क्यों ढोए!'' दरअसल हमारे मित्र व्यवहारिक किस्म के जीव हैं। कुत्तों के सद्गुण अपना कर निरंतर प्रगति पथ पर अग्रसर हैं।
अपनी इसी व्यथा को लेकर हमने कृशन चंदर के जहीन गधे से भी भेंट की थी। उनके प्रवचन सुन हमारे दिमाग की बंद सभी खिड़कियां एक-एक कर खुलती चली गई। उनकी जहानत से प्रभावित हो कर उन्हें सलाह दे बैठे, ''दादा! तुम्हें तो राजनीति में होना चाहिए था। तुम्हारे जैसे जहीन कई जीव राजनीति के शिखर तक पहुंच चुके हैं।'' हमारा प्रश्न सुन दादा भड़क गए और नथुने फुला कर बोले, ''किसी एक का नाम तो बताओ बरखुरदार? अरे, जहां मलाई कटती हो वहां हमारे जैसे ईमानदार और मेहनती जीवों को कौन जमने देता है।''
खिसकते-खिसकते हम मूल प्रश्न पर आए, ''दादा! 'गधे पंजीरी खा रहे हैं' फिर यह कहावत क्यों?'' दादा ने नथुने सिकोड़े और बोले, ''अरे, भाई! गधे पंजीरी ढोते भर हैं, खाते नहीं हैं। तुम्हारे ये टीवी चैनल वाले पंजीरी ढोते गधों के फोटो लेकर प्रचारित कर देते हैं, गधे पंजीरी खा रहे हैं। असल में पंजीरी कुत्ते ही खा रहे हैं, हमारे नाम तो बस वाउचर भरे जा रहे हैं।''
दादा की बात में जान दिखलाई दी। दिमाग की खुली खिड़की से हमारी अंतरात्मा झांकी, फिर मुसकराई और बोली, ''अबे, ओ बोड़म! जमाना कुत्तों का है। क्या रखा है इनसान होने में। इनसान गधा है। इंसानियत का त्याग कर कुत्ता बन जा। भौंकना सीख, तलवे चाटने की आदत डाल। आज नहीं तो कल कोई न कोई कंजूस तुझ पर भी आशिक हो जाएगी। अपना न सही मरते-मरते अरबपति तो बना ही जाएगी।''
...

Wednesday, October 3, 2007

प्याज और जमीर



प्याज और जमीर


राजेंद्र त्यागी
दहेज में हमने गाड़ी के साथ पेट्रोलपंप मांगा था। मगर नवनियुक्त हमारे समधी ने गाड़ी तो दी लेकिन पेट्रोलपंप की जगह दस क्विंटल प्याज दे डाली। समधी ने प्याज दी, लोगों ने बधाई। बधाई व प्याज से भरे टोकरे देख हमारा सिर चकराया। उल्लू की माफिक हमने समधी की तरफ सिर घुमाया। नाक-भौं सिकोड़ी और बोले, 'समधी उल्लू न बना। शुभ कार्य में प्याज का तड़का न लगा।'विकिट पर ही हमें लपक समधी बोला- चौधरी! सड़ी प्याज सा मुंह न बना। हमारा अहसान मान, ऊपर वाले का शुक्र मना। ईश्वर ने हमारी ंबुद्धि फेर दी, चुनाव के मौसम में तुझे प्याज दे दी! चुनाव के मौसम में प्याज के भाव आसमान पर चढ़ जाते हैं। नेताओं के नखरे ढीले पड़ जाते हैं।समधी की बात पर हमने त्यौरी चढ़ाई। फिर बात इस तरह बढ़ाई। प्याज के भाव में लड़का नहीं बिकेगा। लड़की के साथ पेट्रोलपंप देना ही पड़ेगा।हमारी बात सुन समधी गुर्राया, हमें आसमान से जमीन पर लाया। समधी बोला- चौधरी! संविधान होता तो जोड़-तोड़ कर संशोधन करवा डालता। क्या करूं! जोड़ियां बनना विधि का विधान है, इसलिए मजबूरी है। मेरी छोरी की किस्मत खोटी है। अरे! तेरी व तेरे छोरे की किस्मत खुल गई। सडे़ आलू से तेरे लड़के की प्याज सी महकती मेरी छोरी के साथ जोड़ी बल गई। अब तू प्याज वाला कह लाएगा। बिरादरी में तेरा नाम हो जाएगा। किस्मत ने साथ दिया तो अब राजनीति में भी चमक जाएगा। राजनीति में प्याज की अहमियत समझ, चौधरी! प्याज को अंडर अस्टिमेट न कर। प्याज जब से राजनीति में आई है, सालिड हो गई है। एक्सट्रा आर्डीनरी हो गई है। दो-दो सरकारों को पानी पिला चुकी है। प्रमुख दोनों दलों को मिटं्टी सुंघा चुकी है। चौधरी! तू, बे बात बावला न बन प्रधानमंत्री के भाषण का मनन कर। आजादी की 56वीं सालगिरह पर प्रधानमंत्री का उच्चारित भाषण याद कर। प्रधानमंत्री ने लालकिले की छत से प्याज नीति का बखान किया था। विदेश नीति, अर्थनीति के बराबर ही प्याज नीति को सम्मान दिया था। इस देश की सरकारों ने जमीर और प्याज दो ही के दो दाम कंट्रोल किये हैं। जिस के राज में इन दोनों कॉमडीटी के दाम बढ़े हैं। वे ही सत्ता की लड़ाई में धराशाई हुए हैं। चौधरी, सुन! प्याज जब से राजनीति में आई है। नेताओं ने प्याज सीने से लगा लिया है, जेब में सजा लिया है। नेताओं के ड्राइंगरूम अब फूलों से नहीं प्याज से सजने लगे हैं। प्याज के परफ्यूम से कपड़े महकने लगे हैं।समधी ने बात आगे बड़ाई- प्याज नेताओं में समाजवाद का प्रतीक चिन्ह है। मेरा बस चले तो प्याज को राष्ट्रीय फल घोषित कर दूं। राष्ट्र चिह्नं में उसे स्थान दे दूं। चौधरी! नेता हूं, पेट्रोलपंप देना मेरे लिए बड़ी बात नहीं, दे सकता था। मगर तू शर्ते पूरी नहीं करता, क्योंकि नेता नहीं, तू मतदाता है। नेता बेचारे के लिए केवल पेट्रोलपंप ही आरक्षित है। मगर मतदाताओं के लिए प्याज और जूते दोनों आरक्षित हैं। चौधरी! मैं नेता हूं। तू नेताओं की पीड़ा समझ। पेट्रोलपंप नहीं प्याज की अहमियत समझ।------


Monday, October 1, 2007

बापू के बंदर राष्ट्र की मुख्यधारा में -व्यंग्य

बापू के बंदर राष्ट्र की मुख्यधारा में
राजेंद्र त्यागी
असत्य वचन न बोलने की नसीहत देने वाले बंदर ने मुंह पर से हाथ हटाया। हवा लगते ही मुंह का आकार वृद्धि को प्राप्त हुआ। उसने चारों ओर देखा और फिर हाथ से मुंह का आकार नापते हुए, साथियों से बोला, ''यह क्या हो रहा है, दोस्तों! ..चारों दिशाओं से असत्य वाणी सुन रहा हूं, असत्य कर्म देख रहा हूं! चारों ओर असत्य ही असत्य!'' साथी के सत्य वचन सुन कर दूसरे बंदर पर भी नहीं रहा गया। उसने आंखों पर जमे हाथों के बंधन से आंखें मुक्त की। बाहरी हवा के संपर्क में आते ही उसकी आंखों ने भी विस्तार लिया। साथी के कथन का समर्थन करते हुए वह बोला, ''सत्य वचन दोस्त! मैं देख तो नहीं सकता था, क्योंकि बापू ने मेरी आंखें बंद कर दी थी, लेकिन मेरे कानों में केवल असत्य ही असत्य गूंज रहा है।'' तीसरा बंदर जो कानों में अंगुली डाल कर असत्य न सुनने की नसीहत प्रचारित करने में व्यस्त था, अपने दोनों साथियों के कृत्य पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए बोला, ''अरे! यह क्या किया? मुंह और आंखों पर से हाथ उठा लिए! बापू के आदेश की अवहेलना! क्या सोचेंगे बापू? उनकी आत्मा को ठेस लगेगी।''
साथी की दकियानूसी बात सुन कर एक बोला, ''आंख, मुंह, कान मुक्त करने भर से बापू की आत्मा क्षतिग्रस्त हो जाएगी और बापू का नाम ले लेकर उनकी आत्मा का जूस निकाल कर पीने वाले शिष्यों के कृत्य से क्या आत्मा पुष्ट हो रही है? मूर्ख न बन! तू भी कानों के अंदर ताजी हवा जाने दे, कानों को विस्तार प्राप्त होने दे।'' दूसरा बोला, ''हमारे ढोल पीटते रहने से न तो असत्य के अस्तित्व आंच आई है और न ही सत्य के जर्जर शरीर में जान आई है। बापू के आदर्शो का बखान तो सभी कर रहें हैं, किंतु परनाला वहीं गिर रहा है, जहां पहले गिरता था। हम ज्ञानेंद्रियों पर हाथ रखे बैठें रहें और बिल्लियां दूध-मलाई मारती रहें। यह कहां की बुद्धिमानी है? मूर्खता का त्याग कर, अब हमें भी राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल हो जाना ही चाहिए।''
साथियों की नसीहत तीसरे बंदर की अक्ल में धंस गई और उसने भी अपने कान खोल लिए। बाहरी हवा लगते ही उसके कान सूप की आकृति को प्राप्त हो गए। उसने कानों के विस्तार का अनुमान लगाया और प्रसन्न -भाव से बोला, ''अब क्या करना होगा?'' दूसरा बोला, ''करना क्या है, चल कर मुख्यधारा में प्रवेश करते हैं और दूध-मलाई के जुगाड़ में लग जाते हैं।'' तीसरा बोला, ''ऐसे नहीं, बापू को जगाते हैं। इतने दिन सेवा की है, मेहनताने की बात चलाते हैं। अरे! कुछ और नहीं आशीर्वाद तो मिल ही जाएगा। बापू के ब्राण्ड में अभी जान है, राजनीति में राम-बाण है।''
तीनों की सहमति हुई और बापू को जा जगाया। बंदरों की हालत देख बापू आश्चर्य-भाव से बोले, ''पुत्रों! यह क्या? तुम तो सत्य के प्रवक्ता हो और तुमने ही..?'' एक बंदर बीच ही में बोला, ''बापू! अब हम भी राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल होना चाहते हैं।'' बापू बोले, ''यह तो ठीक हैं, किंतु असत्य न बोलने, न सुनने और न देखने के आदर्श का प्रचार-प्रसार कौन करेगा?'' उनमें से एक ने उत्तर दिया, ''बापू! अब इसकी आवश्यकता कहां हैं, सत्य पराजित और असत्य विजयी हो गया है। सत्य असत्य और असत्य ही अब सत्य हो गया है। बापू, हम भी अब आजादी चाहते हैं। स्वराज का स्वाद चखना चाहते हैं, राष्ट्र की मुख्यधारा में हाथ धोना चाहते हैं।''
अनमने मन से बापू बोले, ''जैसी तुम्हारी इच्छा, पुत्रों। जाओ, तुम्हें मुक्त करता हूं!'' विस्तृत मुंह वाला बंदर बोला, ''खाली हाथ चले जाएं, इतने दिन सेवा की है, तुम्हारे आदर्शो को ढोया है। फिर भी बैरंग लौट जाएं?'' मुंह फट बंदर की बात सुन बापू ने मन ही मन कहा, ''आशीर्वाद के अतिरिक्त मेरे पास है ही क्या?'' फिर बापू ने चारों ओर निहारा और मुंह फट बंदर के हाथ में बकरी थमा दी। बड़े कान वाले के हाथ में लाठी और विस्तृत आंख वाले बंदर को चरखा थमा दिया। आशीर्वाद प्राप्त कर तीनों ने बापू को प्रणाम किया और भविष्य की रणनीति तैयार करने के लिए पेड़ की छांव तले बैठ गए। बापू के आशीर्वाद और आदर्शो का ख्याल रखते हुए तीनों ने साझा न्यूनतम कार्यक्रम की रूप रेखा तैयार की। कार्यक्रम के तहत तय हुआ कि बड़े मुंह वाला शासन संभालेगा वह न सुनेगा, न देखेगा केवल बोलेगा। लाठी वाला प्रशासन संभालेगा, वह केवल सुनेगा, न बोलेगा न देखेगा। चरखे वाला केवल देखेगा और दोनों हाथों से अर्थ बटोरेगा। इस प्रकार राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक आजादी की जिम्मेदारी का दायित्व तीनों के बीच विभक्त हो गया और साझा कार्यक्रम के तहत तीनों सत्ता की बकरी दूहने में जुट गए। राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल हो गए।
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Saturday, September 22, 2007

राजनीति का खिचड़ी दर्शन -व्‍यंग्‍य

राजनीति का खिचड़ी दर्शन
राजेंद्र त्यागी
कभी-कभी आप असमंजस की स्थिति में होते होंगे। मन में एक विचार आया, उससे निपट भी न पाए कि दूसरा विचार आ टपक। इतना ही नहीं, प्रत्येक विचार अपने ढाई चावल अलग गलाने की चेष्टा में मशगूल रहता होगा। मन में उत्पन्न यही विक्षोभ असमंजस का कारण बनता है। ऐसी स्थिति में विचारों की खिचड़ी पकाना ही श्रेयष्कर है। आप न भी चाहें तो भी ऐसा होना स्वाभाविक है, क्योंकि कब्ज की स्थिति में हाजमा दुरुस्त रखने के लिए खिचड़ी का ही एक विकल्प शेष रह जाता है। वैसे भी जब विचार अपने अपने-अपने ढाई चावल अलग-अलग पकाने की चेष्टा करने लगते हैं तो उनमेंअसमंजस की दाल मिलकर खिचड़ी का पकना स्वाभाविक ही है।
असमंजस की ऐसी खिचड़ी स्थिति अक्सर तब पैदा होती है, जब राजनीति में विक्षोभ पैदा होता है। उत्पन्न विक्षोभ के कारण सुनामी लोग परस्पर टकराने लगते हैं और यह टकराव इतना जबरदस्त होता है कि उनके मस्तिष्क में अनायास ही चुंबकीय तरंगें उत्पन्न होने लगती हैं और जिसका परिणाम होता है, सूनामी लहरें।
सूनामी लहरें अनामी लोगों को उद्वेलित करती हैं और उनके मन में खिचड़ी बनने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। यह खिचड़ी न केवल अनामी लोगों के मन में पकती है, वरन् समूचा राजनैतिक वातावरण ही खिचड़ीमय हो जाता है। जहां देखों वहीं खिचड़ी फदकने से उत्पन्न संगीत सुनाई पड़ने लगता है, क्योंकि प्रत्येक सुनामी अपनी-अपनी खिचड़ी पकाने में मशगूल हो जाते हैं। जिनके पास ढाई चावल हैं वे भी और जिनके पास ढाई भी नहीं हैं, वे भी हांड़ियों के तले चिंगारियों को हवा देने लगते हैं। हांडी मिट्टी की है या काठ की उनके लिए ऐसा सोचना समय की बरबादी है।
जब-जब चुनाव आते हैं, तब-तब खिचड़ी-प्रक्रिया कुछ ज्यादा तेज हो जाती है। खिचड़ी का महत्व और उसकी मांग कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती है। अपने खिचड़ी बालों को संवारते-संवारते मुन्नालाल बोले, ऐसा होना स्वाभाविक है। खिचड़ी राजनीति, खिचड़ी तंत्र, खिचड़ी दल, खिचड़ी सरकार, हर तरफ खिचड़ी-खिचड़ी। फिर खिचड़ी नहीं पकेगी तो और क्या पकेगा?
मुन्नालाल जी आगे बोले, देखो भइया, सुनामियों के लिए चुनाव संकट की घड़ी होती है। उनके लिए यह घड़ी संकट चतुर्थी के समान होती है और संकट चतुर्थी के दिन खिचड़ी का भक्षण पुण्यकारी है। एक बार खिचड़ी पक गई तो बस समझो पूरे पांच साल बिरयानी उड़ाने के शुभ अवसर प्रदान हो गए। अत: प्रत्येक सुनामी खिचड़ी पकाने में व्यस्त हो जाता है और वह भी तेरे ढाई चावल मेरे दाल के दाने, नहीं होंगे तो भी चलेगा, कोई तो ऐसा मिलेगा जिसका दाल-दलिया कर दाल हासिल की जा सकती है। कुल मिलाकर खिचड़ी पकानी है, परमाणु समझोते की आंच पर पके अथवा रामसेतु के किनारे, बस खिचड़ी पकानी है।
हम बोले, 'खिचड़ी तंत्र में खिचड़ी-खिचड़ी यह तो ठीक है, मगर सुनामी लोगों से उत्पन्न सूनामी लहरें! यह नहीं समझे?' मुन्नालाल बोले, 'सीधी सी बात है। सुनामी हैं तो उनके विचार भी सूनामी होंगे ही। विचार सूनामी होंगे तो उनसे चुंबकी-तरंग भी सूनामी ही उत्पन्न होंगी और सूनामी-तरंगों से उत्पन्न सूनामी-लहरें स्रोत को नहीं सामने वाले को प्रभावित करती हैं। अनामी प्रभावित होते हैं।' हम बोले, 'तो क्या अनामी प्रभावित होने के लिए ही हैं? तो क्या खिचड़ी भी सुनामियों के लिए और बिरयानी भी?' मुन्नालाल बोले, 'नहीं, नहीं! सुनामी उनके लिए भी खिचड़ी पकाते हैं, मगर मजबूरी है, उनके लिए खिचड़ी बीरबल-स्टाइल में पकती है। चुनाव के समय उसे आंच दिखलाई जाती है। कहीं जाकर अगले चुनाव आने तक पक पाती है, मगर क्या करें बांटने में कठिनाई होती है, तब चुनाव-आचार संहिता आड़े आ जाती है। अत: बेचारे सुनामियों को खिचड़ी भी खुद ही खानी पड़ती है और बिरयानी भी। अनामियों के लिए बस सूनामी लहरें ही शेष रह जाती है। यही उनकी नियति है। '
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Sunday, September 9, 2007

राजनीति, इज्जत और कीचड़

राजनीति, इज्जत और कीचड़
राजेन्द्र त्यागी
राजनीति का अपना एक संसार है, जिसमें इज्जत होती है, कीचड़ होती है। कीचड़ और इज्जत जब उछलती हैं, तो राजनीति में गतिशीलता के दर्शन हाते हैं। वरन् राजनीति कीचड़ भरे नाले के समान प्रवाह हीन सी दिखलाई पड़ती है। नाले की कीचड़ उछल कर जब सड़क पर आती है, तब पूर्व में कीचड़ के नीचे जारी मंद-मंद प्रवाह गति पकड़ लेता है और उसकी गति व दिशा दोनों स्पष्ट होने लगती हैं। यही स्थिति राजनीति की। कीचड़ राजनीति का स्थाई भाव है। राजनीति है जहाँ, कीचड़ है वहाँ! इज्जत राजनीति का स्वभाविक अंग है, क्योंकि इज्जत मनुष्य के साथ सदैव से चिपकी है। मनुष्य है, तो इज्जत होगी ही। इज्जत, इज्जत है, भले ही वह किसी भी स्तर की क्यों न हो। इज्जत वेश्या के भी होती है, क्योंकि किसी क्षण वह भी बेइज्जती मसूस करती है! इसी प्रकार राजनीति और उसके मुख्य तत्व नेता भी इज्जतदार होते हैं। वेश्या के समान राजनीति भी कब किस के बिस्तर पर करवटे बदलने लगे, कोई भरोसा नहीं है। फिर भी दोनों की अपनी-अपनी इज्जत होती है। दोनों के मध्य बस एक अन्तर है, वेश्या का अपना एक चरित्र होता है, किन्तु नेता इस मामले में प्रगतिवादी है, इसलिए उसकी इज्जत बहुआयामी है! 'इज्जत पर कीचड़ उछाली जा रही है!' राजनीति में यह जुमला अक्सर सुनने को मिलता है, क्योंकि इज्जत और कीचड़ दोनों ही राजनीति के स्थाई भाव हैं। किन्तु मैं इस जुमले से इत्तिफाक नहीं रखता। दरअसल राजनीति में कीचड़ इज्जत पर उछाली ही नहीं जाती। जिस प्रकार नाले से कीचड़ उछाली जाती है, उसी प्रकार इज्जत से कीचड़ उछाली जाती है। यह प्रक्रिया जनहित में है। इसके विपरीत कहावत है कि इज्जत और कीचड़ जब तक दबी रहे तभी तक ठीक है, किन्तु मैं इससे भी इत्तिफाक नहीं रखता। मेरे विचार से इज्जत और कीचड़ दबी-ढकी रहे तो एक दिन बदबू का प्रसारण करने लगती हैं। वायुमण्डल को प्रदूषित करने लगती हैं। अत: दोनों का उछलना आवश्यक है। इज्जत जितनी उछलती है, उतनी ही चमकती है। दबी-ढकी इज्जत क्या खाक चमकेगी? उछलना इज्जत का स्वाभाविक गुण है! जो लोग कीचड़ और इज्जत को दबा कर रखना चाहते हैं, वे 'जमाखोर' प्रवृत्ति के होते हैं और जमाखोरी सर्वजन हित में नहीं है! इज्जत से कीचड़ का उछलना सर्वजन के हित में तो है ही, व्यक्तिगत हित में भी है। जब तक इज्जत कीचड़ में दबी रहेगी, तब तक इज्जतदार का यथार्थ स्वरूप प्रगट नहीं होगा। उसके सद्गुण सार्वजनिक नहीं हो पाते, अत: वह सार्वजनिक जीवन से वंचित रहता है। वह सर्व-जन के गौरव से वंचित रहता है। अत: सर्व-जन होने के लिए इज्जत से कीचड़ उछालना परमावश्यक है। आवरण से ढके व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास नहीं हो पाता है। व्यक्तित्व-विकास तभी होता है, जब वह आवरणहीन होता है, अर्थात नंगा हो जाता है। कीचड़ उछलने के बाद राजनीति में व्यक्ति नंगे से भी दो कदम आगे होता है, अर्थात वह नंग हो जाता है। कहावत है, ''नंग बड़ा बादशाह से'' इस आर्ष-वचन से मैं इत्तिफाक रखता हूँ। जिस किसी विद्वान ने हितकारी इस सूत्र की स्थापना की है, उसे किसी राष्ट्रीय सम्मान से नवाजा जाना चाहिए। नंगपने के इसी मुलमंत्र के सहारे कई महानुभाव बादशाहत तक पहुंच चुके हैं। कीचड़ उछलने के बाद इज्जत पर कुछ दाग चिपके रह जाते हैं। किन्तु वे दाग शत्रु नहीं मित्र प्रवृत्ति के होते हैं! ऐसे दाग इज्जत पर सलमा-सितारों की तरह चमकते हैं! जिसकी इज्जत दागदार नहीं, राजनीति में वह व्यक्ति दमदार नहीं! दाग किसी डिटर्जेट से धोने की धूर्तता मत करना! पक्षताना पड़ेगा! अत: कीचड़ उछल रही है, उछलने दो। इज्जत दागदार हो रही है होने दो! जन-नायक का यथार्थ स्वरूप जन-जन के समक्ष व्यक्त होने दो! नाक कट भी जाए तो क्या गम है! जितनी बार कटेगी, हर बार सवा हाथ बढ़ेगी! नाक कट रही है, जन-नायक का हो रहा है, होने दो! लोकतंत्र सुदृढ़ हो रहा है, होने दो! कीचड़ उछल रही है उछलने दो! -----------------

धैर्य धर मतदाता


धैर्य धर मतदाता
राजेंद्र त्यागी
काम का बोझ और बॉस के बांस का दर्द लिए हम घर पहुंचे। चेहरे पर विरह-संताप का ताप लिए श्रीमतीजी द्वार पर ही प्राप्त हो गई। उनके विरह-संवेग के कारण हम नहीं थे, क्योंकि कृष्ण-गोपिका-विरह की स्थिति अब हमारे लिए अतीत का हिस्सा बन चुकी हैं। रीतिकाल की नायिका की तरह द्वार पर खड़ी श्रीमती जी हमारी बाट नहीं जोह रही थी। वे खंभों पर लटके बिजली के तार निहार रही थी। दरअसल पिछले तीन दिन से बिजली नहीं आई थी। श्रीमतीजी का संतापित चेहरा देख हमारे मुख से निकला, ''अभी तक नहीं आई़!'' पूर्व में जब-कभी पत्नी मायके चली जाया करती थी, तब भी ऐसे ही व्यग्रभाव से हम मन ही मन कहा करते थे, ''आज भी नहीं आई!'' वक्त और जमाने की दुश्वारियों ने पत्नी का रूप परिवर्तन श्रीमती के रूप में कर दिया है। जंग खाए लोहे की तरह धीरे-धीरे पत्नी-भाव का क्षरण हो गया है। जिज्ञासा युक्त हमारा प्रश्न सुनकर विरह-भाव से श्रीमतीजी बस इतना बोली, ''बिहारी की नायिका के समान नखरे दिखाती है। आती है और मुखड़ा दिखाकर चली जाती है।'' बिजली नहीं तो पानी भी नहीं। पानी उतरे नेताई चेहरों की तरह नल भी कई दिन से सूखे पड़े हैं। महाराजाधिराज के आगमन की पूर्व-सूचना की तरह सुबह-शाम सूखी टोंटी वायु-वेग से बिगुल सा बजाती है। तृष्णा-तृप्त बिगुल की आवाज सुन कर ही तन-मन भीग-भीग सा जाता है। दुर्भाग्य हमारा कि आगमन का सूचनात्मक बिगुल हमारे घर बजता है और महाराजाधिराज पड़ोस ही में टपक कर लोट जाते हैं। पिछले कई दिन से वाटरबॉथ का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है। सनबॉथ से ही गुजारा हो रहा है। इसे स्वेट्बॉथ भी कहा जा सकता है, जिसका सौभाग्य घर और दफ्तर दोनों स्थानों पर प्राप्त है। मोमबत्ती के तन में आग लगाकर श्रीमतीजी ने कैंडल-लाइट डिनर का प्रबंध किया। हमने दाल के पानी में रोटी का टुकड़ा भीगोकर पेट की आग पर पानी डालने का प्रयास किया। ईश्वर को धन्यवाद दिया। बिजली-पानी न सही महंगाई के इस युग में दाल-रोटी तो मिल रही है। लगभग यह सुनिश्चित हो चुका था कि बिजली का सहवास आज भी प्राप्त नहीं होगा। बिजली के बिना रात तनहा ही गुजारनी पड़ेगी। हम चारपाई शरणम् गच्छामि हो गए। नींद को आना ही था, वह आ गई। आम आदमी के लिए नींद का आना न आना समाचार नहीं है। प्रसंग-विवशता के कारण इस व्यथा-कथा में जिक्र करना आवश्यक हो गया था, अत: कर दिया। नींद के आगोश में जाते ही हम स्वप्न-लोक में विचरण करने लगे। शुक्र है कि वित्तमंत्रालय का ध्यान अभी इस ओर नहीं गया है, अत: स्वप्न देखना अभी तक सेवाकर से मुक्त है और आम आदमी भी स्वप्न-लोक में विचरण करने का साहस कर सकता है। झर-झर करते झरने की सी आवाज हमारी श्रवणेंदियों में उतरी और साथ ही तेज प्रकाश का सा आभास हुआ। दरअसल इंद्र-लोक की परी के समान सरकार हमारे सपने में उतरी थी। अवतरित होते ही सरकार ने हम से पूछा, ''प्रिय मतदाता! आँखों में जलन दिल में तूफान सा क्यों है?'' अनायास ही सरकार के अवतरण से हम हतप्रभ भी थे और भयभीत भी, अत: अतिथि-औपचारिकता का निर्वाह करते हुए हम बोले, ''कुछ नहीं, बस यों ही!'' हमारा संकोच हमारा औपचारिक व्यवहार का अहसास कर सरकार बोली, ''नहीं-नहीं! नि:संकोच बोलो, निर्भय होकर बोलो, औपचारिकता का त्याग कर बोलो! हम तुम्हारी सरकार हैं, तुम्हारी प्रत्येक समस्या का निवारण, तुम्हारे प्रत्येक कष्ट का हरण करना हमारा धर्म है।'' ''अरे! सरकार भी अहसास करती है! मतदाता के प्रति इतना स्नेह भाव रखती है!'' सरकार का ऐसा व्यवहार देख हम आश्चर्यचकित थे। सरकार की अहसास-शक्ति और स्नेहभाव देख हमने अपनी व्यथा उसके सामने उगल दी। सरकार मुसकरा दी और बोली, ''विद्युत और जल विभाग धैर्य धारण करने की शिक्षा दे रहे हैं। मतदाता उसे संकट समझ रहे हैं। धैर्य धारण करो, प्रिय मतदाता! पॉजेटिव बनो!''
कथित बुद्धिजीवी की तरह सरकार ने नाक, होंठ और गालों पर अंगुलियां घुमाई और फिर गंभीर-भाव से बोली, ''बाह्य-प्रकाश की चिंता में कब तक डूबे रहोगे, प्रिय मतदाता? गीता का अनुसरण कर अंतर्मन प्रकाशित करो! ..तृष्णा कैसी भी हो, मनुष्य के पतन का कारण है! सांसारिक तृष्णा का त्याग कर गीता-उपदेश से अंतर्मन की तृष्णा शांत करो! गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:। अर्थात असत् का भाव नहीं है और सत् का अभाव नहीं है। गीता के इस श्लोक को हमारे दोनों विभाग नीति-वाक्य बनाने की तैयारी में जुटे हैं।'' सरकारी प्रवचन हमारे स्थूल व शुक्ष्म शरीर को संयुक्त रूप से प्रभावित कर गए, अत: हमने सोचा की अवसर हाथ से नहीं जाना चाहिए। सरकार कब-कब हाथ आती है। लगे हाथ ब्ल्यू लाइन-वाइट लाइन के कारनामों के बारे में भी कुछ ज्ञान ले लिया जाए। हमारी जिज्ञासा का खुलासा होते ही सरकार फिर कृष्ण-भाव में आ कर बोली, ''नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारूत:।। जिसे शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, जल गला नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकता। उस आत्मा को ब्ल्यू-वाइट लाइन भला क्या खा कर मारेंगी। आत्मा अमर है। ..हे मतदाता! बस के नीचे जिस शरीर को तुम देख रहे हो, वह नश्वर है। नश्वर पदार्थ के लिए शोक कैसा? बसों पर गीता का यह अमर वाक्य अंकित करने के आदेश कर दिए गए हैं।'' सरकार के कृष्ण-वचन हमारे अर्जुन-मन बिना बिजली के ही प्रकाशित हो गया। आत्मा बिना जल के ही भीग गई। हमें अहसास हुआ बिजली-पानी दोनों असत् है और असत् का भाव नहीं है। बसे आत्मा की अमरता का ज्ञान दे रही हैं। समूची दिल्ली में गीता-ज्ञान का रस बरस रहा है। सरकार अंतध्र्यान हो गई। हमने करवट ली, आँखें खोली। चारोओर अंधकार ही अंधकार पाया। जल-देवता के दर्शनार्थ श्रीमतीजी को ध्यानावस्था में नल के पास खड़ा पाया। पड़ोस से विलाप की आवाज आ रही थी। पड़ोसी सिंह साहब चिथड़ा नश्वर शरीर फर्श पर पड़ा आत्मा की अमरता का संदेश प्रसारित कर रहा था। *******